यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 1
स॒मिधा॒ग्निं दु॑वस्यत घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन॥१॥
स्वर सहित पद पाठस॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। अ॒ग्निम्। दु॒व॒स्य॒त॒। घृ॒तैः। बो॒ध॒य॒त॒। अति॑थिम्। आ। अ॒स्मि॒न्। ह॒व्या। जु॒हो॒त॒न॒ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिधाग्निन्दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् आस्मिन्हव्या जुहोतन ॥
स्वर रहित पद पाठ
समिधेति सम्ऽइधा। अग्निम्। दुवस्यत। घृतैः। बोधयत। अतिथिम्। आ। अस्मिन्। हव्या। जुहोतन॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ भौतिकोऽग्निः क्व क्वोपयोक्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वांसो यूयं समिधा घृतैरग्निं बोधयत, तमतिथिमिव दुवस्यत। अस्मिन् हव्या होतव्यानि द्रव्याण्याजुहोतन प्रक्षिपत॥१॥
पदार्थः
(समिधा) सम्यगिध्यते प्रदीप्यते यया तया। अत्र सम्पूर्वादिन्धेः कृतो बहुलम् [अष्टा॰वा॰३.३.११३] इति करणे क्विप्। (अग्निम्) भौतिकम् (दुवस्यत) सेवध्वम् (घृतैः) शोधितैः सुगन्ध्यादियुक्तैर्घृतादिभिर्यानेषु जलवाष्पादिभिर्वा। घृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१.१२) अत्र बहुवचनमनेकसाधनद्योतनार्थम्। (बोधयत) उद्दीपयत (अतिथिम्) अविद्यमाना तिथिर्यस्य तम् (आ) समन्तात् (अस्मिन्) अग्नौ (हव्या) दातुमत्तुमादातुमर्हाणि वस्तूनि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् [अष्टा॰६.१.६८] इति लोपः। (जुहोतन) प्रक्षिपत। अत्र हुधातोर्लोटि मध्यमबहुवचने। तप्तनप् इति तनबादेशः। अयं मन्त्रः (शत॰६.८.१.६) व्याख्यातः॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गृहस्था मनुष्या आसनान्नजलवस्त्रप्रियवचनादिभिरुत्तम-गुणमतिथिं सेवन्ते, तथैव विद्वद्भिर्यज्ञवेदीकलायन्त्रयानेष्वग्निं स्थापयित्वा यथायोग्यैरिन्धनाज्यजलादिभिः प्रदीप्य वायुवृष्टिजलशुद्धियानोपकाराश्च नित्यं कार्या इति॥१॥
विषयः
अथ भौतिकोऽग्निः क्व क्वोपयोक्तव्य इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे विद्वांसः ! यूयं समिधा सम्यगिध्यते = प्रदीप्यते यया तया घृतैः शोधितैः सुगन्ध्यादियुक्तैर्घृतादिभिर्यानेषु जलवाष्पादिभिर्वा अग्निं भौतिकं बोधयत उद्दीपयत, तमतिथिम् अविद्यमाना तिथिर्यस्य तम् इव दुवस्यत सेवध्वम् । अस्मिन् अग्नौ हव्या=होतव्यानि द्रव्याणि, दातुमत्तमादातुमर्हाणि वस्तूनि आजुहोतन=प्रक्षिपत (समन्तात् प्रक्षिपते) ।। ३ । १ ॥
पदार्थः
(समिधा) सम्यगिध्यते-प्रदीप्यते यया तया । अत्र सम्पूर्णादिन्धेः कृतो बहुलमिति करणे क्विप् (अग्निम्) भौतिकम् (दुवस्यत) सेवध्यवम् (घृतैः) शोधितैः सुगन्ध्यादियुक्तैर्घृतादिभिर्यानेषु जलवाष्पादिभिर्वा । घृतमित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ॥ अत्र बहुवचनमनेकसाधनद्योतनार्थम् (बोधयत) उद्दीपयत (अतिथिम्) अविद्यामाना तिथिर्यस्य तम् (आ) समन्तात् (अस्मिन्) अग्नौ (हव्या) दातुमत्तुमादातुमर्हाणि वस्तूनि । अत्र शेश्छन्दसि बहुलमिति लोपः (जुहोतन) प्रक्षिपत । अत्र हुधातोर्लोटि मध्यमबहुवचने । तप्तनप् इतितनबादेशः ॥ अयं मन्त्रः शत. ६ । ५ । ५ । ६ व्याख्यातः ।। १ ।।
