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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 37
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्ऋषिः छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    1

    भूर्भुवः॒ स्वः सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्या सु॒वीरो॑ वी॒रैः सु॒पोषः॒ पोषैः॑। नर्य॑ प्र॒जां मे॑ पाहि॒ शꣳस्य॑ प॒शून् मे॑ पा॒ह्यथ॑र्य पि॒तुं मे॑ पाहि॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। भुवः॑। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जाभि॒रिति॑ प्र॒ऽजाभिः॑। स्या॒म्। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रैः। सु॒पोष॒ इति॑ सु॒पोषः॑। पोषैः॑। नर्य॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मे॒। पा॒हि॒। शꣳस्य॑। प॒शून्। मे॒। पा॒हि॒। अथ॑र्य। पि॒तुम्। मे॒ पा॒हि॒ ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्भुवः स्वः सुप्रजाः प्रजाभि स्याँ सुवीरो वीरैः सुपोषः पोषैः । नर्य प्रजाम्मे पाहि शँस्य पशून्मे पाह्यथर्य पितुम्मे पाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। भुवः। स्वरिति स्वः। सुप्रजा इति सुऽप्रजाः। प्रजाभिरिति प्रऽजाभिः। स्याम्। सुवीर इति सुऽवीरः। वीरैः। सुपोष इति सुपोषः। पोषैः। नर्य। प्रजामिति प्रऽजाम्। मे। पाहि। शꣳस्य। पशून्। मे। पाहि। अथर्य। पितुम्। मे पाहि॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 37
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स जगदीश्वरः किमर्थः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे नर्य्य! त्वं कृपया मे मम प्रजां पाहि मे मम पशून् पाहि। हे अथर्य्य! मे मम पितुं पाहि। हे शंस्य! जगदीश्वर! भवत्कृपयाऽहं भूर्भुवः स्वः प्राणापानव्यानैर्युक्तः सन् प्रजाभिः सुप्रजा वीरैः सुवीरः पोषैः सह च सुपोषः स्यां नित्यं भवेयम्॥३७॥

    पदार्थः

    (भूः) प्रियस्वरूपः प्राणः (भुवः) बलनिमित्त उदानः (स्वः) सर्वचेष्टानिमित्तो व्यानश्च, तैः सह (सुप्रजाः) शोभना सुशिक्षासद्विद्यासहिता प्रजा यस्य सः (प्रजाभिः) अनुकूलाभिः स्त्र्यौरसविद्यासन्तानमित्रभृत्य-राज्यपश्वादिभिः (स्याम्) भवेयम् (सुवीरः) शोभना वीराः शरीरात्मबलसहिता यस्य सः (वीरैः) शौर्यधैर्यविद्याशत्रु- निवारणप्रजापालनकुशलैः (सुपोषः) श्रेष्ठाः पोषाः पुष्टयो यस्य स (पौषैः) पुष्टिकारकैराप्तविद्याजनितैर्बोधयुक्तै- र्व्यवहारैः (नर्य) नीतियुक्तेषु नृषु साधुस्तत्संबुद्धौ परमेश्वर! (प्रजाम्) सन्तानादिकाम् (मे) मम (पाहि) सततं रक्ष (शंस्य) शंसितुं सर्वथा स्तोतुमर्ह (पशून्) गोऽश्वहस्त्यादीन् (मे) मम (पाहि) रक्षय (अथर्य) संशयरहित। थर्वतिश्चरतिकर्म्मा। (निरु॰११.१८) थर्वति संशेते यः सः थर्य्यो न थर्य्योऽथर्यस्तत्संबुद्धौ, अत्र वर्णव्यत्ययेन वकारस्थाने यकारः। (पितुम्) अन्नम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२.७) (मे) मम (पाहि) रक्ष। अत्रोभयत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। अयं मन्त्रः (शत॰२.४.१.१-६) व्याख्यातः॥३७॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरीश्वरोपासनाज्ञापालनमाश्रित्य सुनियमैः पुरुषार्थेन श्रेष्ठप्रजावीरपुष्ट्यादिकारणैः प्रजापालनं कृत्वा नित्यं सुखं सम्पादनीयम्॥३७॥

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    विषयः

    पुनः स जगदीश्वरः किमर्थः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे नर्य्य ! नीतियुक्तेषु नृषु साधुस्तत्सम्बुद्धौ परमेश्वर ! त्वं कृपया मे=मम प्रजां सन्तानादिकां पाहि सततं रक्ष

