यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 42
ऋषिः - शंयुर्ऋषिः
देवता - वास्तुपतिरग्निर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
येषा॑म॒द्ध्येति॑ प्र॒वस॒न् येषु॑ सौमन॒सो ब॒हुः। गृ॒हानुप॑ह्वयामहे॒ ते नो॑ जानन्तु जान॒तः॥४२॥गृ॒हानुप॑ह्वयामहे॒ ते नो॑ जानन्तु जान॒तः॥४२॥
स्वर सहित पद पाठयेषा॑म्। अ॒ध्येतीत्य॑धि॒ऽएति॑। प्र॒वस॒न्निति॑ प्र॒ऽवस॑न्। येषु॑। सौ॒म॒न॒सः। ब॒हुः। गृ॒हान्। उप॑। ह्व॒या॒म॒हे॒। ते। नः॒। जा॒न॒न्तु॒। जा॒न॒तः ॥४२॥
स्वर रहित मन्त्र
येषामध्येति प्रवसन्येषु सौमनसो बहुः । गृहानुप ह्वयामहे ते नो जानन्तु जानतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
येषाम्। अध्येतीत्यधिऽएति। प्रवसन्निति प्रऽवसन्। येषु। सौमनसः। बहुः। गृहान्। उप। ह्वयामहे। ते। नः। जानन्तु। जानतः॥४२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ते गृहाश्रमिणः कीदृशाः सन्तीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
प्रवसन्नतिथिर्येषामध्येति येषु बहुः सौमनसोऽस्ति। तान् गृहस्थान् वयमतिथय उपह्वयामहे। ये सुहृदो गृहस्थास्ते जानतो नोऽस्मानतिथीन् जानन्तु॥४२॥
पदार्थः
(येषाम्) गृहस्थानाम्। अत्र अधीगर्थदयेशां कर्मणि (अष्टा॰२.३.५२) इति कर्मणि षष्ठी। (अध्येति) स्मरति (प्रवसन्) प्रवासं कुर्वन् (येषु) गृहस्थेषु (सौमनसः) शोभनं मनः सुमनस्तस्यायमानन्दः सुहृद्भावः, अत्र तस्येदम् [अष्टा॰४.३.१२०] इत्यण्। (बहुः) अधिकः (गृहान्) गृहस्थान् (उप) सामीप्ये (ह्वयामहे) शब्दयामहे (ते) गृहस्थाः (नः) अस्मान् प्रवसतोऽतिथीन् (जानन्तु) विदन्नु (जानतः) धार्मिकान् विदुषः॥४२॥
भावार्थः
गृहस्थैः सर्वैर्धार्मिकैर्विद्वद्भिरतिथिभिः सह गृहस्थैः सहातिथिभिश्चात्यन्तः सुहृद्भावो रक्षणीयो नैव दुष्टैः सह, तेषां सङ्गे परस्परं संलापं कृत्वा विद्योन्नतिः कार्या। ये परोपकारिणो विद्वांसोऽतिथयः सन्ति, तेषां गृहस्थैर्नित्यं सेवा कार्या नेतरेषामिति॥४२॥
विषयः
पुनस्ते गृहाश्रमिणः कीदृशाः सन्तीत्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
प्रवसन् प्रवासं कुर्वन् अतिथिः येषां गृहस्थानाम् अध्येति स्मरति, येषु गृहस्थेषु बहुः अधिकः सौमनसः शोभनं मनः सुमनस्तस्यायमानन्दः सुहृद्भावः अस्ति, तान् [गृहान्]=गृहस्थान् वयमतिथय उपह्वयामहे। समीपं शब्दयामहे ।
ये सुहृदो गृहस्थास्ते जानतः धार्मिकान् विदुषः नः=अस्मानतिथीन् (अस्मान् प्रवसतोऽतिथीन्) जानन्तु विदन्तु ॥ ३।४२ ।।
[ प्रवसन्=अतिथिर्येषामध्येति, येषु बहुः सौमनसोऽस्ति, तान् [गृहान्]=गृहस्थान् वयमतिथय उपह्वयामहे ]
