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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
    1

    राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्द्ध॑मान॒ꣳ स्वे दमे॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    राज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। गो॒पाम्। ऋ॒तस्य॑। दीदि॑विम्। वर्ध॑मानम्। स्वे। दमे॑ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राजन्तमध्वराणाङ्गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानँ स्वे दमे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    राजन्तम्। अध्वराणाम्। गोपाम्। ऋतस्य। दीदिविम्। वर्धमानम्। स्वे। दमे॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरीश्वराग्निगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    नमो भरन्तो वयं धियाऽध्वराणां गोपां राजन्तमृतस्य दीदिविं स्वे दमे वर्धमानं जगदीश्वरमुपैमसि नित्यमुपाप्नुम इत्येकः॥२३॥ येन परमात्मनाऽध्वराणां गोपा राजन्नृतस्य दीदिविः स्वे दमे वर्धमानोऽग्निः प्रकाशितोऽस्ति, तं नमो भरन्तो वयं धियोपैमसि नित्यमुपाप्नुम इति द्वितीयः॥२३॥

    पदार्थः

    (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां शिल्पविद्यासाध्यानां वा सर्वथा रक्ष्याणां यज्ञानाम् (गोपाम्) इन्द्रियपश्वादीनां रक्षकम् (ऋतस्य) अनादिस्वरूपस्य सत्यस्य कारणस्य जलस्य वा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰३.१०) उदकनामसु च। (निघं॰१.१२) (दीदिविम्) व्यवहारयन्तम्। अत्र दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य [अष्टा॰४.५५] इति दिवः क्विन् प्रत्ययो द्वित्वाभ्यासदीर्घौ च। (वर्धमानम्) हानिरहितम् (स्वे) स्वकीये (दमे) दाम्यन्त्युपशाम्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन् स्वस्थाने परमोत्कृष्टे प्राप्तुमर्हे पदे। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.२९) व्याख्यातः॥२३॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। नमः, भरन्तः, धिया, उप, आ, इमानि, इत्येतेषां षण्णां पदानां पूर्वस्मान्मन्त्रादनुवृत्तिर्विज्ञेया। परमेश्वरोऽनादिस्वरूपस्य कारणस्य सकाशात् सर्वाणि कार्याणि रचयति भौतिकोऽग्निश्च जलस्य प्रापणेन सर्वान् व्यवहारान् साधयतीति वेद्यम्॥२३॥

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    विषयः

    पुनरीश्वराग्निगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    सपदार्थान्वयः

    नमः अन्नं भरन्तो धारयन्तो वयं धिया कर्मणा प्रज्ञया वा अध्वराणाम् अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां यज्ञानां गोपाम् इन्द्रियपश्वादीनां रक्षकं राजन्तं प्रकाशमानम् ऋतस्य अनादिस्वरूपस्य सत्यस्य कारणस्य दीदिविम् व्यवहारयन्तं स्वे स्वकीये दमे दाम्यन्त्युपशाम्यन्ति स्मिंस्तस्मिन् स्वस्थाने परमोत्कृष्टे प्राप्तुमर्हे पदे वर्धमानं हानिरहितं जगदीश्वमुपैमासि=नित्यमुपाप्नुमः=इत्येकः।।

     येन परमात्मनाsध्वराणां शिल्पविद्यासाध्यानां सर्वथा रक्ष्याणां यज्ञानां [गोपाम्]=गोपा इन्द्रियपश्वादीनां रक्षकः [राजन्तम्] राजन् प्रकाशमान ऋतस्य जलस्य [दीदिविम्]=दीदिविः व्यवहारन् स्वे स्वकीये दमे= शान्तस्वरूपे वर्धमानः हानिरहितःअग्निः प्रकाशितोऽस्ति तं नमः अन्नं भरन्तो धारयन्तो वयं धिया कर्मणा प्रज्ञया वा उपैमसि=नित्यमुपाप्नुम इति द्वितीयः ॥ ३ ॥ २३ ॥

    [ पदानामनुवृत्तिमाह --]