    मे=मम पशून् गोऽश्वहस्त्यादीन् पाहि रक्षय ।

    हे अथर्य ! संशय रहित, थर्वति=संशेते यः स थर्य्यो न थर्य्योऽथर्यस्तत्सम्बुद्धौ ! मे=मम पितुम् अन्नं पाहि रक्ष ।

    हे शंस्य=जगदीश्वर! शंसितुं सर्वथा स्तोतुमर्ह ! भवत्कृपयाहं भूर्भुवः स्वः=प्राणापानव्यानैर्युक्तः सन् [भूः] प्रियस्वरूपः प्राण: [भुवः] बलनिमित्त उदानः [स्वः] सर्वचेष्टानिमित्तो व्यानश्च तैः सह प्रजाभिः अनुकूलाभिः स्त्र्यौरसविद्यासन्तानमित्रभृत्यराज्यपश्वादिभि: सुप्रजाः शोभना सुशिक्षासद्विद्यासहिता प्रजा यस्य सः वीरैः शौर्यधैर्यविद्याशत्रुनिवारणप्रजापालनकुशलैः सुवीर: शोभना वीराः=शरीरात्मबलसहिता यस्य सः पोषैः पुष्टिकारकैराप्तविद्याजनितैर्बोधयुक्तैर्व्यवहारैः सह च सुपोषः श्रेष्ठाः पोषा:=पुष्टयो यस्य सः स्याम्=नित्यं भवेयम् ।। ३ । ३७ ।।

    [हे शंस्य=जगदीश्वर ! भवत्कृपयाऽहं......प्रजाभिः सुप्रजाः, वीरैः सुवीरः, पोषैः सह च सुपोषः स्यां=नित्यं भवेयम् ]

    पदार्थः

     (भूः) प्रियस्वरूप: प्राण: (भुवः) बलनिमित्त उदानः (स्वः) सर्वचेष्टानिमित्तो व्यानश्च तैः सह (सुप्रजाः) शोभना सुशिक्षा सद्विद्यासहिता प्रजा यस्य सः (प्रजाभिः) अनुकूलाभिः स्त्र्यौरसविद्यासन्तानमित्रभृत्यराज्यपश्वादिभिः (स्याम्) भवेयम् (सुवीर:) शोभना वीराः=शरीरात्मबलसहिता यस्य सः (वीरैः) शौर्यधैर्यविद्याशत्रुनिवारणप्रजापालनकुशलैः (सुपोषः) श्रेष्ठाः पोषा:=पुष्टयो यस्य सः (पोषैः) पुष्टिकारकैराप्तविद्याजनितैर्बोधयुक्तैर्व्यवहारैः (नर्य) नीतियुक्तेषु नृषु साधुस्तत्सम्बद्धौ परमेश्वर ! (प्रजाम्) सन्तानादिकाम् (मे) मम (पाहि) सततं रक्ष (शंस्य) शंसितुं=सर्वथा स्तोतुमर्ह (पशून्) गोऽश्वहस्त्यादीन् (मे) मम (पाहि) रक्षय (अथर्य) संशयरहित । थर्वतिश्चरतिकर्म्मा ॥ निरु० ११ । १८॥ थर्वति=संशेते यः स थर्य्यो न थर्य्योऽथर्यस्तत्सम्बुद्धौ । अत्र वर्णव्यत्ययेन वकारस्थाने यकार: (पितुम्) अन्नम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० २।७ ॥ (मे) मम (पाहि) रक्ष । अत्रोभयत्रान्तर्त्रतोण्यर्थः । अयं मंत्र: शत० २ । ४ । १।१--६ व्याख्यातः ॥ ३७ ।।

    भावार्थः

    मनुष्यैरीश्वरोपासनाज्ञापालनमाश्रित्य सुनियमैः पुरुषार्थेन श्रेष्ठप्रजावीरपुष्ट्यादिकारणै: प्रजापालनं कृत्वा नित्यं सुखं सम्पादनीयम् ।। ३ । ३७ ।।