पदार्थः
(येषाम्) गृहस्थानाम् । अत्र अधीगर्थदयेशां कर्मणि ॥ अ॰ २ ।३ ।५२ ।। इति कर्मणि षष्ठी (अध्येति) स्मरति (प्रवसन्) प्रवासं कुर्वन् (येषु) गृहस्थेषु ( सौमनसः) शोभनं मनः सुमनस्तस्यायमानन्दः सुहृद्भावः । अत्र तस्येदमित्यण (बहुः) अधिकः (गृहान्) गृहस्थान् (उप) सामीप्ये (ह्वयामहे ) शब्दयामहे (ते) गृहस्थाः (नः) अस्मान्प्रवसतोऽतिथीन् (जानन्तु ) विदन्तु (जानतः) धार्मिकान् विदुषः ॥ ४२ ॥
भावार्थः
गृहस्थैः सर्वैर्धार्मिकैर्विद्वद्भिरतिथिभिः सह, गृहस्थैः सहातिथिभिश्चात्यन्तः सुहृद्भावो रक्षणीयो; नैव दुष्टैः सह ।
[ये सुहृदो गृहस्थास्ते जानतो नः=अस्मानतिथीन् जानन्तु]
तेषां संगे परस्परं संलापं कृत्वा विद्योन्नतिः कार्या। ये परोपकारिणो विद्वांसोऽतिथयः सन्ति तेषां गृहस्थैर्नित्यं सेवा कार्या ॥ ३ ॥ ४२ ॥
भावार्थ पदार्थः
भा० पदार्थ-- बहुः=अत्यन्तः ।
विशेषः
शंयुः । वास्तुपतिः=गृहाश्रमी ॥ अनुष्टुप् ।गान्धारः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह गृहस्थाश्रम कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(प्रवसन्) प्रवास करता हुआ अतिथि (येषाम्) जिन गृहस्थों का (अध्येति) स्मरण करता वा (येषु) जिन गृहस्थों में (बहुः) अधिक (सौमनसः) प्रीतिभाव है, उन (गृहान्) गृहस्थों का हम अतिथि लोग (उपह्वयामहे) नित्यप्रति प्रशंसा करते हैं, जो प्रीति रखने वाले गृहस्थ लोग हैं (ते) वे (जानतः) जानते हुए (नः) हम धार्मिक अतिथि लोगों को (जानन्तु) यथावत् जानें॥४२॥
भावार्थ
गृहस्थों को सब धार्मिक अतिथि लोगों के वा अतिथि लोगों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त प्रीति रखनी चाहिये और दुष्टों के साथ नहीं। तथा उन विद्वानों के सङ्ग से परस्पर वार्त्तालाप कर विद्या की उन्नति करनी चाहिये और जो परोपकार करने वाले विद्वान् अतिथि लोग हैं, उनकी सेवा गृहस्थों को निरन्तर करनी चाहिये औरों की नहीं॥४२॥
विषय
उत्तम घर
पदार्थ
पिछले मन्त्र में घर का उल्लेख करते हुए कहा था कि वहाँ रोग का भय नहीं, ज्वर का कम्प नहीं, अभाव के कारण रोना-धोना नहीं और घरवाले व्यक्तियों के विषय में कहा था कि वे शक्तिसम्पन्न, उत्तम इच्छाओंवाले, समझदार व प्रसन्न मन हों। ऐसे घर का प्रवास में स्मरण आना स्वाभाविक है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि— १. ( गृहान् ) = उन घरों को ( उपह्वयामहे ) = पुकारते हैं, अर्थात् ऐसे घरों की प्राप्ति के लिए हम प्रार्थना करते हैं, ( येषाम् ) = जिनका ( प्रवसन् ) = प्रवास में रहता हुआ मनुष्य ( अध्येति ) = स्मरण करता है। घर में भार्या कर्कश स्वभाव की हो तब तो सम्भवतः पुरुष प्रवास को अच्छा ही समझे। पति कर्कश हों तो पितृगृह में गई हुई पत्नी शायद कुछ आराम अनुभव करे और पतिगृह में लौटने को एक मुसीबत माने।
