यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भूरिक् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
4
अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं वि॒शेवि॑शे॥१५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। इ॒ह। प्र॒थ॒मः। धा॒यि॒। धा॒तृभि॒रिति॑ धा॒तृऽभिः॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः॑। यम्। अप्न॑वानः। भृग॑वः। वि॒रु॒रु॒चुरिति॑ विऽरुरु॒चुः। वने॑षु। चि॒त्रम्। विभ्व᳕मिति॑ वि॒ऽभ्व॒म्। वि॒शेवि॑श॒ इति॑ वि॒शेऽवि॑शे ॥१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्हाता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रँविभ्वँविशेविशे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। इह। प्रथमः। धायि। धातृभिरिति धातृऽभिः। होता। यजिष्ठः। अध्वरेषु। ईड्यः। यम्। अप्नवानः। भृगवः। विरुरुचुरिति विऽरुरुचुः। वनेषु। चित्रम्। विभ्वमिति विऽभ्वम्। विशेविश इति विशेऽविशे॥१५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः सोऽग्निः कीदृशः इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अप्नवानो भृगवो विद्वांस इह वनेष्वध्वरेषु विशे विशे विभ्वं चित्रं यमग्निं विरुरुचुर्विदीपयन्ति, सोऽयं धातृभिः प्रथम ईड्यो होता यजिष्ठोऽग्निरिह धायि ध्रियते॥१५॥
पदार्थः
(अयम्) ईश्वरो भौतिको वा (इह) अस्यां सृष्टौ (प्रथमः) यज्ञक्रियायामुपास्य आदिमं साधनं वा (धायि) ध्रियते। अत्र वर्त्तमाने लुङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि [अष्टा॰६.४.७५] इत्य[भावः। (धातृभिः) यज्ञक्रियाधारकैर्विद्वद्भिः (होता) ग्राहकः (यजिष्ठः) अतिशयेनानन्दशिल्पविद्ययोः सङ्गतिहेतुः (अध्वरेषु) उपासनाग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तेषु शिल्पविद्यान्तर्गतेषु वा यज्ञेषु (ईड्यः) उपासितुमध्येषितुं वार्हः (यम्) उक्तार्थम् (अप्नवानः) येऽप्नान् विद्यासन्तानान् कुर्वन्ति ते, अप्न इत्यस्मात् तत्करोति तदाचष्टे [अष्टा॰वा॰३.१.२६] अनेन करोत्यर्थे णिच्। ततोऽन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते [अष्टा॰३.२.७५] इति वनिप्। अप्न इत्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं॰२.२) (भृगवः) यज्ञविद्यावेत्तारः। भृगव इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५.५) अनेन ज्ञानवत्त्वं गृह्यते (विरुरुचुः) विदीपयन्ति, अत्र लडर्थे लिट्। (वनेषु) संभजनीयेषु (चित्रम्) अद्भुतगुणम् (विभ्वम्) व्यापनशीलम्। अत्र वा छन्दसि [अष्टा॰६.१.१०६] इत्यनेन पूर्वरूपादेशो न। (विशेविशे) प्रतिप्रजाम्। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.१४) व्याख्यातः॥१५॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। विद्वांसो यज्ञक्रियासिद्ध्यर्थमुपास्यसाधनत्वाभ्यामेतमग्निं स्तुत्वा गृहीत्वा वाऽस्यां सृष्टौ प्रजासुखानि निर्वर्तयेयुरिति॥१५॥
विषयः
पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ।
सपदार्थान्वयः