    विशेषः

    वामदेव । प्रजापतिः=ईश्वरः। ब्राह्म्युष्णिक् । ऋषभः ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर उस जगदीश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (नर्य) नीतियुक्त मनुष्यों पर कृपा करने वाले परमेश्वर! आप कृपा करके (मे) मेरी (प्रजाम्) पुत्र आदि प्रजा की (पाहि) रक्षा कीजिये वा (मे) मेरे (पशून्) गौ, घोड़े, हाथी आदि पशुओं की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (अथर्य) सन्देह रहित जगदीश्वर! आप (मे) मेरे (पितुम्) अन्न की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (शंस्य) स्तुति करने योग्य ईश्वर! आपकी कृपा से मैं (भूर्भुवः स्वः) जो प्रियस्वरूप प्राण, बल का हेतु उदान तथा सब चेष्टा आदि व्यवहारों का हेतु व्यान वायु है, उनके साथ युक्त होके (प्रजाभिः) अपने अनुकूल स्त्री, पुत्र, विद्या, धर्म, मित्र, भृत्य, पशु आदि पदार्थों के साथ (सुप्रजाः) उत्तम विद्या, धर्मयुक्त, प्रजासहित वा (वीरैः) शौर्य, धैर्य, विद्या, शत्रुओं के निवारण, प्रजा के पालन में कुशलों के साथ (सुवीरः) उत्तम शूरवीरयुक्त और (पोषैः) पुष्टिकारक पूर्ण विद्या से उत्पन्न हुए व्यवहारों के साथ (सुपोषः) उत्तम पुष्टि उत्पादन करने वाला (स्याम्) नित्य होऊँ॥३७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को ईश्वर की उपासना वा उस की आज्ञा के पालन का आश्रय लेकर उत्तम-उत्तम नियमों से वा उत्तम प्रजा, शूरता, पुष्टि आदि कारणों से प्रजा का पालन करके निरन्तर सुखों को सिद्ध करना चाहिये॥३७॥

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    विषय

    भूः, भुवः, स्वः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के ‘दूडभ रथ’ = न हिंसित होनेवाले ज्ञान के द्वारा हम ( भूः ) = सदा स्वस्थ बने रहें। ( भुवः ) = ज्ञान को प्राप्त करनेवाले हों [ भुव अवकल्कने = चिन्तने ]। ( स्वः ) = हम स्वयं राजमान व जितेन्द्रिय बनें, इन्द्रियों के दास न हो जाएँ। 

    २. यह ठीक है कि यह शरीर अवश्य जाना है परन्तु प्रजाओं के द्वारा हम अमर बने रह सकते हैं [ प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम — अथर्व० ], अतः वामदेव प्रार्थना करता है कि ( प्रजाभिः ) = उत्तम सन्तानों से हम ( अग्ने ) = हे आगे ले-चलनेवाले प्रभो! ( सुप्रजाः ) = उत्तम प्रजाओंवाले ( स्याम् ) = हों। इन प्रजाओं द्वारा हम सदा बने रहें। यह प्रजातन्तु कभी बीच में विच्छिन्न न हो जाए। 

    ३. ज्ञान के द्वारा ( वीरैः ) = वीरता की भावनाओं से—[ वि+ईर ] काम-क्रोधादि शत्रुओं को कम्पित करने की भावना से मैं ( सुवीरः ) = उत्तम वीर बनूँ। एकमात्र ज्ञान ही कामादि शत्रुओं को कम्पित करता है। ज्ञानाङ्गिन ही मनुष्य के मलों को भस्म करके उन्हें पवित्र बनाती है। इन कामादि शत्रुओं का विजेता ही सच्चा वीर है। 

    ४. अब जितेन्द्रिय बनकर मैं ( पोषैः ) = पोषणों के द्वारा ( सुपोषः ) = उत्तम पोषणवाला होऊँ। पोषण के लिए ‘चरक’ का सूत्र है ‘हिताशी स्यात्, मिताशी स्यात्, कालभोजी जितेन्द्रियः’ हितकर भोजन खाए, मापकर खाए [ मात्रा में ], समय पर और सबसे बड़ी बात यह कि जितेन्द्रिय हो। जितेन्द्रियता के बिना पोषण सम्भव ही नहीं। एवं, ‘भूः भुवः स्वः’ का क्रमशः ‘प्रजाभिः सुप्रजाः, वीरैः सुवीरः, पोषैः सुपोषः’ के साथ सम्बन्ध है। प्रजाएँ हमें सदा बनाये रखती हैं, ज्ञान हमें वीर बनाता है और जितेन्द्रियता से हमारा पोषण होता है। 