२. हम उन घरों को पुकारते हैं ( येषु ) = जिनमें ( बहुः ) = बहुत ही ( सौमनसः ) = सुमनस्कता है, जिनमें रहनेवाले लोगों के मन अच्छे हैं, द्वेष व जलन आदि से भरे हुए नहीं हैं। ऐसे ही घरों की तो प्रवास में याद आती है।
३. ( ते ) = वे घर ( जानतः ) = उपकाराभिज्ञ [ अकृतघ्न ] ( नः ) = हम लोगों को ( जानन्तु ) = जानें, अर्थात् घर में पति पत्नी के तथा पत्नी पति के उपकार को समझे। भाई भाई की भलाई को भूल न जाए। पुत्र युवा होने पर माता-पिता के ऋण को भूल न जाए और घर के सब व्यक्ति उस परमपिता प्रभु की कृपाओं को विस्मृत न कर दें। इस प्रकार इस घर में कृतघ्नता का प्रवेश न हो।
भावार्थ
भावार्थ — उत्तम घर वे हैं जिनमें रहनेवाले लोग ‘सुमनस्कता’ वाले हैं, कृतज्ञ हैं और इस कारण जिन घरों की प्रवास में याद आती है।
विषय
फिर वह गृहाश्रमी कैसे हैं, इस विषय का उपदेश कहा जाता है ।।
भाषार्थ
(प्रवसन्) प्रवास में रहने वाला अतिथि (येषाम् ) जिन गृहस्थों को (अध्येति) स्मरण करता है, तथा (येषु) जिन गृहस्थों में (बहुः) अत्यधिक (सौमनसः) शुद्ध मन से उत्पन्न आनन्द एवं सौहार्द्य विद्यमान है, उन (गृहान्) गृहस्थों की हम लोग अतिथि के लिये (उपह्वयामहे) स्तुति करते हैं ।
और जो उत्तम हृदय वाले गृहस्थ हैं (ते) वे (जानतः) धार्मिक विद्वानों को तथा (नः) हम प्रवास में रहने वाले अतिथियों को (जानन्तु) समझें । यथायोग्य सत्कार करें ।। ३ । ४२ ।।
भावार्थ
सब गृहस्थों को सब धार्मिक विद्वान् अतिथियों के साथ, और सब अतिथियों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त स्नेह रखना चाहिये, दुष्टों के साथ नहीं ।
अतिथियों के संग में परस्पर वार्तालाप करके विद्या की उन्नति करें। जो परोपकारी विद्वान् अतिथि हैं उनकी गृहस्थ लोग नित्य सेवा करें ।। ३ । ४२ ।।
प्रमाणार्थ
(येषाम् ) यहाँ 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' (अ॰ २। ३। ५२) सूत्र से कर्म में षष्ठी विभक्ति है। (सौमनसः) यहाँ 'तस्येदम् [अ० ४ । ३ । १२०] सूत्र से 'अण' प्रत्यय है। ३ । ४२ ।।
भाष्यसार
गृहाश्रमी कैसे हों-- अतिथि लोग जिन गृहस्थों को स्मरण करते हैं, तथा जिन गृहस्थों में वे अत्यन्त सुहृद्भाव रखते हैं, वे गृहस्थ लोग उन धार्मिक विद्वान् अतिथि जनों को अतिथि यज्ञ के लिये अपने पास बुलाया करें, निमन्त्रित किया करें। अतिथि और गृहस्थ लोग परस्पर अत्यन्त स्नेह रखें। परस्पर वार्तालाप करके विद्या की उन्नति करें। अतिथि जनों से सुहृद्भाव रखने वाले गृहस्थ लोग धार्मिक विद्वानों को अतिथि समझें। उनकी नित्य सेवा करें ॥ ३ ॥ ४२ ॥
