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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नि यद्यामा॑य वो गि॒रिर्नि सिन्ध॑वो॒ विध॑र्मणे । म॒हे शुष्मा॑य येमि॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । यत् । यामा॑य । वः॒ । गि॒रिः । नि । सिन्ध॑वः । विऽध॑र्मणे । म॒हे । शुष्मा॑य । ये॒मि॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि यद्यामाय वो गिरिर्नि सिन्धवो विधर्मणे । महे शुष्माय येमिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । यत् । यामाय । वः । गिरिः । नि । सिन्धवः । विऽधर्मणे । महे । शुष्माय । येमिरे ॥ ८.७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथोत्साहसाहसयुक्तसैनिकानां महत्त्वं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (यत्) यतः (वः, विधर्मणे, यामाय) शत्रुविरुद्धधर्माय युष्माकं वाहनाय (महे, शुष्माय) महते बलाय च (गिरिः) पर्वताः (नियेमिरे) नियता भवन्ति (सिन्धवः) नद्यश्च (नि) नियता भवन्ति, ईदृशा यूयम् ॥५॥

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    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    हे मरुतः । यद्=यस्मात् कारणात् । वः=युष्माकम् । यामाय=गमनाय । गिरिः=गिरयः=पर्वताः । सुपां सुलुगिति जसः सुः । नियेमिरे=नितरां नम्रा भवन्ति । पुनः । सिन्धवः=स्यन्दनशीलाः समुद्राः । विधर्मणे=विधारद्याथ । महे=महते । शुष्माय=बलाय च । नियेमिरे । अतो यूयं श्रेष्ठा इत्यर्थः ॥५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उत्साही और साहसी सैनिकों का महत्त्व वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (यत्) जो (वः, विधर्मणे, यामाय) प्रतिपक्षी से विरुद्ध धर्मवाले आपके वाहन तथा (महे, शुष्माय) महान् बल के लिये (गिरिः) पर्वत (नियेमिरे) स्थगित हो जाते (सिन्धवः) और नदियें भी (नि) स्थगित हो जाती हैं, ऐसा आपका पराक्रम है ॥५॥

    भावार्थ

    अत्यन्त उत्साही तथा साहसी सैनिकों के आगे नदियें और पर्वत भी मार्ग छोड़ देते हैं। इस मन्त्र में उत्साह का वर्णन किया है ॥५॥

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    विषय

    पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे मरुतो ! (यद्) जिस कारण (वः) आपके (यामाय) गमन के लिये (गिरिः) पर्वत और मेघ आदि बाधक (नि+येमिरे) नम्र हो जाते हैं और (सिन्धवः) स्यन्दनशील समुद्र या नदियाँ आपके (विधर्मणे) धारण करनेवाले (महे) महान् (शुष्माय) बल के सामने (नि+येमिरे) नम्र हो जाते हैं, अतः आप महान् हैं ॥५ ॥

    भावार्थ

    जब झञ्झावायु बड़े वेग से चलता है, तब पर्वतों की बड़ी-२ शिलाएँ गिरने लगती हैं, वृक्ष उखड़कर गिर पड़ते हैं, समुद्र भी मानो, उसके सामने झुक जाते हैं । यह प्राकृत दृश्य का वर्णन है ॥५ ॥

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    विषय

    मेघ और वृष्टि लाने वाले वायुगण का वर्णन ।

    भावार्थ

    वृष्टि लाने वाले सजल वायुगण को ( यामाय ) बांधने, रोकने के लिये जिस प्रकार ( गिरिः = गिरयः ) पर्वत या मेघ और (वि-धर्मणे) उनको विशेष रूप से धारण करने के लिये ( महे शुष्माय ) बड़े वैद्युतिक आदि बल उत्पन्न करने के लिये ( सिन्धवः ) नदियें, सागर और नहरें (नियम्यन्ते) विशेष रूप से बनायी जाती हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) वीरो ! विद्वानो ! (वः यामाय) आप लोगों के नियन्त्रण, संयम और शिक्षण के लिये ( गिरयः ) उपदेष्टा गुरुजन नियत किये जावें । और (विधर्मणे) विशेष रूप से आप लोगों को दृढ़ रखने और ( महे शुष्माय ) बड़े आप लोगों की भारी बलवृद्धि के लिये ( सिन्धवः नियेमिरे ) वेगवान् अश्वों को भी नियम में व्यवस्थित किया जाय । इत्यष्टादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    महे शुष्माय

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब एक व्यक्ति (वः यामाय) = हे प्राणो ! आपके संयम के लिये होता है तो (गिरि:) = [गृणाति] ज्ञान का उपदेष्टा बनता है। उस समय (सिन्धवः) = ये ज्ञान प्रवाह (नि) = निश्चय से उसके (विधर्मणे) = विशिष्ट धारण के लिये होते हैं। प्राणसाधना से ज्ञानदीप्ति बढ़ती है। [२] हे प्राणो ! आप (महे शुष्माय) = महनीय शत्रु-शोषक बल के लिये (नियेमिरे) = संयत किये जाते हैं। प्राणसाधना के द्वारा वह बल प्राप्त होता है, जो शत्रुओं का शोषण करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्राणसाधना हमारे ज्ञान व बल का वर्धन करती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Out of fear and awe of your motion and power which is opposed to their strength and character, mountains hold back and rivers pant and flow.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अत्यंत उत्साही व साहसी सैनिकांसमोर नद्या व पर्वत नतमस्तक होतात. या मंत्रात उत्साहाचे वर्णन केलेले आहे. ॥५॥

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