    ५. हे ( नर्य ) = नरहित करनेवाले प्रभो! ( मे ) = मेरी ( प्रजाम् ) =  प्रजा को ( पाहि ) = सुरक्षित कीजिए। वस्तुतः जो व्यक्ति नरहित के कार्यों में रुचि लेते हैं, उनके सन्तान प्रभु-कृपा से अच्छे बनते हैं। 

    ६. ( शंस्य ) = हे शंसन करनेवालों में उत्तम प्रभो! ( मे ) = मेरे ( पशून् ) =  इन काम-क्रोधादि पशुओं को ( पाहि ) = सुरक्षित रखिए। इन्हें खुला न छोड़ दिया जाए। प्रभु अपने भक्तों में ज्ञान का शंसन करते हैं और उस ज्ञान से ये कामादि पशु सुनियन्त्रित रहते हैं। 

    ७. ( अथर्य ) = [ न थर्वति ] विषयों से आन्दोलित न होनेवाले प्रभो! ( मे ) = मेरे ( पितुं पाहि ) = अन्न की आप रक्षा करिए।

    भावार्थ

    भावार्थ — मैं नरहित के कार्यों में लगकर, उत्तम प्रजावाला होकर सदा बना रहूँ। उत्तम बातों का शंसन करता हुआ ज्ञानी बनकर कामादि का ध्वंस करनेवाला ‘वीर’ बनूँ। विषयों से अनान्दोलित अथर्य बनकर पोषक अन्न को ही खाता हुआ ‘सुपोष’ बनूँ।

    टिप्पणी

    टिप्पणी — मन्त्रार्थ का चित्रण—

    भूः                             भुवः                               स्वः

    सुप्रजाः                       सुवीरः                           सुपोषः

    नर्य                            शंस्य                            अथर्य

    प्रजा की रक्षा       कामादि पशुओं का नियमन     उत्तम अन्न-भक्षण

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    विषय

    फिर उस जगदीश्वर की प्रार्थना किसलिए करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ॥

    भाषार्थ

    हे (नर्य्य!) नीतिमान् नरों में श्रेष्ठ परमेश्वर ! आप कृपा करके (मे) मेरी (प्रजाम् ) सन्तान आदि की (पाहि) सदा रक्षा करो ।

    और (मे) मेरे (पशून्) गाय, घोड़े, हाथी आदि पशुओं की भी (पाहि) रक्षा करो ।

    हे (अथर्य) संशय रहित परमेश्वर ! आप (मे) मेरे (पितुम्) अन्न की (रक्ष) रक्षा करो।

     हे (शंस्य) सर्वथा स्तुति करने योग्य जगदीश्वर ! आपकी कृपा से मैं [भूः] प्रिय स्वरूप प्राण [भुवः] बल निमित्त उदान [स्वः] सब चेष्टाओं के निमित्त व्यान इन प्राण-अपान-व्यानों से युक्त होकर (प्रजाभिः) अनुकूल रहने वाले स्त्री, पुत्र, शिष्य, मित्र, सेवक, राज्य, पशु आदि से (सुप्रजा:) उत्तम शिक्षा तथा श्रेष्ठ विद्या से युक्त प्रजा वाला, (वीरै:) शौर्य, धैर्य तथा विद्या से विभूषित एवं शत्रु निवारण तथा प्रजापालन में कुशल (सुवीरः) शरीर और आत्मा के बलों से युक्त श्रेष्ठ वीरों वाला (पोषैः) पुष्टिकारक, प्राप्त विद्या से उत्पन्न ज्ञान युक्त व्यवहारों से (सुपोष:) श्रेष्ठ पुष्टियों वाला (स्याम्) सदा रहूँ ।। ३ । ३७ ।।

    भावार्थ

    मनुष्य, ईश्वरोपासना तथा ईश्वर की आज्ञापालन के आश्रय से उत्तम नियमों एवं पुरुषार्थ के द्वारा श्रेष्ठ प्रजा, वीर पुरुष तथा पुष्टि आदि कारणों से प्रजा का पालन करके नित्य सुख को सिद्ध करें ॥ ३ । ३७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (अथर्य) निरु० (११।१८) में 'थर्वति' क्रिया 'चरति' अर्थ में है। यहाँ वर्ण-व्यत्यय से वकार के स्थान में यकार है। (पितुम्) 'पितु' शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न नामों में पढ़ा है। (पाहि) यहाँ दोनों स्थानों में अन्तर्भावितण्यर्थ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२।४।१।१-६) में की गई है । ३ । ३७ ।।