भावार्थः
[तमतिथिमिव दुवस्यत]
भावार्थ:- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥ यथा गृहस्था मनुष्या आसनान्नजलवस्त्रप्रियवचनादिभिरुत्तमगुणमतिथिं सेवन्ते,
[हे विद्वांसो ! यूनंयं समिधा घृतैरग्निं बोधयत]
तथैव विद्वद्भिर्यज्ञवेदीकलायन्त्रयानेष्वग्निं स्थापयित्वा यथायोग्यैरिन्धनाज्यजलादिभिः प्रदीप्य वायुवृष्टिजलशुद्धियानोपकाराश्च नित्यं कार्या इति ।। ३ । १ ।।
भावार्थ पदार्थः
भा. पदार्थः-- अतिथिम्=उत्तमगुणमतिथिम् । दुवस्यत=आसनान्नजलवस्त्रप्रियवचनादिभिः सेवध्वम् । समिधा=इन्धनेन । घृतैः=आज्यजलादिभिः ।
विशेषः
आङ्गिरस: । अग्निः-भौतिकोऽग्निः । गायत्री । षड्जः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब तीसरे अध्याय के पहिले मन्त्र में भौतिक अग्नि का किस-किस काम में उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वान् लोगो! तुम (समिधा) जिन इन्धनों से अच्छे प्रकार प्रकाश हो सकता है, उन लकड़ी घी आदिकों से (अग्निम्) भौतिक अग्नि को (बोधयत) उद्दीपन अर्थात् प्रकाशित करो तथा जैसे (अतिथिम्) अतिथि को अर्थात् जिसके आने-जाने वा निवास का कोई दिन नियत नहीं है, उस संन्यासी का सेवन करते हैं, वैसे अग्नि का (दुवस्यत) सेवन करो और (अस्मिन्) इस अग्नि में (हव्या) सुगन्ध कस्तूरी, केसर आदि, मिष्ट, गुड़, शक्कर आदि पुष्ट घी, दूध आदि, रोग को नाश करने वाले सोमलता अर्थात् गुडूची आदि ओषधी, इन चार-प्रकार के साकल्य को (आजुहोतन) अच्छे प्रकार हवन करो॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गृहस्थ मनुष्य आसन, अन्न, जल, वस्त्र और प्रियवचन आदि से उत्तम गुण वाले संन्यासी आदि का सेवन करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोगों को यज्ञ, वेदी, कलायन्त्र और यानों में स्थापन कर यथायोग्य इन्धन, घी, जलादि से अग्नि को प्रज्वलित करके वायु, वर्षाजल की शुद्धि वा यानों की रचना नित्य करनी चाहिए॥१॥
विषय
ज्ञान, नैर्मल्य, अर्पण
पदार्थ
१. गत अध्याय की समाप्ति पर आचार्य के गर्भ में रहकर एक कुमार के मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य के उदय होने का उल्लेख हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र में ज्ञानसूर्य की दीप्तिवाला यह कुमार अपनी ज्ञानदीप्ति से प्रभु की परिचर्या करता है।
२. ( समिधा ) = [ सम्+इन्ध् = दीप्ति ] ज्ञानदीप्ति से ( अग्निम् ) = अग्रेणी प्रभु की ( दुवस्यत ) = परिचर्या करो। प्रभु को यह ज्ञानीभक्त ही तो आत्मतुल्य प्रिय है।
३. ( घृतैः ) = मलों के क्षरण—दूरीकरण से [ घृ-क्षरण ] ( अतिथिम् ) = [ अत सातत्यगमने, गमन = प्राप्ति ] सतत दीप्त उस प्रभु को—सदा से हृदय में निवास करनेवाले अन्तर्यामी को— ( बोधयत ) = उद्बुद्ध करो। प्रभु की ज्योति मल के आवरण से अदृष्ट हो रही है, मलावरण के हटते ही वह उद्बुद्ध-सी हो जाती है।