अप्नवानः=येऽप्नान्=विद्यासन्तानान्कुर्वन्ति ते भृगवः=विद्वांसः यज्ञविद्यावेत्तारः इह अस्यां सृष्टौ वनेषु सम्भजनीयेषु अध्वरेषु उपासनाग्नि--होत्राद्यश्वमेधान्तेषु शिल्पविद्यान्तर्गतेषु वा यज्ञेषु विशे विशे प्रतिप्रजां विभ्वं व्यापनशीलं चित्रम् अद्भुतगुणं यम् उक्तार्थम् अग्निं विरुरुचुः=विदीपयन्तिसोऽयम् ईश्वरो भौतिको वा धातृभिः यज्ञक्रियाधारकैर्विद्वद्भिः प्रथमः यज्ञक्रियायामुपास्य आदिमं साधनं वा ईड्यः उपासितुमध्येषितुं वार्हः होता ग्राहकः यजिष्ठः अतिशयेनानन्दशिल्पविद्ययोः सङ्गतिहेतुः अग्निरिह अस्यां सृष्टौ धायि=ध्रियते ।। ३ । १५ ।।
[ भृगवः=विद्वांस इह--अध्वरेषु विशे विशे विभ्वं.........अग्निं विरुरुचुः=विदीपयन्ति ]
पदार्थः
(अयम्) ईश्वरो भौतिको वा (इह) अस्यां सृष्टौ (प्रथमः) यज्ञाक्रियायामुपास्य आदिमं साधनं वा (धायि) ध्रियते । अत्र वर्तमाने लुङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेपीत्यड्भाव: (धातृभिः) यज्ञक्रियाधारकैर्विद्वद्भिः (होता) ग्राहक: (यजिष्ठः) अतिशयेनानन्दशिल्पविद्ययोः संगतिहेतुः (अध्वरेषु) उपासनाग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तेषु शिल्पविद्यान्तर्गतेषु वा यज्ञेषु (ईड्यः) उपासितुमध्येषितुं वार्ह: (यम्) उक्तार्थम् (अप्नवानः) येऽप्नान्विद्यासंतानान्कुर्वन्ति ते, अप्न इत्यस्मात्तत्करोति तदाचष्टे ॥ [अ० ३ ।१ ।२६ । अनेन करोत्यर्थे णिच् । ततोन्येभ्योपि दृश्यन्त इति वनिप् ।अप्न इत्यपत्यनामसु पठितम् ॥ निघं० २ ।२ ॥ (भृगव:) यज्ञविद्यावेत्तारः । भृगव इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५ ॥ ५ ॥ अनेन ज्ञानवत्त्वं गृह्यते (विरुरुचुः) विदीपयन्ति । अत्र लडर्थे लिट् (वनेषु) संभजनीयेषु (चित्रम्) अद्भुतगुणम् (विभ्वम्) व्यापनशीलम् । अत्र वा छन्दसीत्यनेन पूर्वरूपादेशो न (विशेविशे) प्रतिप्रजाम् ॥ अयं मंत्र: शत० २ ।३ ।२ ।१४ व्याख्यातः ॥ १५ ॥
भावार्थः
भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारः ॥ विद्वांसो यज्ञक्रियासिद्ध्यर्थमुपास्यसाधनत्वाभ्यामेतमग्निं स्तुत्वा गृहीत्वा वाऽस्यां सृष्टौ प्रजासुखानि निर्वर्तयेयुरिति ॥ ३ ॥ १५ ॥
विशेषः
वामदेवः। अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः । धैवतः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(अप्नवानः) विद्या सन्तान अर्थात विद्या पढ़ाकर विद्वान् कर देने वाले (भृगवः) यज्ञविद्या के जानने वाले विद्वान् लोग (इह) इस संसार में (वनेषु) अच्छे प्रकार सेवन करने योग्य (अध्वरेषु) उपासना अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त और शिल्पविद्यामय यज्ञों में (विशेविशे) प्रजा-प्रजा के प्रति (विभ्वम्) व्याप्त स्वभाव वा (चित्रम्) आश्चर्यगुणवाले (यम्) जिस ईश्वर और अग्नि को (विरुरुचुः) विशेष कर के प्रकाशित करते हैं (अयम्) वही (धातृभिः) यज्ञक्रिया के धारण करने वाले विद्वान् लोगों को (ईड्यः) खोज करने योग्य (प्रथमः) यज्ञक्रिया का आदि साधन (होता) यज्ञ का ग्रहण करने वाला (यजिष्ठः) उपासना और शिल्पविद्या का हेतु है, उसका (इह) इस संसार में (धायि) धारण करते हैं॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। विद्वान् लोग यज्ञ की सिद्धि के लिये मुख्य करके उपास्यदेव और साधन भौतिक अग्नि को ग्रहण करके इस संसार में प्रजा के सुखों को नित्य सिद्ध करें॥१५॥