अन्यत्र व्याख्यात
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (गृहाश्रमविषय) में इस प्रकार की है--“(येषामध्येति) जिन घरों में बसते हुए मनुष्यों को अधिक आनन्द होता है उनमें वे मनुष्य अपने सम्बन्धि-मित्र बन्धु और आचार्य आदि का स्मरण करते हैं और उन्हीं लोगों को विवाहादि शुभकार्यों में सत्कार से बुलाकर उनसे यह इच्छा करते हैं कि ये सब हमको युवावस्था युक्त और विवाहादि नियमों में ठीक-ठीक प्रतिज्ञा करने वाले जानें अर्थात् हमारे साक्षी हों" ॥ १२ ॥
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या संस्कारविधि (गृहाश्रमप्रकरण) में इस प्रकार की है--"हे गृहस्थो ! (प्रवसन्) परदेश को गया हुआ मनुष्य (येषाम् ) जिनका (अध्येति) स्मरण करता है (येषु) जिन गृहस्थों में (बहुः) बहुत (सौमनस:) प्रीति होती है उन (गृहान्) गृहस्थों की हम विद्वान् लोग (उप, ह्वयामहे) प्रशंसा करते और प्रीति से समीपस्थ बुलाते हैं (ते) वे गृहस्थ लोग (जानतः) उनको जानने वाले (नः) हम लोगों को (जानन्तु) सुहृद् जानें, वैसे तुम गृहस्थ और हम संन्यासी लोग आपस में मिल के पुरुषार्थ से व्यवहार और परमार्थ की उन्नति सदा किया करें" ।। ४ ।।
विषय
गृहपति और गृहजनों और प्रजा और अधिकारी जनों का परस्पर परिचय, सद्भाव, अभय होना।
भावार्थ
( प्रवसन् ) दूर प्रवास में रहता हुआ पुरुष ( येषाम् ) जिनकी ( अधि- एति ) याद किया करता है और (येषु ) जिनके बीच में (बहुः ) बहुत अधिक ( सौमनसः) परस्पर शुभचित्तता, एवं सुहृद्भाव है उन ( गृहान् ) गृहस्थ पुरुषों को हम उनके ही कृतज्ञ पुरुष (उपह्वयामहे ) उनको पुकारते हैं । (ते) वे (नः जानतः ) हम जानकार लोगों को पुनः ( जानन्तु ) जानें, पहचानें । हम दूसरे नहीं, राजकारणों से दूर जाकर भी हम तुम्हें भूले नहीं, प्रत्युत तुम्हारे पास प्रेम भाव से आते हैं ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुःऋर्षिः । वास्तुपतिरग्निर्देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
गृहस्थांनी सर्व धार्मिक अतिथींबरोबर प्रेमाने वागले पाहिजे. अतिथींनीही गृहस्थांबरोबर प्रेमाने वागले पाहिजे. दुष्टांबरोबर प्रेमाने वागू नये. जे विद्वान अतिथी असतात, त्या विद्वानांबरोबर चर्चा करून विद्या वाढवावी व परोपकारी विद्वानांची सदैव सेवा करावी, इतरांची नव्हे.