    भाष्यसार

    १. ईश्वर-प्रार्थना किसलिये-- प्रार्थना करने से जगदीश्वर कृपा करके हमारी सन्तान प्रादि प्रजा की, गौ, घोड़ा, हाथी आदि पशुओं की और अन्न की रक्षा करता है। वह प्राण, अपान और उदान से युक्त करके अनुकूल स्त्री, औरस सन्तान, विद्या सन्तान, मित्र, भृत्य, राज्य, पशु आदि प्रजा से उत्तम विद्या, शिक्षा से युक्त प्रजावान् बनाता है। वह शौर्य, धैर्य, विद्या, शत्रुनिवारण और प्रजापालन में कुशल वीरों से हमें शारीरिक-आत्मिक बल से भरपूर वीरवान् बनाता है। वही आप्त विद्या से उत्पन्न होने वाले ज्ञानयुक्त पुष्टिकारक व्यवहारों से हमें अत्यन्त पुष्ट करता है ।

     यह सब सुख ईश्वर की प्रार्थना के साथ उपासना, आज्ञापालन, उत्तम नियमों का आचरण एवं पुरुषार्थ से ही सम्भव है।

    २. ईश्वर--जगदीश्वर नीतिमानों में श्रेष्ठ, संशयरहित और सर्वथा स्तुति के योग्य है ॥३ । ३७ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात

    महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या संस्कारविधि (गृहाश्रम प्रकरण) में इस प्रकार की है--"हे स्त्री वा पुरुष मैं तेरा वा अपने के सम्बन्ध से (भूर्भुवः, स्वः) शारीरिक, वाचिक और मानस अर्थात् त्रिविध सुख से युक्त हो के (प्रजाभिः) मनुष्यादि उत्तम प्रजाओं के साथ (सुप्रजाः) उत्तम प्रजा युक्त (स्याम्) होऊँ (वीरैः) उत्तम पुत्र बन्धु सम्बन्धी और भृत्यों से सह वर्तमान (सुवीर:) उत्तम वीरों से सहित होऊँ (पोषैः) उत्तम पुष्टिकारक व्यवहारों से (सुपोषः) उत्तम पुष्टि युक्त होऊँ हे (नर्य) मनुष्यों में सज्जन वीर स्वामिन् (मे) मेरी (प्रजाम्) प्रजा की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (शंस्य) प्रशंसा करने योग्य स्वामिन् आप (मे) मेरे (पशून्) पशुओं की (पाहि) रक्षा कीजिये । वैसे हे नारि प्रशंसनीय गुणयुक्त ! तू मेरी प्रजा, मेरे पशु और मेरे अन्न की सदा रक्षा किया कर" ॥ २ ॥        

     महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या आर्याभिविनय (२ । ३५) में इस प्रकार की है-- हे सर्वमङ्गलकारकेश्वर ! आप "भूः" सदा वर्तमान हो । “भुवः" वायु आदि पदार्थों के रचने वाले, "स्वः" सुख रूप हो, हम को सुख दीजिए। हे सर्वाध्यक्ष ! आप कृपा करो जिससे कि मैं पुत्र पौत्र आदि उत्तम गुण वाली प्रजा से श्रेष्ठ प्रजा वाला होऊँ, सर्वोत्कृष्ट वीर योद्धाओं से "सुवीरः" युद्ध में सदा विजयी होऊँ। हे महापुष्टि प्रद! आप के अनुग्रह से अत्यन्त विद्यादि तथा सोमलता आदि औषधि सुवर्णादि और नैरोग्यादि सर्वपुष्टियुक्त होऊँ । हे "नर्य" नरों के हितकारक मेरी प्रजा की रक्षा आप करो। हे "शंस्य" स्तुति करने योग्य ईश्वर ! हस्त्यश्वादि पशुओं का पालन करो। हे "अथर्य" व्यापक ईश्वर ! "पितुम्" धरे अन्न की रक्षा कर। हे दयानिधे ! हम लोगों को सब उत्तम पदार्थों से परिपूर्ण और सब दिन आप आनन्द में रखो" ।। २ । ३५ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे सर्वमङ्गलकारकेश्वर ! आप (भू:) सदा वर्त्तमान हो (भुवः)  वायु आदि पदार्थों के रचनेवाले (स्वः) सुखरूप लोक के रचनेवाले हो । हमको तीन लोक का सुख दीजिए। हे सर्वाध्यक्ष ! आप कृपा करो, जिससे मैं (सुप्रजाः प्रजाभिः स्याम्) पुत्र-पौत्रादि उत्तम गुणवाली प्रजा से श्रेष्ठ प्रजावाला होऊँ। सर्वोत्कृष्ट (वीरैः) वीर योद्धाओं से युक्त हो (सुवीरः) युद्ध में सदा विजयी होऊँ । हे महापुष्टिप्रद ! आपके अत्यन्त अनुग्रह से (पोषैः)  विद्यादि तथा सोम ओषधि, सुवर्णादि और नैरोग्यादि से युक्त हो “सुपोषः सर्वपुष्टियुक्त स्याम् होऊँ । हे (नर्य) नरों के हितकारक ! (प्रजां मे पाहि) मेरी प्रजा की रक्षा आप करो। हे (शंस्य) स्तुति करने के योग्य ईश्वर ! (पशून् मे पाहि) मेरे हस्त्यश्वादि पशुओं का आप पालन करो, हे (अथर्य) व्यापक ईश्वर ! (पितुम् मे पाहि) मेरे अन्न की रक्षा करो। हे दयानिधे ! हम लोगों को सब उत्तम पदार्थों से परिपूर्ण और सब दिन आप आनन्द में रक्खो ॥ ३५ ॥

