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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 14
    ऋषिः - देववातभरतावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    5

    अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआरो॒हाथा॑ नो वर्द्धया र॒यिम्॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। ते॒। योनिः॑। ऋ॒त्वियः॑। यतः॑। जा॒तः। अरो॑चथाः। तम्। जा॒नन्। अ॒ग्ने॒। आ। रो॒ह॒। अथ॑। नः॒। व॒र्द्ध॒य॒। र॒यिम् ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्ते योनिरृत्वियो यतो जातो अरोचथाः । तञ्जानन्नग्नऽआरोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। योनिः। ऋत्वियः। यतः। जातः। अरोचथाः। तम्। जानन्। अग्ने। आ। रोह। अथ। नः। वर्द्धय। रयिम्॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 14
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरीश्वरभौतिकावुपदिश्येते॥

    अन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर! ते तव सृष्टौ य ऋत्वियोग्निर्वायोः सकाशाज्जातः सन्नरोचथाः समन्तात् प्रदीपयति। यः सूर्यादिरूपेण दिवमारोह समन्ताद् रोहति, यो नोस्माकं रयिं वर्द्धयति, यस्याग्नेरयं वायुर्योनिरस्ति, तं जानंस्त्वं तेन नोऽस्माकं रयिं सार्वभौमराज्यादिसिद्धिं धनं वर्द्धय॥१४॥

    पदार्थः

    (अयम्) वायुः (ते) तवेश्वरस्य (योनिः) निमित्तकारणम् (ऋत्वियः) ऋतुः प्राप्तोऽस्य सः, अत्र छन्दसि घस्। (अष्टा॰५.१.१०६) अनेन ऋतुशब्दाद् घस् प्रत्ययः। (यतः) यस्मात् (जातः) प्रादुर्भूतः (अरोचथाः) दीपयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लुङ् (तम्) अग्निम् (जानन्) (अग्ने) जगदीश्वरो विद्युद्वा (आ) समन्तात् क्रियायोगे (रोह) उन्नतिं गमय गमयति वा (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (वर्द्धय) सर्वोत्कृष्टतां संपादय संपादयति वा। अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः। (रयिम्) पूर्वोक्तं धनम्। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.१३) व्याख्यातः॥१४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सर्वेषु कालेषु यथावद् योजनीयोऽस्ति, यो वायुनिमित्तेनोत्पद्यते, यो वानेककार्यसिद्धिकरत्वेन सर्वान् सुखयति, तं यथावद् विदित्वा संप्रयुज्य कार्याणि साधनीयानीति॥१४॥

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    विषयः

    पुनरीश्वरभौतिकावुपदिश्येते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे अग्ने=जगदीश्वर ! ते=तव ईश्वरस्य सृष्टौ य ऋत्वियः ऋतुःप्राप्तोऽस्य सः [अग्ने]=अग्निः विद्युत् वायोः सकाशाज्जातः प्रादुर्भूतः सन्नारोचथाः=समन्तात् प्रदीपयति ।

    [अथ] अनन्तरं यः सूर्यादिरूपेण दिवमारोह=समन्ताद्रोहति उन्नतिं गमयति यो नः=अस्माकं रयिं पूर्वोक्तं धनम् [वर्द्धय]=वर्द्धयति सर्वोत्कृष्टतां सम्पादयति ।

     यस्याग्नेरयं वायुर्योनिः निमित्तकारणम् अस्ति, तम् अग्निं जानंस्त्वं तेन नः=अस्माकं रयिं सार्वभौमराज्यादिसिद्धिं धनं पूर्वोक्तं धनं वर्द्धय सर्वोत्कृष्टतां सम्पादय ।। ३ । १४ ।।

    [य ऋत्वियः] [अग्ने]=अग्निर्वायोः सकाशाज्जातः सन्नरोचथाः......यो नः=अस्माकं रयिं [वर्द्धय]=वर्द्धयति ]

    पदार्थः

    पदार्थ:- (अयम्) वायुः (ते) तवेश्वरस्य (योनि:) निमित्तकारणम् (ऋत्वियः) ऋतुः प्राप्तोऽस्य सः । अत्र छन्दसि घस् ॥ अ० ५ । १ । १०६ ।। अनेन ऋतुशब्दाद् घस्प्रत्ययः (यतः) यस्मात् (जातः) प्रादुर्भूतः (अरोचथाः) दीपयति । अत्र व्यत्ययो लडर्थे लङ् (तम्) अग्निम् (जानन्) (अग्ने) जगदीश्वरो विद्युद्वा (आ) समन्तात् क्रियायोगे (रोह) उन्नतिं गमय गमयति वा (अथ) आनन्तर्ये ।  अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (नः) अस्माकम् (वर्द्धय) सर्वोत्कृष्टतां संपादय संपादयति वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः (रयिम्) पूर्वोक्तं धनम् ॥ अयं मंत्रः शत० २।३।२।१३ व्याख्यातः ॥ १४ ॥