विषय
प्रजा का धाता ही प्रभु का धाता बनता है
पदार्थ
१. ( अयम् ) = यह प्रभु ( प्रथमः ) = सर्वश्रेष्ठ है—या अधिक-से-अधिक विस्तारवाला है [ प्रथ विस्तारे ]। ( इह ) = इस हृदयान्तरिक्ष में ( धातृभिः ) = धारण-पोषण करनेवाले लोगों से ( धायि ) = स्थापित किया जाता है। वस्तुतः प्रभु का धारण वही करते हैं जो अपने ही पालन में फँस जानेवाले असुर न बनकर औरों का भी धारण करनेवाले ‘धाता’ बनते हैं। सर्वभूतहित में लगे हुए व्यक्ति ही प्रभु के सच्चे उपासक हैं।
२. वे प्रभु ( होता ) = सब पदार्थों के देनेवाले हैं [ हु = दान ]। ( यजिष्ठः ) = वे प्रभु अधिक-से-अधिक सङ्गतीकरणवाले हैं, हमारा वास्तविक सम्बन्ध प्रभु से ही है—ये ही पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं। ( अध्वरेषु ईड्यः ) = ये प्रभु ही कुटिलता व हिंसारहित कर्मों में उपासना के योग्य हैं। प्रभु की उपासना अध्वरों द्वारा ही होती है। निश्छल परार्थसाधक कर्मों के होने पर प्रभु-उपासन स्वतः ही चलता है।
३. ये प्रभु वे हैं ( यम् ) = जिसको ( अप्नवानः ) = उत्तम कर्मोंवाले [ अप्न इति कर्मनाम—नि० २।१ ], [ अप्नं करोति इति णिजन्तात् वनिप् ]। ( भृगवः ) = ज्ञानीलोग [ भ्रस्ज पाके ], ज्ञान-अग्नि से अपना परिपाक करनेवाले तपस्वी लोग ( विरुरुचुः ) = [ विदीपयन्ति—द० ] अपने जीवन को ज्ञान से दीप्त करते हैं। प्रभु का प्रकाश उन्हीं में होता है, जिनके हाथों में अध्वर व अप्न हैं और जिनकी वाणी में मन्त्र हैं। हाथों में अध्वरोंवाले ही ‘अप्नवान्’ हैं, वाणी में मन्त्रोंवाले ही ‘भृगु’ हैं।
४. ये प्रभु ( वनेषु ) = उपासकों में [ वन संभक्तौ ] अथवा अपने धन का यज्ञों द्वारा औरों में विभाग करनेवालों में ( चित्रम् ) = [ चित्+र ] ज्ञान देनेवाले हैं, और —
५. ( विशेविशे ) = प्रत्येक प्रजा में ( विभ्वम् ) = [ व्यापनशीलम् ] व्याप्त हो रहे हैं।
६. इस प्रकार प्रभु का उपासन करते हुए ये अप्नवान् और भृगु सुन्दर = उत्तम गुणों को धारण करते हैं। इन सुन्दर [ वाम ] गुणों [ देव ] को धारण करने से ये ‘वामदेव’ नामवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — वामदेव प्रभु का धारण करने के लिए ‘धाता बनता है, होता बनता है, अधिक-से-अधिक प्राणियों से मेलवाला होता है, उत्तम कर्मोंवाला व ज्ञानाङ्गिन से अपना परिपाक करनेवाला होता है, यह अपने धनों का बाँटनेवाला बनता है और प्रभु का भजन करता है।
विषय
फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ
(अप्नवानः) जो विद्या सन्तान बनाने वाले (भृगवः) यज्ञ विद्या के वेत्ता विद्वान हैं, वे (इह) इस संसार में (वनेषु) सेवन करने योग्य (अध्वरेषु) उपासना तथा अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त अथवा शिल्प विद्या-अन्तर्गत यज्ञों में (विशे विशे) प्रत्येक प्रजा में (विभ्वम्) व्यापक (चित्रम्) अद्भुत गुण वाली जिस अग्नि को (विरुरुचुः) प्रदीप्त करते हैं, वह (अयम्) यह ईश्वर वा (भौतिक) अग्नि (धातृभिः) यज्ञ को धारण करने वाले विद्वानों से (प्रथमः) यज्ञ में उपासना के योग्य है वा यज्ञ में पहला साधन है और (ईड्यः) उपासना वा पूजा के योग्य है (होता) ग्रहण करने वाला तथा (यजिष्ठः) अत्यन्त आनन्द एवं शिल्पविद्या की संगति का निमित्त है, वह अग्नि (इह) इस संसार में (धायि) उक्त विद्वानों के द्वारा धारण किया जाता है । ३ । १५ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है । विद्वान् लोग यज्ञक्रिया की सिद्धि के लिये उपासना के योग्य अथवा साधन रूप इस अग्नि (ईश्वर) की स्तुति अथवा भौतिक अग्नि को ग्रहण करके इस सृष्टि में प्रजा के सब सुखों को सिद्ध करें ।। । १५ ।।
प्रमाणार्थ
(धायि) ध्रियते। यहाँ वर्तमान (लट्) अर्थ में लुङ् लकार है। 'बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि [अ० ६ । ४ । ७५] सूत्र से 'अट्' आगम का अभाव है (अप्नवानः ) यह शब्द 'तत्करोति तदाचष्टे' (अ० ३ ।१ ।२६) वार्तिक से करोति ( करने ) अर्थ में 'णिच्’ प्रत्यय करने पर 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते’ [अ० ३ ।२ ।३५] सूत्र से 'वनिप्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। 'अप्नः' शब्द निघं० (२ ।२) में अपत्य-नामों में पढ़ा है। (भृगवः) यह बहुवचनान्त 'भृगव:' शब्द निघं ० ( ५ ।५ ) में पद-नामों में पढ़ा है। इससे ज्ञानवत्ता गृहीत होती है। (विरुरुचुः) विदीपयन्ति । यहाँलट् अर्थ में लिट् लकार है। (विभ्वम्) यहाँ'वा छन्दसि' [६ ।१ ।१०६] सूत्र से पूर्वरूप आदेश नहीं है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ ।३ ।२।१४) में की गई है ।। ३ । १५ ।।
भाष्यसार
१. अग्नि (ईश्वर)--जो सम्पूर्ण प्रजा में व्याप्त, अद्भुत गुणों वाला ईश्वर है, उसे विद्वान् लोग सन्ध्योपासना सिन तथा अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों में प्रकाशित करते हैं । यज्ञ क्रिया को जानने वाले विद्वान् यज्ञ क्रिया की सिद्धि के लिये उसे उपास्य समझते हैं, उसकी स्तुति करते हैं, ईश्वर विद्वानों की उपासना और स्तुति को ग्रहण करने वाला तथा अत्यन्त आनन्द का प्रापक है ।।
२. अग्नि (भौतिक) – यह भौतिक अग्नि सब प्रजा में व्याप्त है, अद्भुत गुणों वाला है, यज्ञ विद्या के जानने वाले विद्वान् लोग अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों एवं शिल्प विद्या के अन्तर्गत यज्ञों में इसे प्रदीप्त करते हैं, उक्त विद्वान लोग इसे यज्ञ क्रिया की सिद्धि में पहला साधन, पूजा के योग्य, हव्य पदार्थों को ग्रहण करने वाला, शिल्प विद्या का प्रापक समझ कर धारण करते हैं ।
३. विद्वान्--जो विद्वान् विद्या-सन्तान करते हैं वे 'अप्नवा' कहलाते हैं तथा जो यज्ञविद्या के जानने वाले हैं वे 'भृगु' कहाते हैं ।
४. अलङ्कार--यहाँश्लेष-अलङ्कार होने से अग्नि शब्द का अर्थ ईश्वर और भौतिक अग्नि है ॥
विषय