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    विषय

    प्रजा पशु, अन्न, इनकी रक्षा ।

    भावार्थ

    ( भूः भुवः स्वः ) प्राण, उदान और व्यान इनके बल पर मैं पुरुष (प्रजाभिः ) पुत्र पौत्र आदि सन्तानों से ( सुप्रजा: ) उत्तम सन्तान वाला (स्याम् ) होऊं ! ( वीरै :) वीर्यवान्, शूरवीर पुरुषों से मैं ( सुवीर; स्याम् ) उत्तम वर होऊं और (पोषैः) पुष्टिकारक धन ऐश्वर्य और अन्नआदि पदार्थों से मैं (सुपोषः) उत्तम पुष्टि युक्त धन आदि सम्पन्न होऊं । हे ( नर्य ) नरों पुरुषों के हितकारिन् ! तू ( मे प्रजाम् पाहि ) मेरी प्रजा का पालन कर । हे ( शंस्य ) स्तुति योग्य ( मे पशून् पाहि ) मेरे पशुओं का पालन करो और हे ( अथर्य ) संशयरहित, ज्ञानवन् ! ( मे पितुम् पाहि ) मेरे अन्न की तू उत्तम रीति से रक्षा कर । प्रत्येक प्रजाजन उत्तम सन्तानों, वीर पुरुषों और धनादि से सम्पन्न हो और राजा भी उत्तम प्रजा, वीर पुरुषों और रत्नों से युक्त हो। वह राजा और प्रजा दोनों पशु और अन्न की रक्षा के लिये हितकारी, उत्तम, ज्ञानी और गुणवान् पुरुषों को नियुक्त करें । परमेश्वर से भी यही प्रार्थना समुचित है ॥ शत० २ । ४ । १ । १-५ ॥ 

    टिप्पणी

     ३७ – वामदेव ऋषिः अग्निर्देवता इति दयानन्द । ३७-४४ क्षुणकोपस्यमन्त्राः । सर्वाः नर्येत्यादिप्रवत्स्यपः स्थान मन्त्राः ३७-४३पर्यन्तीःतेषामासुररादित्यश्चर्षी ।०जाः प्रजया भूयासम् । सु० । ० पशून्मे पाहि इति काण्व० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आसुरिरादित्यश्च ऋषिः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्नयो देवताः । ब्राह्मी उष्णिक्। ऋषभः॥

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    माणसांनी ईश्वराची उपासना करावी व त्याच्या आज्ञेचे पालन करून उत्तम संताने निर्माण करावीत, शूर बनावे. पुष्टिकारक व्यवहाराने प्रजेचे पालन करावे व नित्य सुखी व्हावे.