    भावार्थः

     

    मनुष्यैर्यः [अग्निः] सर्वेषु कालेषु यथावद् योजनीयोऽस्ति, यो वायुनिमित्तेनोत्पद्यते, य एवानेककार्यसिद्धिकरत्वेन सर्वान् सुखयति, तं यथावद् विदित्वा, संप्रयुज्य, कार्याणि साधनीयानीति ॥ ३ । १४ ।।

    विशेषः

    देववातभरतौअग्निः=ईश्वरो विद्युच्चनिचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) जगदीश्वर! (ते) आपकी सृष्टि में जो (ऋत्वियः) ऋतु-ऋतु में प्राप्ति कराने योग्य अग्नि और जो वायु से (जातः) प्रसिद्ध हुआ (अरोचथाः) सब प्रकार प्रकाश करता है वा जो सूर्य आदि रूप से प्रकाश वाले लोकों की (आरोह) उन्नति को सब ओर से बढ़ाता है और जो (नः) हमारे (रयिम्) राज्य आदि धन को बढ़ाता है (तम्) उस अग्नि को (जानन्) जानते हुए आप उससे (नः) हमारे (रयिम्) सब भूगोल के राज्य आदि से सिद्ध हुए धन को (वर्द्धय) वृद्धियुक्त कीजिये॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जो सब काल में यथावत् उपयोग करने योग्य वा जो वायु के निमित्त से उत्पन्न हुआ तथा जो अनेक कार्य्यों की सिद्धिरूप कारण से सब को सुख देता है, उस अग्नि को यथावत् जानकर उसका उपयोग करके सब कार्य्यों की सिद्धि करनी चाहिये॥१४॥

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    विषय

    घर = प्रभु कीर्तन का केन्द्र

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में वर्णित पति-पत्नी निम्न प्रकार से प्रभु-पूजन करते हैं— १. हे प्रभो! ( अयम् ) = यह ( योनिः ) = घर ( ते ) = तेरा ही है। इसमें आपका ही उपासन चलता है। ( ऋत्वियः ) =  [ ऋतौ ऋतौ प्राप्तः—काले काले भवति ] इसमें आपका ही उपासन समय-समय पर होता है। यह वह घर है, ( यतः ) = जहाँ से ( जातः ) = प्रादुर्भूत हुए आप ( अरोचथाः ) = चमकते हो, अर्थात् इस घर में होनेवाला आपका स्तवन चारों ओर आपके यश को फैलानेवाला होता है। चारों ओर के वातावरण में भी आपके गुण-कीर्तन की वृत्ति परिपूर्ण हो उठती है। हमारा घर आपके गुण-कीर्तन का केन्द्र बनता है। 

    २. ( तम् ) = उस हमारे घर को ( जानन् ) = जानते हुए, अर्थात् इस घर पर अपनी कृपादृष्टि रखते हुए ( अग्ने ) = हे उन्नतिसाधक प्रभो! इसे ( आरोह ) = [ उन्नतिं गमय—द० ] उन्नति को प्राप्त कराइए। आपकी कृपा से यह घर सदा उन्नत होता चले। इसमें सम्पत्ति की कमी न हो। इस घर में दान-प्रवाह सदा चलता रहे और इस घर के लोग क्षीणशक्ति न हो जाएँ। ( अथ ) = अब ( नः रयिम् ) = हमारी सम्पत्ति को ( वर्धय ) = बढ़ाइए।

    ३. इस घर में सदा देवताओं के ( श्रव ) = यश का कीर्तन होता है, अतः ये लोग ‘देवश्रव’ कहलाते हैं, देवताओं से ही अपने जीवन-मार्ग में प्रेरणा प्राप्त करने के कारण ये ‘देववात’ हैं। दानादि द्वारा औरों का भरण करनेवाले ये ‘भरतौ’ हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारे घर में प्रभु-पूजन इस रूप में चले कि यह घर ही प्रभु का लगे। हम प्रभु के कृपापात्र हों, जिससे यह घर उन्नत हो तथा इसकी सम्पत्ति बढ़े।