४. ( अस्मिन् ) = इस उद्बुद्ध प्रभु-ज्योति में ( हव्या ) = अपनी सब हवियों को—अपने सब उत्तम कर्मों को— ( आजुहोतन ) = आहुत कर दो। अपने सब यज्ञादि कर्मों को प्रभु-चरणों में अर्पित करनेवाले बनो।
५. सामान्य अग्निहोत्र में भी क्रम यही होता है कि समिधाओं से अग्नि को दीप्त करते हैं—घृत से उसे उद्बुद्ध करते हैं और फिर उसमें हव्यों को डालते हैं। यहाँ अध्यात्म यज्ञ का क्रम भी यही है कि ज्ञानदीप्ति से प्रभु की उपासना करें—इस ज्ञानदीप्ति में ‘पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक’ के पदार्थों का ज्ञान ही तीन समिधाएँ कहलाती हैं। उसके बाद यहाँ वासनात्मक मलों के क्षरणरूप ‘घृत’ से अपने अन्दर विद्यमान उस प्रभु का उद्बोधन होता है और इस प्रभु के चरणों में यह ज्ञानीभक्त अपने सब यज्ञात्मक कर्मों को अर्पित करता है।
६. इस प्रकार ज्ञानदीप्त, निर्मलान्तःकरण, प्रभु-चरणों में अपना अर्पण करनेवाला यह व्यक्ति विशिष्ट ही रूपवाला हो जाता है, अतः ‘विरूप’ कहलाता है और अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रस के सञ्चार के कारण यह ‘आङ्गिरस’ कहलाता है।
भावार्थ
भावार्थ — हम ज्ञानार्जन करें, हृदय को निर्मल करें और अपने सब कर्मों को प्रभु में अर्पण करनेवाले बनें।
विषय
अब तीसरे अध्याय के पहले मन्त्र में भौतिक अग्नि का किस-किस काम में उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।
भाषार्थ
हे विद्वानो! तुम (समिधा) अच्छे प्रकार अग्नि को प्रदीप्त करने वाली समिधा से (घृतैः) शुद्ध सुगन्धि आदि से युक्त घृत आदि से एवं यानों में जल-वाष्प आदि से (अग्निम्) भौतिक अग्नि को (उद्दीपयत) प्रदीप्त करो और उसकी (अतिथिम्) जिसकी आने और जाने की तिथि निश्चित नहीं, उस अतिथि के समान (दुवस्यत) सेवा करो। तथा (अस्मिन्) इस अग्नि में (हव्या) होम करने योग्य द्रव्य, एवं देने खाने और ग्रहण करने योग्य वस्तुओं का (आजुहोतन) उत्तम रीति से होम करो ।। ३ । १ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है । जैसे गृहस्थ लोग आसन, अन्न, जल, वस्त्र, प्रिय वचन आदि से उत्तम गुण वाले अतिथि को सेवा करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग यज्ञ वेदी, कलायन्त्र, यानों में अग्नि को स्थापित करके यथायोग्य ईंधन, घृत, जल आदि से प्रदीप्त करके वायु और जल की शुद्धि एवं यानों में उपयोग करके संसार का उपकार सदा किया करें ॥ ३ ॥ १।।
प्रमाणार्थ
(समिधा) यहाँ'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'इन्ध' धातु से 'कृतो बहुलम्' [अ० ३ ।३ ।११३] वार्त्तिक से करण अर्थ में 'क्विप्' प्रत्यय है। (घृतैः) शब्द निघं० (१ । १२) में जलनामों में पढ़ा है। बहुत से साधनों को प्रकाशित करने के लिये यहाँबहुवचन का प्रयोग है। (हव्या) यहाँ'शेश्छन्दसि बहुलम्' [अ० ६ ।१ ।६८] सूत्र से 'शि' का लोप है। (जुहोतन) यहाँ 'हु' धातु के लोट् लकार के मध्यम पुरुष के बहुवचन में 'त' के स्थान में 'तप्तनप्तन०' [७ ।१ ।४५] सूत्र से 'तनप्' आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (६।५ ।५ । ६) में की गई है । ३ । १ ॥