    पदार्थः

    (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां शिल्पविद्यासाध्यानां वा सर्वथा रक्ष्याणां यज्ञानाम् (गोपाम्) इन्द्रियपश्वादीनां रक्षकम् (ॠतस्य) अनादिस्वरूपस्य सत्यस्य कारणस्य जलस्य वा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । १०॥ उदकनामसु च ॥ निघं० १।१२ ॥ (दीदिविम्) व्यवहारयन्तम् । अत्र दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य ।।उ० ४ ।५५ ॥ इति दिवः क्विन्प्रत्ययो द्वित्वाभ्यासदीर्घौ च (वर्धमानन्) हानिरहितम् (स्वे) स्वकीये (दमे) दाम्यन्त्युपशाम्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन्स्वस्थाने परमोत्कृष्टे प्राप्तुमर्हे पदे ।। अयं मंत्रः शत० २ ।३ ।२ ।२९ व्याख्यातः ॥ २३ ॥

    भावार्थः

    भावार्थ:- अत्र श्लेषालङ्कारः ॥ नमः, भरन्तः, धिया, उप, , इमसि, इत्येतेषां षण्णां पदानां पूर्वस्मान्मन्त्रादनुवृत्तिर्विज्ञेया ।

    [वयं......ऋतस्य  दीदिविं......जगदीश्वरमुपैमसि=नित्यमुपाप्नुमः, येन परमात्मना......ऋतस्य [दीदिविम्]=दीदिविः.....अग्निः प्रकाशितस्तं नमो भरन्तो वयं धियोपैमसि=नित्यमुपाप्नुभ:]

     परमेश्वरोऽनादिस्वरूपस्य कारणस्य सकाशात् सर्वाणि कार्याणि रचयति, भौतिकोऽग्निश्च जलस्य प्रापणेन सर्वान् व्यवहारान् साधयतीति वेद्यम् ।।३ ।२३ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा० पदार्थ:--ऋतस्य=अनादिस्वरूपस्य कारणस्य । दीदिविम्=सर्वं कार्यम् (व्यवहारयोग्यम्), सर्वव्यवहारम् ॥

    विशेषः

    वैश्वामित्रो मधुच्छन्दाः । अग्नि:=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ गायत्री षड्जः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर ईश्वर और अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (नमः) अन्न से सत्कारपूर्वक (भरन्तः) धारण करते हुए हम लोग (धिया) बुद्धि वा कर्म से (अध्वराणाम्) अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञ वा (गोपाम्) इन्द्रिय पृथिव्यादि की रक्षा करने (राजन्तम्) प्रकाशमान (ऋतस्य) अनादि सत्यस्वरूप कारण के (दीदिविम्) व्यवहार को करने वा (स्वे) अपने (दमे) मोक्षरूप स्थान में (वर्धमानम्) वृद्धि को प्राप्त होने वाले परमात्मा को (उपैमसि) नित्य प्राप्त होते हैं॥१॥२३॥ जिस परमात्मा ने (अध्वराणाम्) शिल्पविद्यासाध्य यज्ञ वा (गोपाम्) पश्वादि की रक्षा करने [वाला, (राजन्तम्) प्रकाशमान] (ऋतस्य) जल के (दीदिविम्) व्यवहार को प्रकाश करने वाला (स्वे) अपने (दमे) शान्तस्वरूप में (वर्धमानम्) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अग्नि प्रकाशित किया है, उसको (नमः) सत्क्रिया से (भरन्तः) धारण करते हुए हम लोग (धिया) बुद्धि और कर्म से (उपैमसि) नित्य प्राप्त होते हैं॥२॥२३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और नमः, भरन्तः, धिया, उप, आ, इमसि, इन छः पदों की अनुवृत्ति पूर्वमन्त्र से जाननी चाहिये। परमेश्वर आदि रहित सत्यकारणरूप से सम्पूर्ण कार्यों को रचता और भौतिक अग्नि जल की प्राप्ति के द्वारा सब व्यवहारों को सिद्ध करता है, ऐसा मनुष्यों को जानना चाहिये॥२३॥

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    विषय

    प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    हम उस प्रभु के समीप प्राप्त होते हैं जो १. ( राजन्तम् ) = [ राजृ दीप्तौ ] संसार के प्रत्येक ‘विभूतिवाले, श्रीवाले या बलवाले’ पदार्थ में दीप्त हो रहे हैं। वस्तुतः उस पदार्थ की ‘विभूति-श्री-दीप्ति’ प्रभु के कारण ही तो श्रीमत् है। उपनिषद् स्पष्ट कह रही है कि तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। 