विषय
गृहस्थाश्रम कसा आहे, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रवसन्) प्रवास करणारा अतिथी (येणाम्) ज्या गृहस्थांची (अध्येति) आठवण करतो, (त्यांच्या आतिथी-सत्काराचे स्मरण मोठ्या प्रेमाने करतो) आणि त्याचप्रमाणे (येषु) ज्या गृहस्थांच्या मनात अतिथीविषयी (बृहूः) अत्यंत प्रीती आहे, त्या (गृहान्) गृहस्थाची आम्ही अतिथीगण (अपहृयामहे) नेहमी प्रशंसा करतो. जे जे अशाप्रकारे अतिथीविषयी प्रेम बाळगणारे गृहस्थ आहेत, (ते) ते (जानतः) सुजाण व धार्मिक असल्यामुळे (नः) आम्हा अतिथी जनांना (जानंतु) अशाच प्रकारे जाणत राहोत (त्यांच्या मनातील अतिथी सत्काराची भावना अशीच जागृत राहो) ॥42॥
भावार्थ
भावार्थ - गृहस्थाश्रमी लोकांनी धार्मिक अतिथीविषयी नेहमी अत्यंत प्रीतीभाव बाळगावा. तसेच अतिथीजनांनी देखील अशा स्वागतशील गृहस्थांविषयी प्रितीभाव ठेवावा, दुष्ट-दुराचारीजनांविषयी कदापी नको. तसेच गृहस्थांनी विद्वान अतिथीची संगती करून त्यांच्याशी वार्तालाप-संवाद करून आपल्या ज्ञानात वृद्धी करावी. तसेच अतिथी विद्वान असून परोपकारवृत्ती धारण करणारे आहेत, गृहस्थांनी त्यांची सेवा नित्य निरंतर व अवश्य करावी. अन्य अविद्वान स्वार्थीजनांची कदापी करूं नये ॥42॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We praise the householders, whom the guest staying far from home remembers and whom he loves much. The loving householders welcome us, the religious guests.
Meaning
The man far away, the visiting guest, remembers the homes abundant with happiness of the mind and open doors of welcome. We, the guests and chance visitors call at such homes. They know us, may they continue to know.
Translation
We are approaching the homes, of which a person travelling afar thinks time and again and where there is a lot of affection. We remember and recognize them. May they also recognize us. (1)
Notes
Adhyeti, स्मरति, thinks of. Upahvayamahe, we remember and recognize; recall.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তে গৃহাশ্রমিণঃ কীদৃশাঃ সন্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সেই গৃহস্থাশ্রম কেমন এই সম্পর্কে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে দেওয়া হইতেছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (প্রবসন) প্রবাসকালীন অতিথি (য়েষাম্) যে সব গৃহস্থদিগকে (অধ্যেতি) স্মরণ করে অথবা (য়েষু) যে সব গৃহস্থদিগের সহিত (বহুঃ) অত্যন্ত (সৌমনসঃ) প্রীতিভাব সেই সব (গৃহান্) গৃহস্থগণকে আমরা অতিথিরা (উপহ্বয়ামহে) নিত্যপ্রতি প্রশংসা করি । যাহারা সুহৃদভাবাপন্ন গৃহস্থগণ (তে) তাহারা (জানতঃ) ধার্মিক জানিয়া (নঃ) আমরা অতিথিদেরকে (ঝানন্তু) যথাবৎ জানিব ॥ ৪২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- গৃহস্থগণকে সকল ধার্মিক অতিথিদের এবং অতিথিগণকে গৃহস্থদিগের সহিত অত্যন্ত প্রীতি রাখা উচিত এবং দুষ্টদিগের সহিত নহে তথা সেই সব বিদ্বান্দিগের সঙ্গে পরস্পর বার্তালাপ করিয়া বিদ্যার উন্নতি করা উচিত এবং যে পরোপকারী অতিথিরা আছেন তাহাদের সেবা নিরন্তর করা উচিত, অন্যের নহে ॥ ৪২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়েষা॑ম॒দ্ধ্যেতি॑ প্র॒বস॒ন্ য়েষু॑ সৌমন॒সো ব॒হুঃ ।
গৃ॒হানুপ॑ হ্বয়ামহে॒ তে নো॑ জানন্তু জান॒তঃ ॥ ৪২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়েষামিত্যস্য শংয়ুর্ঋষিঃ । বাস্তুপতিরগ্নির্দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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