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    विषय

    पुनश्‍च, परमेश्‍वराची प्रार्थना का करावी, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - पदार्थ - (नर्य) मनुष्यांवर कृपा करणार्‍या हे नितिमान परमेश्‍वरा, कृपा करून (मे) माझ्या (प्रजाम्) पुत्रादी प्रजेचे (पाहि) रक्षण कर. (मे) माझ्या (पशून्) गाय, घोडे, हत्ती आदी पशूंचे (पाहि) रक्षण कर. हे (अधर्म) निःसंशय जगदीश्‍वरा, (मे) माझ्या (पितुम्) अन्नाचे (पाहि) रक्षण कर. हे (शस्य) स्तवनीय परमेश्‍वरा, तुझ्या कृपेने मी (भू र्भुवः स्वः) प्रियस्वरूप प्राणवायु, बळाचे कारण उदानवायु आणि सर्व क्रिया व्यवहारादींचे हेतू जो व्यान नामक वायु आहे, या तीन्ही वायूंशी संयुक्त होऊन (प्रजाभिः) अनकूल व प्रिय असलेल्या पत्नी, पुत्र, विद्या, धर्म, सेवक, पशु आदी पदार्थांसह राहीन, अशी कृपा कर. तसेच मी (सुप्रजाः) उत्तम धार्मिक सन्तती सह (वीरेः) व शौर्य -धैर्य विद्यादीने समृद्ध व शत्रु-विनाशन आणि प्रजापालनात समर्थ असलेल्या (सुवीरः) उत्तम वीरांना प्राप्त करीत अशी कृपा कर. (पौषः) तसेच मी पूर्ण विद्या जाणून कर्म करीत (सुपोषः) उत्तम पुष्टिकारक पदार्थांना उत्पन्न करणारा (स्थाम्) होईन, माझ्यावर अशी कृपा करः ॥37॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी ईश्‍वराची उपासना करीत आणि त्याच्या आज्ञेचे पालन करीत उत्तम रीती - नियमांचा आश्रय घेऊन, उत्तम सन्मान, अंगाची शूरता आणि पोषण गुणांनी प्रजा, सन्तती आदीचे पालन करावे व निरंतर सर्व सुखांची प्राप्ती करावी.॥37॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे सर्व मंगलमय ईश्वरा (भूः) तुझे अस्तित्व सदैव विद्यमान असते. (भुवः) वायू इत्यादी पदार्थाचा निर्माणकर्ता आहेस. (स्वः) सुखकारक अशा गोलांचा निर्माणकर्ता आहेस. आम्हाला त्रिलोकाचे सुख दे. हे सर्वाध्यक्षा! श्रेष्ठ गुणांनी युक्त पुत्रपौत्र इत्यादींनी मी युक्त व्हावे अशी कृपा कर, (सुवीरः) मी सर्वोत्कृष्ट वीर योद्धा बनून युद्धात सदैव विजयी व्हावे. हे महापुष्ट करणाऱ्या ईश्वरा! तुझ्या कृपेने मी विद्या व सोम इत्याची औषधांनी युक्त व्हावे व सुवर्णादींनीही युक्त व्हावे तसेच निरोगी बनून सुदृढ व्हावे. हे (नय) नरांच्या हितका तू माया प्रजेचे [संतानांचे] रक्षण कर, हे (शंस्य) स्तुती करण्यायोग्य ईश्वरा! हत्ती, घोडे, इत्यादी माझ्या पशुंचे पालन कर, हे (अथर्य) व्यापक ईश्वरा! (पितुम्) माझ्या अन्नधान्याचे कर, दे दयानिधी आम्हाला उत्तम पदार्थ देऊन संपन्न कर व नेहमी आनंदात ठेव.॥३५॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God, friendly to the wise, do Thou protect my offspring. O worthy of praise do Thou protect my cattle. O God, above all suspicion, protect my food. O God through Thy grace, in unison with the three life-winds, Pran, Apan and Vyan, may I be rich in offspring, well-manned with men, a hero with the heroes, and strong with wise and invigorating deeds.

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    Meaning

    Lord Existent, Intelligent and Blissful, merciful to the noble people, protect my people, Lord worthy of praise, protect my wealth and cattle, Lord firm and irresistible, protect my food, I pray, may I be a happy family man with noble people and children, nobly brave with heroic friends around generously supportive, blest with rich means of health and support.