    २. वे प्रभु ( अध्वराणां गोपाम् ) = सब यज्ञों के रक्षक हैं। हिंसा व कुटिलता से रहित कर्मों के वे पालक हैं। 

    ३. ( ऋतस्य ) = सत्य के ( दीदिविम् ) = प्रकाशक [ दीपयिता ] हैं, वेदवाणी के द्वारा सब सत्य विद्याओं के प्रकाशक हैं। 

    ४. वे प्रभु ( स्वे दमे ) = अपने स्वरूप में ( वर्धमानम् ) = सदा वर्धमान हैं। वे क्षीणता व जीर्णता से रहित हैं। उनका स्वरूप ‘प्रकाशमय’ है—वे ज्ञानस्वरूप हैं। यह ज्ञान सदा पूर्ण रहता है—इसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आती।

    ४. इस प्रकार उपासना करनेवाले मधुच्छन्दा की कामना यह है कि— [ क ] मैं भी प्रभु-ज्योति से देदीप्यमान होऊँ [ ख ] अपने जीवन में यज्ञिय कर्मों की रक्षा करनेवाला बनूँ [ ग ] मुझमें सत्य का प्रकाश हो [ घ ] मेरा ज्ञान सदा बढ़ता रहे।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु-जैसे ही बनने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    फिर ईश्वर और अग्नि के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

     (नमः) अन्न को (भरन्तः) धारण करते हुए हम लोग (धिया) कर्म वा बुद्धि से (अध्वराणाम्) अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों के (गोपाम्) इन्द्रिय और पशु आदि के रक्षक' (राजन्तम्) प्रकाशमान (ऋतस्य ) अनादिस्वरूप सत्यकारण (प्रकृति) को (दीदिविम्) व्यवहार के योग्य बनाने वाले [जगदीश्वर को] (स्वे) अपने (दमे) शान्तिदायक स्थान एवं अत्यन्त उत्कृष्ट प्राप्त करने के योग्य पद पर (वर्धमानम्) बढ़ते हुए हानिरहित जगदीश्वर को [हम लोग] ( उपैमसि) सदा प्राप्त करें। यह मन्त्र का पहला अर्थ है।

       जिस परमात्मा ने (अध्वाराणाम्) शिल्पविद्या से साध्य, सब प्रकार रक्षा करने योग्य यज्ञों के (गोपाम् ) इन्द्रिय तथा पशु आदि के रक्षक (राजन्तम् ) प्रकाशमान (ऋतस्य) जल को (दीदिविम्) व्यवहार योग्य बनाने वाली (स्वे) अपने (दमे) शान्त रूप में (वर्धमानः) बढ़ती हुई जो अग्नि प्रकाशित की है, उस (नमः) अन्न को (भरन्तं) धारण करते हुये हम लोग (धिया) कर्म वा बुद्धि से (उप-ए-मसि) सदा प्राप्त करें । यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ३ । २३ ।।

    भावार्थ

    मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ।। यहाँ नमः, भरन्तः, धिया, उप, और इमसि इन छः पदों की पूर्व मन्त्र से अनुवृत्ति समझें ।

     परमेश्वर अनादिस्वरूप कारण (प्रकृति) से सब कार्य पदार्थों की रचना करता है, और भौतिक अग्नि जल को प्राप्त करा कर सब व्यवहारों को साधता है, ऐसा समझें ।। ३ । २३ ।।

    प्रमाणार्थ

    (ऋतम्) 'ऋत' शब्द निघं० ( ३ । १० ) में सत्य नामों में पढ़ा है और निघं॰ ( १ । १२ ) में जल-नामों में पढ़ा है। (दीदिविम्) 'दीदिवि' शब्द 'दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य' उ० (४ । ५५) सूत्र से 'दिव्' धातु से 'क्विन्' प्रत्यय, द्वित्व और अभ्यास को दीर्घ करने से सिद्ध होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ । ३ । २ । २९ ) में की गई है ।। ३ । २३ ।।

    भाष्यसार

    १. अग्नि (ईश्वर) के गुण--अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों के अङ्ग तथा सब प्राणियों का रक्षक, प्रकाशस्वरूप, अनादि कारण (प्रकृति) से व्यवहार के योग्य सब कार्य जगत् का रचक, जहाँ सब लोग शान्ति को प्राप्त करते हैं, परम उत्कृष्ट एवं प्राप्त करने के योग्य है, हानिरहित है।