उच्चपद प्राप्त राजा और विद्वानों का संग ।
भावार्थ
( अयम् ) इस अग्नि के समान शत्रुसन्तापक ( प्रथमः ) सर्वश्रेष्ठ पुरुष को ( इह ) इस राष्ट्र में ( धातृभिः ) राष्ट्र के धारण करने वाले पुरुषों द्वारा ( धायि ) अधिकारी रूपमें स्थापित करते हैं । यह (होता) सबको अपने वश में लेने वाला, ( यजिष्ठः ) सबको संगतिकारक ( अध्व रेषु ) यज्ञों में यज्ञशील होता के समान ( अध्वरेषु ) संग्रामों में ( इड्यः ) स्तुति के योग्य है । ( यम् ) जिस ( अप्नवानः ) प्रजा, सन्तान वाले सत्कर्मवान् ( भृगवः ) तपस्वी पुरुष, वानप्रस्थ पुरुष जिस प्रकार वनों में नाना प्रकार से अग्नि को प्रज्वलित करते हैं, उसी प्रकार वे ( विशे विशे ) प्रत्येक प्रजासंघ में (चित्रम् ) पूजनीय ( विभ्वम् ) विशेष सामर्थ्यवान् पुरुष को ( विरुरुचुः ) विशेष रूप से प्रदीप्त करते हैं । शत० २ | ३ | ४ | १४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । अग्निर्देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. विद्वानांनी यज्ञाच्या सिद्धीसाठी मुख्यत्वे परमेश्वराला उपास्यदेव मानून व साधनरूपाने भौतिक अग्नी वापरून जगातील लोकांना सुखी करावे.
विषय
पुढील मंत्रात ‘अग्नी कसा आहे’ हे सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (अप्नवान:) विद्येचा प्रसार आणि अध्यापन करून इतरांना विद्यावान करणारे विद्वज्जन (भृगव:) यज्ञविद्येचे ज्ञाता याज्ञिकजन (इह) या संसारात (वनेषु) वरणीय व सेवनीय ईश्वराची (अध्वरेषु) उपासना करतात आणि अग्नीहोत्रापासून अश्वमेधयज्ञापर्यंत आणि शिल्पविद्येने संपन्न होणार्या यज्ञात (विशे विशे) प्रजा अर्थात मनुष्यांकरिता (विश्वम्) व्यापक व (चित्रम्) आश्चर्यकारक, अद्भुत आणि अगम्य (यम्) ईश्वराची विशेष उपासना (विरूरूचु:) करतात आणि व्यापक तसेच अद्भुत गुणसंपन्न अग्नीचा यज्ञात उपयोग करतात, (अयम्) तो ईश्वर (धातृभि:) यज्ञ करणा्रया विद्वज्जनांसाठी (ईटव:) स्तवनीय आहे आणि गुणांचे आविष्कारण करून उपयोग घेण्यास योग्य आहे, अग्नी (प्रथम्) यज्ञकर्माचे आदिसाधर आहे (होता) यज्ञात अहुत पदार्थाचा स्वीकार करणारा आहे (यजिष्ठ) उपासनेचे ध्येय आणि शिल्पविद्येचे कारण आहे. त्यालाच (इह) या संसारात सर्व जण (धायि) धारण करतात म्हणजे त्यापासून लाभ घेतात. ॥15॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. विद्वानांसाठी हेच उचित कर्म आहे की त्यांनी यज्ञाचे मुख्य साधन असलेल्या आणि उपासनीय असलेल्या भौतिक अग्नीचा स्वीकार करावा व त्याद्वारे लोकांचे कल्याण करावे व त्यांना नित्य सुख द्यावे. ॥15॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In this world the instructors and the learned kindle in serviceable yajnas, for mankind, the ubiquitous fire of extra-ordinary qualities. That fire is recognised by the regulators of sacrifice as worthy of adoration, as the first means of the performance of a yajna, as the receiver of sacrifice and giver of happiness and scientific knowledge.