भाष्यसार
भाष्यसार- १. अतिथि यज्ञ-- गृहस्थ लोग जिसकी आने की तिथि निश्चित नहीं, ऐसे उत्तम गुण वाले अतिथि की आसन, अन्न, जल, वस्त्र, प्रियवचन आदि से सेवा करें ।
२. भौतिक अग्नि का उपयोग--जैसे गृहस्थ लोग अतिथि की सेवा करते हैं, इसी प्रकार विद्वान् लोग यज्ञवेदी, कलायन्त्र और यानों में उपयोग करें। यज्ञवेदी में भौतिक अग्नि को स्थापित करके समिधा (इन्धन) और घृत आदि पदार्थों की आहुति से इसे प्रदीप्त कर वायु और वृष्टिजल की शुद्धि करें। कलायन्त्र और यानों में उपयोग करके जल (वाष्प) के द्वारा यानों से संसार का उपकार करें ।।
३. अलंकार – यहाँ अतिथि से अग्नि की उपमा की गई है और मन्त्र में 'इव' आदि उपमावाचक शब्द लुप्त है। इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ।
अन्यत्र व्याख्यात
अन्यत्र व्याख्यात- महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग संस्कार विधि (सामान्य प्रकररण) में समिधा की दूसरी आहुति देने में किया है।
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (पंचमहायज्ञविषय) में इस प्रकार की है-- "(समिधाग्निं.) हे मनुष्यो! तुम लोग वायु, औषधि और वर्षा जल की शुद्धि से सब के उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट मधुर सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उनका अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सबका उपकार करो" ॥ १ ॥
विषय
यज्ञ, अग्नि का उपयोग, और ईश्वर उपासना ।
भावार्थ
( समिधा ) प्रदीप्त करने के साधन काष्ठ से जिस प्रकार अग्नि को तृप्त किया जाता है उसी प्रकार ( सम-इधा ) अच्छी प्रकार तेजस्वी बनाने वाले साधन से ( अग्नि ) अग्नि, आत्मा, गुरु, परमेश्वर की ( दुवस्यत ) उपासना करो और ( अतिथिम् ) सर्वव्यापक, अतिथि के समान पूजनीय उसको ( धृतैः )अग्नि को जिस प्रकार क्षरणशील, पुष्टि - कारक घृत आदि पदार्थों से जगाया जाता है उसी प्रकार उद्दीपन करने. वाले तेजः प्रद साधनों के अनुष्ष्ठानों से उसको (बोधयत ) जगाओ और ( अस्मिन् ) उसमें ( हव्या ) सब पदार्थों, ज्ञानस्तुतियों और कर्मों को और कर्मफलों को आहुति के रूप में ( आ जुहोतन ) निरन्तर त्याग करो ॥
भौतिक अग्नि में हे पुरुषों ! ( समिधा दुवस्यत ) काष्ठ से उसकी सेवा करो, घृताहुतियों से उसको चेतन करो और उसमें चरु पुरोडाश आदि आहुतिरुप में दो । इसी प्रकार यन्त्रकला आदि में भी अग्नि के उद्दीपक पदार्थों से अग्नि को जलाकर (घृतैः ) जलों द्वारा उसकी शक्ति को और भी चैतन्य करके उसे यन्त्रादि में आधान करे ||
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः । अग्निदेवता । गायत्री । षड्जः |
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. जसे गृहस्थ लोक आसन, अन्न, जल, वस्त्र देऊन मधुर वाणीने अतिथी, संन्यासी इत्यादींचा सत्कार करतात. तसेच विद्वान लोकांनीही यज्ञ, कलायंत्रे, याने यांच्यात घृत, इंधन, जल इत्यादींद्वारे अग्नी प्रज्वलित करून वायूद्वारे पर्जन्याची शुद्धी करावी किंवा अग्नीद्वारे सतत याने तयार करावीत.