    २. अग्नि (भौतिक) के गुण--शिल्पविद्या से साध्य एवं सर्वथा रक्षा करने योग्य यज्ञों के अङ्गों तथा सब प्राणियों का रक्षक है, प्रकाशमान, जल की प्राप्ति से सब व्यवहारों का साधक, शान्तस्वरूप इस संसार रूप घर में वृद्धि को प्राप्त होने वाला है ।

    ३. अग्नि (ईश्वर / भौतिक) की प्राप्ति--अन्न आदि उत्तम पदार्थों का सेवन करते हुये ज्ञान और कर्म से ईश्वर और अग्नि विद्या को प्राप्त करें ।।

    ४. अलंकार—यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थों का ग्रहण किया जाता है ॥ ३ । २३ ।।

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    विषय

    ईश्वर और राजा का स्वरूप ।

    भावार्थ

    ( राजन्तम् ) सर्वत्र यश और प्रताप से प्रकाशमान ( अध्वराणाम् ) शत्रुओं से न नाश होने योग्य दुर्ग और उत्तम रक्षा के उपायों के रक्षक, ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान के ( दीदिविम्) प्रकाशक, (स्वे दमे ) अपने दमन कार्य में (वर्धमानं)सबसे अधिक बढ़ने वाले तुम राजा को हम अन्न का उपहार करते हुए प्राप्त हों । 
    ईश्वर पक्ष में  -- यज्ञों के रक्षक ऋग्वेद के प्रकाशक, परम मोक्षपद में राजमान, परमेश्वर की हम उपासना करें । 
    अग्नि के पक्ष में -- इसी प्रकार प्रकाश या अग्नि को हम अपने घर में हवि सेपुष्ट करें || शत० २ । ३ । ४ । २७ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     वैश्वामित्रोमधुच्छन्दा ऋषिः ! अग्निर्देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. नमः भरन्तः, धिया, उप, आ, इमसि या सहा पदांची अनुवृत्ती पूर्वीच्या मंत्रातून जाणली पाहिजे. परमेश्वर अनादी सत्य कारणाद्वारे संपूर्ण जगाची रचना करतो व भौतिक अग्नी जलाच्या माध्यमाने सर्व व्यवहार सिद्ध करतो हे माणसांनी जाणले पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्‍वर आणि अग्नी यांच्या गुणांविषयी कथन पुढील मंत्रात केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (नम:) अन्नाद्वारे (भरत:) पोषण घेत व शक्ती धारण करून आम्ही (धिया) बुद्धीने व कर्माने परमेश्‍वराचे नित्य ध्यान करतो. तो परमेश्‍वर (अध्वराणाम्) अग्निहोत्रापासून अश्‍वमेध यज्ञापर्यंत सर्व यज्ञांचे रक्षण तसेच (गोपाम्) इन्द्रियांचे आणि पृथ्वी आदीचे रक्षण करतो. तो (राजन्तम्) प्रकाशमान आहे (ऋतस्य) अनादि सत्यस्वरूप व सर्वांचे कारण आहे. (दीदिविम्) व्यवहार व कार्यासाठी (स्वे) आपल्या (दमे) मोक्षरूप स्थानांत (वर्धमानम्) वृद्धीस प्राप्त होणार्‍या परमेश्‍वराचे (उपभसि) आम्ही नित्य ध्यान करतो. ॥1॥ दुसरा अर्थ (अग्नीपरक) ज्या परमेश्‍वराने (अध्वराणाम्) शिल्पविद्येने साध्य होणार्‍या यज्ञासाठी (गोपाम्) पशु आदींचे रक्षण करण्यासाठी (ऋतस्य) जलाच्या प्राप्तीसाठी (दीदिविम्) तसेच लौकिक व्यवहार पूर्ण करण्यासाठी ज्या अग्नीला (स्वे) त्याच्या स्वत:च्या (यमे) विशिष्ट शांतरूपांत ठेवले आहे व जो वेळोवेळी वरील कार्यासाठी (वर्धमानम्) वृद्धीस प्राप्त होतो व प्रकट होतो, अशा त्या अग्नीला (नम:) विशिष्ट योग्य क्रियांद्वारे (भरत:) संपन्न करीत (धिया) बुद्धी, तंत्र-शास्त्र आदी प्रयोगाने (उपैमसि) आम्ही नित्य प्राप्त करतो. (योग्य तंत्र व रीती वापरून त्यापासून लाभ घेतो) ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे. तसेच या मंत्रात नमः, भरंतः, धिया, उप, आ, इमसि, पूर्वीच्या मंत्रापासून या सहा शब्दांची अनुवृत्ती घेतली आहे (म्हणजे हे सहा शब्द या मंत्रात नाहींत, पण पूर्वीच्या मंत्रातून (स ँ्हितासि.....) हे शब्द संदर्भ व अर्थपूर्ती साठी घेतले आहेत.) परमेश्‍वर आदिरहित म्हणजे अनादि आहे, तो कारणरूपाने सत्य व नित्य आहे आणि तोच समस्त सृष्टी रचनादी कार्य करीत असतो. त्याचप्रमाणे भौतिक अग्नी देखील जगाला जलाची प्राप्ती करून देतो आणि त्याद्वारे सर्व संसारिक कार्य व व्यवहार पूर्ण होतात. सर्व मनुष्यांनी हे यथार्त सत्य अवश्य जाणावे. ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May we worship God, Who is the Guardian of sacrifices, Radiant, the Revealer of the Vedas, and attained to complete redemption.