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    विषय

    फिर ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया जाता है ।

    भाषार्थ

    हे (अग्ने) जगदीश्वर ! (ते) तेरी सृष्टि में जो (ऋत्वियः) प्रत्येक ऋतु में प्राप्त [अग्ने] अग्नि विद्युत् है, वह वायु से उत्पन्न होकर (अरोचथाः) सब ओर प्रकाश करता है।

     [अथ] और जो सूर्य आदि के रूप में द्युलोक में (आरोह) ऊँचा चढ़ जाता है, वह (नः) हमारे (रयिम्) पूर्वोक्त अति उत्तम चक्रवर्ती राज्य आदि धन को (वर्द्धय) बढ़ाता एवं सबसे उत्कृष्ट बनाता है।

     जिस अग्नि=विद्युत् का (अयम्) यह वायु (योनिः) निमित्त कारण है (तम्) उस अग्नि-विद्या को जानते हुए आप उससे (नः) हमारे ( रयिम् ) सार्वभौमराज्य आदि सिद्धि रूप धन को (वर्द्धय) बढ़ाओ एवं सबसे उत्कृष्ट बनाओ ॥ ३ । १४ ।।

    भावार्थ

    जो विद्युत् सब कालों में ठीक-ठीक उपयोग में लाने योग्य है, जो वायु के निमित्त से उत्पन्न होता है, जो अनेक कार्यों की सिद्धि करने वाला होने से सबको सुख देता है, उसको ठीक-ठीक जानकर एवं प्रयोग करके मनुष्य सब कार्यों को सिद्ध करें ॥ ३ । १४ ।।

    प्रमाणार्थ

    (ऋत्वियः) यह शब्द 'छन्दसि घस्' (अ० ५ ।१ ।१०६) सूत्र से ऋतु शब्द से 'घस्' प्रत्यय करने पर सिद्ध है। (अरोचथाः) दीपयति। यहाँपुरुष-व्यत्यय और लट् अर्थ में लुङ् लकार है। (था) अथ। यहाँ 'निपातस्य च' [अ० ६ ।३ ।१३७] सूत्र से दीर्घ है। (वर्द्धया) वर्द्धय । ‘अन्येषामपि दृश्यते’ [अ० ६ ।३ ।१३६] सूत्र से दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ ।३ ।२ ।१३) में की गई है ।। ३ । १४ ।।

    भाष्यसार

    १. अग्नि (ईश्वर)-- हे ईश्वर ! आप की सृष्टि में अग्नि (विद्युत्) वायु से उत्पन्न होता है, तथा उसी से वह प्रदीप्त होता है। यही अग्नि द्युलोक में सूर्य आदि के रूप में विद्यमान है। आप इस अग्नि विद्या की शिक्षा से हमारे सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य रूप धन को बढ़ाइये ।

    २. अग्नि (भौतिक)--ईश्वर की इस सृष्टि में यह भौतिक अग्नि सब कालों में यथावत् उपयोग में लाने योग्य है, यह अग्नि वायु से उत्पन्न होता है, और वायु से ही प्रदीप्त होता है, तथा सूर्य आदि के रूप में द्युलोक में आरूढ़ है, सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य आदि धन की वृद्धि एवं उत्कृष्टता का निमित्त है ।

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    विषय

    उच्चपद की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! ( ते ) तेरा ( अयम् ) यह ( योनिः ) मूल आश्रय स्थान, ( ऋत्वियः ) ऋतुओं, राजकर्ताओं और सदस्यों में आश्रित है । ( यतः ) जहां से ( जातः ) तू सामर्थ्यवान् होकर ( अरोचथाः प्रकाशमान होता है । हे ( अग्ने ) अग्ने ! राजन् ! (तम् ) उस अपने मूलकारण को ( जानन् ) भली प्रकार जानता हुआ ही तू ( अरोहथा : ) ऊंचे पद सिंहासन पर आरूढ होता है । तू ( नः ) हमारे ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( वर्धय ) बढ़ा । 
    ऋतवो वै सोमस्य राज्ञो राजभ्रातरो यथा मनुष्यस्य । वै० १ । १ । १३ ॥ ऋतवो वै विश्वेदेवाः । शत० ७ । १ ।१ । ४२ ॥ ऋतवः उपसदः शत० १० । २ । ५ । ७ ॥ ऋतव एते यदृतव्याः । श० ९ । ७ । सदस्या ऋतवोऽभवन् । तै० ३ | १२ | ९ | ४ || शत० । २ । ३ । ४ । १३ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     देवश्रवोदेवरातौ भारतौ वा ऋषी । अग्निर्देवता । स्वराड् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अग्नी हा सर्वकाळी उपयोगी पडणारा, वायूमुळे उत्पन्न होणारा, अनेक कार्ये सिद्ध होण्यास कारणीभूत ठरणारा व सर्वांना सुख देणारा असतो. हे माणसांनी जाणावे व त्याचा उपयोग करून सर्व कार्ये पार पाडावीत.