Meaning
Here in the world of Lord Agni, the fire, placed and lighted in the vedi by the devotees, is the first and foremost agent of yajna for production and development. Adorable and worthiest of pursuit in study and research through collective action of the most cherished kind as it is, scholars of the science of heat and energy should maintain and continue through their disciples the tradition of research and development of this wonderful and versatile power in laboratories and institutions in every country for every community.
Translation
This invoker of Nature's bounties, adored in worship, has been assigned a foremost place by the performers of noble deeds. This is the cosmic fire, marvellous in action and sovereign over all, whom the wise sages, and their descendants harness for domestic purposes and for the benefit of mankind. (1)
Notes
Prathamo dhayi, has been placed first. Dhatrbhih, यक्षक्रियाधारकैः विद्वद्धिः, performers of noble deeds. Hots, invoker of Nature's bounties. Apnavanah, having offsprings. Bhrgavah, in legend Bhrgu is the name of a rsi. His clan and his descendants are also called Bhrgus or Bhargavas. Dayananda has translated it as यज्ञविद्यावेतारः, those who know the details of the sacrifice; wise sages. Viruracuh, दीपितवन्तः, kindled; harnessed. Vise vise, for every man.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ সোऽগ্নিঃ কীদৃশঃ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে অগ্নি কীরূপ এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (অপ্নবানঃ) বিদ্যা সন্তান অর্থাৎ বিদ্যা পড়াইয়া বিদ্বান্ করিয়া দেওয়ার (ভৃগবঃ) যজ্ঞবিদ্যা জ্ঞাতা বিদ্বান্গণ (ইহ) এই সংসারে (বনেষু) ভাল প্রকার সেবনীয় (অধ্বরেষু) উপাসনা অগ্নিহোত্র হইতে লইয়া অশ্বমেধ পর্য্যন্ত এবং শিল্পবিদ্যাময় যজ্ঞে (বিশেবিশে) প্রজা-প্রজার প্রতি (বিভ্বম্) ব্যাপ্ত স্বভাব বা (চিত্রম্) আশ্চর্য্য গুণযুক্ত (য়ম্) যে ঈশ্বর ও অগ্নির (বিরুরুচুঃ) বিশেষ করিয়া প্রকাশিত করে (অয়ম্) সেই (ধাতৃভিঃ) যজ্ঞক্রিয়া ধারণকারী বিদ্বান্ লোকদিগকে (ঈড্যঃ) খোঁজ করিবার যোগ্য (প্রথমঃ) যজ্ঞক্রিয়ার আদি সাধন (হোতা) যজ্ঞের গ্রহণকারী (য়জিষ্ঠঃ) উপাসনা ও শিল্পবিদ্যার হেতু তাহাকে (ইহ) এই সংসারে (ধায়ি) ধারণ করি ॥ ১৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । বিদ্বান্গণ যজ্ঞের সিদ্ধি হেতু মুখ্য করিয়া উপাস্যদেব ও সাধন ভৌতিক অগ্নিকে গ্রহণ করিয়া এই সংসারে প্রজাদের সুখ সর্বদা সিদ্ধ করিবে ॥ ১৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒য়মি॒হ প্র॑থ॒মো ধা॑য়ি ধা॒তৃভি॒র্হোতা॒ য়জি॑ষ্ঠোऽঅধ্ব॒রেষ্বীড্যঃ॑ ।
য়মপ্ন॑বানো॒ ভৃগ॑বো বিরুরু॒চুর্বনে॑ষু চি॒ত্রং বি॒ভ্বং᳖ বি॒শেবি॑শে ॥ ১৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অয়মিহেত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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