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    Meaning

    With all our wealth and power, in all faith and humility, we come to Agni, bright and blazing, protector and sustainer of yajnas, illuminator of Truth, Right and the Law of existence, thriving in His own state of bliss.

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    Translation

    We approach you, O Lord, the radiant, the sustainer of the cosmos, the constant illuminator of truth, with humility to appreciate the glory ever-increasingly manifested in your creation. (1)

    Notes

    Gopam, गोप्तारम्, sustainer. Didivam, illuminator. Dame, in your own creation.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরীশ্বরাগ্নিগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
    পুনরায় ঈশ্বর ও অগ্নির গুণের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (নমঃ) অন্ন দ্বারা সৎকারপূর্বক (ভরন্তঃ) ধারণ করিয়া আমরা (ধিয়া) বুদ্ধি বা কর্ম দ্বারা (অধ্বরাণাম্) অগ্নিহোত্র হইতে অশ্বমেধপর্য্যন্ত যজ্ঞ অথবা (গোপাম্) ইন্দ্রিয় পৃথিব্যাদির রক্ষাকারী (রাজন্তম্) প্রকাশমান (ঋতস্য) অনাদি সত্যস্বরূপ কারণের (দীদিবিম্) ব্যবহারকারী অথবা (স্বে) নিজ (দমে) মোক্ষরূপ স্থানে (বর্ধমানম্) বৃদ্ধি গ্রহণকারী পরমাত্মাকে (উপমসি) নিত্য প্রাপ্ত হই ॥ ১ ॥ যে পরমাত্মা (অধ্বরাণাম্) শিল্প বিদ্যাসাধ্য যজ্ঞ অথবা (গোপাম্) পশুদের রক্ষা কারী, ((রাজন্তম্) প্রকাশমান) (ঋতস্য) জলের (দীদিবিম্) ব্যবহার প্রকাশ কারী অথবা (স্বে) নিজ (দমে) শান্তস্বরূপে (বর্ধমানম্) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত অগ্নি প্রকাশিত করিয়াছেন তাহাকে (নমঃ) সৎক্রিয়া দ্বারা (ভরন্তঃ) ধারণ করিয়া আমরা (ধিয়া) বুদ্ধি ও কর্ম দ্বারা (উপৈমসি) নিত্য প্রাপ্ত হই ॥ ২ ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । নমঃ, ভরন্তঃ, ধিয়া উপ, আ, ইমসি, এই ছয় পদের অনুবৃত্তি পূর্বমন্ত্র হইতে জানা উচিত । পরমেশ্বর অনাদি স্বরূপ, সত্য কারণরূপে সম্পূর্ণ কার্য্যের রচনা এবং ভৌতিকাগ্নি জলের প্রাপ্তি দ্বারা সকল ব্যবহারকে সিদ্ধ করেন এইরকম মনুষ্যদিগকে জানা উচিত ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    রাজ॑ন্তমধ্ব॒রাণাং॑ গো॒পামৃ॒তস্য॒ দীদি॑বিম্ । বর্দ্ধ॑মান॒ꣳ স্বে দমে॑ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    রাজন্তমিত্যস্য বৈশ্বামিত্রো মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাড্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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