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्‍वर आणि भौतिक अग्नी, यांविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अग्ने) हे जगदीश्‍वर (ते) तुमच्या सृष्टीमधे (ऋत्विय:) प्रत्येक ऋतूंत प्राप्त करण्यास योग्य (नेहमी उपयोगी पडणारा असा जो अग्नी वायू द्वारे (जात:) उत्पन्न होऊन (आरोचथा:) सर्व प्रकारे सर्वत्र प्रकाश देतो, अथवा जो अग्नी सूर्यरूपाने प्रकाशित होऊन सर्व लोकांना प्रगती व उन्नती देतो (लोक व पदार्थ यांची वृद्धी करतो) तसेच जो अग्नी (न:) आमच्या (रयिक्) राज्य आदी समृद्धीस वाढवितो, (तम्) त्या अग्नीला (जानन्) आम्ही जाणावे, असे करा. व याप्रकारे आम्ही भूगोलावर राज्य करून प्राप्त केलेल्या संपदेला (वर्द्धय) आपण वृद्धींगत करा. ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी अग्नीचा सर्वकाल यथोचित उपयोग घ्यावा. वायू या कारणातून उत्पन्न होणारा व अनेक कार्यांत सिद्धी देणारा हा अग्नी सर्वांना सुख देतो. मनुष्यांनी अशा या अग्नीला यथावत् जाणारे व त्याचा उपयोग (प्रयोग व शोध) करून सर्व कार्यांची प्राप्ती करावी. ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ob God, in Thy creation, sacrificial fire, whose cause of birth is air, burns in different seasons, and develops in all directions. Knowing this, cause our riches increase.

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    Meaning

    Agni, Lord of the Universe, the fire is born of Vayu, wind and electric energy, and, according to the seasons, rises and shines and, like the suns, brightens the world. Knowing that, and with the knowledge of that, raise us and develop our power and wealth.

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    Translation

    О fire divine, this is your right place of birth, in all seasons, whence as soon as you spring to life, you ever shine. Knowing this, may you stay here and make our riches grow. (1)

    Notes

    Rtviyah, right. | Yonih, place of birth. Home or abode also is called yonih.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরীশ্বরভৌতিকাবুপদিশ্যেতে ॥
    তবুও পরবর্ত্তী মন্ত্রে ঈশ্বর ও ভৌতিক অগ্নির উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) জগদীশ্বর ! (তে) আপনার সৃষ্টিতে যাহা (ঋত্বিয়ঃ) প্রত্যেক ঋতুতে প্রাপ্তি করাইবার যোগ্য অগ্নি এবং যাহা বায়ু হইতে (জাতঃ) প্রসিদ্ধ হইয়া (আরোচথাঃ) সর্ব প্রকার প্রকাশ করে অথবা যাহা সূর্য্যাদি রূপে প্রকাশযুক্ত লোকসমূহের (আরোহ) উন্নতিকে সর্ব দিক দিয়া বৃদ্ধি করিতে থাকে এবং যাহা (নঃ) আমাদের (রয়িম্) রাজ্যাদি ধন বৃদ্ধি করে (তম্) সেই অগ্নিকে (জানন্) জানিয়া আপনি তাহা দ্বারা (নঃ) আমাদের (রয়িম্) সকল ভূগোলের রাজ্য ইত্যাদির সঙ্গে যুক্ত ধন (বর্দ্ধয়) বৃদ্ধিযুক্ত করুন ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যাহা সর্ব কালে যথাবৎ ব্যবহার করার যোগ্য অথবা যাহা বায়ুর নিমিত্ত হইতে উৎপন্ন তথা যাহা অনেক কার্য্যের সিদ্ধিরূপ কারণ দ্বারা সকলকে সুখ প্রদান করে সেই অগ্নিকে যথাবৎ তাহার ব্যবহার করিয়া সকল কার্য্যের সিদ্ধি করা উচিত ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ং তে॒ য়োনি॑র্ঋ॒ত্বিয়ো॒ য়তো॑ জা॒তোऽঅরো॑চথাঃ ।
    তং জা॒নন্ন॑গ্ন॒ऽআরো॒হাথা॑ নো বর্দ্ধয়া র॒য়িম্ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং ত ইত্যস্য দেববাতভরতাবৃষী । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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