विषय
इथे तृतीय अध्यायाचा आरंभ होत आहे.^भौतीक अग्नीचा उपयोग कोणकोणत्या कार्यासाठी करावा, हे तिसर्या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वज्जन, (समिधा) ज्या ज्या इंधनांनी उत्तम प्रकारे प्रकाश होऊ शकतो, त्या लाकूड, तूप आदी पदार्थांनी (अग्निम्) भौतिक अग्नीला (बोधयल) उद्दीप्त करा, प्रकाशित करा. तसेच जसे (अतिथिम्) अतिथी म्हणजे ज्याच्या येण्या-जाण्याचा अथवा निवासाचा दिवस निश्चित नसतो, अशा (अ+तिथी) पाहुण्याची व संन्याशाची सेवा केली जाते, (आणि त्याच्यापासून ज्ञान विद्याही वस्तूंचा लाभ घेतला जातो) त्याप्रमाणे तुम्ही या अग्नीचा (दुवस्थव) उपयोग करा, त्यापासून लाभ घ्या. (अस्मिन्) अग्नीत (हव्या) कस्तूरी, केशर आदी सुगंधित पदार्थ, गुड, गुळीसाखर आदी गोड पदार्थ, तूप, दूध आदी पुष्टिकारक, तसेच रोगनाशक सोमलता म्हणजे गुडची आदी औषधी, या चार प्रकारच्या शाकल्याची आहुती देऊन (आजुहोतन) श्रेष्ठ प्रकारे हवन करा. ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे गृहस्थाश्रमी मनुष्य आसन, अन्न, जल, वस्त्र, देऊन आणि प्रियवचन उच्चारून घरी आलेल्या उत्तम गुणवान संन्यासी आदी वंदनीय व्यक्तींची सेवा करतात, त्यांचा आदर-सत्कार करतात, तद्वत विद्वज्जनांनी व (वैज्ञानिकांनी) यज्ञ, वेदी, मधे यथोचित इंधन, तुप आदी वस्तूंचा प्रयोग करून अग्नीस प्रज्वलित करावे. आणि त्याद्वारे वायू आणि वृष्टिजलाची शुद्धी करावी तसेच इंधन जल आणि अग्नी आदींना कलामंत्र (मशिनी) आणि यानामधे उपयोग करून यानांची निर्मिती नित्य करावी.॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh learned persons, kindle the fire with the wood sticks, with butter, set ablaze the fire, which is worthy of respect like a Sanyasi. Put oblations in this fire of the yajna.
Meaning
Light up the fire and raise it with fuel, serve it like an honourable guest with pure ghee, and offer rich oblations of samagri into it, with love and faith.
Translation
Kindle the fire with dried wood and arouse the newcomer (i. e. the fire) with clarified butter. Then place your offerings on it. (1)
Notes
This and the following mantra are for agnyadhana, the ceremonial laying down of the sacrificial fire by the householder. Duvasyata, परिचित , look after. Bodhayata, arouse; kindle. Atithim, fire is called as atithi, the guest. Havya, articles meant for offering.
बंगाली (1)
विषय
॥ অথ তৃতীয়াধ্যায়ারম্ভঃ ॥
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
অস্মিন্নধ্যায়ে ত্রিষষ্টির্মন্ত্রাঃ সন্তীতি বেদিতব্যম্ ॥
অথ ভৌতিকোऽগ্নিঃ ক্ব ক্বোপয়োক্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন তৃতীয় অধ্যায়ের প্রথম মন্ত্রে ভৌতিক অগ্নি কোন্ কোন্ কর্মে ব্যবহার করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্গণ! তোমরা (সমিধা) যে সব ইন্ধন দ্বারা ভাল প্রকার প্রকাশ হইতে পারে সেই সব কাষ্ঠ ঘৃতাদি দ্বারা (অগ্নিম্) ভৌতিক অগ্নিকে (বোধয়ত) উদ্দীপন অর্থাৎ প্রকাশিত কর তথা যেমন (অতিথিম্) অতিথিকে অর্থাৎ যাহার আসা-যাওয়ার অথবা নিবাসের কোনও দিন নিশ্চিত নহে সেই সন্ন্যাসীর সেবন কর, সেইরূপ অগ্নির (দুবস্যত) সেবন কর এবং (অস্মিন্) এই অগ্নিতে (হব্যা) সুগন্ধ কস্তুরী কেশরাদি, মিষ্ট গুড়, শক্করাদি, পুষ্ট ঘৃত, দুগ্ধাদি, রোগনাশক সোমলতা অর্থাৎ গুলঞ্চাদি ওষধি, এই চারি প্রকারের শাকল্যদিয়া (আজুহোতন) ভাল প্রকার হবন কর ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমালংকার আছে । যেমন গৃহস্থ মনুষ্য আসন, অন্ন, জল, বস্ত্র এবং প্রিয়বচনাদি দ্বারা উত্তম গুণযুক্ত সন্ন্যাসী ইত্যাদির সেবন করেন সেইরূপই বিদ্বান্দিগের যথাযোগ্য ইন্ধন, ঘৃত, জলাদি দ্বারা অগ্নি প্রজ্জ্বলিত করিয়া বায়ু, বর্ষাজলের শুদ্ধি অথবা যানবাহনাদির রচনা নিত্য করা উচিত ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒মিধা॒গ্নিং দু॑বস্যত ঘৃ॒তৈর্বো॑ধয়॒তাতি॑থিম্ ।
আऽস্মি॑ন্ হ॒ব্যা জু॑হোতন ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তত্র সমিধেত্যস্য প্রথমমন্ত্রস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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