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    Purport

    The Bestower of all kinds of welfare O God! You are present at all times. You are the Creator of air etc. You are the Creator of the regions which abound in happiness. Bestow upon us the happiness of the three worlds-three spheres of existence. O the Suprintendent of all! Cast a glance of mercy on me so that I may become an excellent house-holder having sons and grandsons endowed with virtuous qualities. I should be always victorious in the wars having the excellent valourous warriors-soldiers. O the Bestower of great valour and wealth! By Your grace, I should possess excellent wisdom, medicines like Soma and wealth in the form of gold. I should be hale and hearty and in this way become vigorous, prosperous and wealthy. O Well-wisher of mankind! Do protect my off-springs in all the difficulties. O Adorable Lord ! safeguard and nourish my animals like elephants and horses etc. O Omnipresent God! Protect our corn-cereals from decay. O Ocean of Mercy! Bestow upon us all the excellent things which we need in life and always keep us in perfect happiness.

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    Translation

    O being, becoming and bliss! May I be a good progenitor with children; may I be a good father with sons; may I be opulent with riches. (1) O friendly to men, protect my progeny. (2) О praiseworthy, protect my cattle. (3) О unperturbable, protect my food. (4)

    Notes

    Bhuh, Bhuvah, Svah, being, becoming and bliss. Narya, friendly to men. Samsya, praiseworthy. Atharya, unpertubable. Fitum, food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স জগদীশ্বরঃ কিমর্থঃ প্রার্থনীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই জগদীশ্বরের প্রার্থনা কীজন্য করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (নর্য়) নীতিযুক্ত মনুষ্যদিগের উপর কৃপাকারী পরমেশ্বর ! আপনি কৃপা করিয়া (মে) আমার (প্রজাম্) পুত্রাদি প্রজার (পাহি) রক্ষা করুন অথবা (মে) আমার (পশুন্) গাভি, অশ্ব, হস্তী ইত্যাদি পশুদিগের (পাহি) রক্ষা করুন । হে (অথর্য়) সন্দেহ রহিত জগদীশ্বর ! আপনি (মে) আমার (পিতুম্) অন্নের রক্ষা করুন । হে (শংস্য) স্তুতি করিবার যোগ্য ঈশ্বর ! আপনার কৃপাবলে আমি (ভূর্ভুবঃ স্বঃ) যে প্রিয়স্বরূপ প্রাণ, বলের হেতু উদান তথা সকল চেষ্টাদি ব্যবহারের হেতু ব্যান বায়ু, তাহাদিগের সহিত যুক্ত হইয়া (প্রজাভিঃ) স্বীয় অনুকূল স্ত্রী, পুত্র, বিদ্যা, ধর্ম, মিত্র, ভৃত্য, পশু ইত্যাদি পদার্থ সহ (সুপ্রজাঃ) উত্তম বিদ্যা, ধর্ম যুক্ত প্রজা সহিত অথবা (বীরৈঃ) শৌর্য্য, ধৈর্য্য, বিদ্যা শত্রুদের নিবারণ, প্রজা-পালনে কুশলদিগের সহিত (সুবীরঃ) উত্তম শূরবীর যুক্ত এবং (পোষৈঃ) পুষ্টিকারক পূর্ণ বিদ্যা হইতে উৎপন্ন ব্যবহার সহ (সুপোষঃ) উত্তম পুষ্টি উৎপাদনকারী (স্যাম) নিত্য হই ॥ ৩৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে ঈশ্বরের উপাসনা অথবা তাঁহারই আজ্ঞা-পালনের আশ্রয় লইয়া উত্তম-উত্তম নিয়মপূর্বক বা উত্তম প্রজা, শূরত্ব, পুষ্টি ইত্যাদি কারণপূর্বক প্রজার পালন করিয়া নিরন্তর সুখ প্রতিপন্ন করা উচিত ॥ ৩৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ভূর্ভুবঃ॒ স্বঃ᳖ সুপ্র॒জাঃ প্র॒জাভিঃ॑ স্যাᳬं সু॒বীরো॑ বী॒রৈঃ সু॒পোষঃ॒ পোষৈঃ॑ ।
    নর্য়॑ প্র॒জাং মে॑ পাহি॒ শꣳস্য॑ প॒শূন্ মে॑ পা॒হ্যথ॑র্য় পি॒তুং মে॑ পাহি ॥ ৩৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ভূর্ভুবরিত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे सर्वमङ्गलकारकेश्वर ! तपाईं भूः सदा वर्तमान हुनुहुन्छ भुवः = वायु आदि पदार्थ हरु को रचना गर्ने र स्वः=सुखरूप लोक हरु का रचनाकार हुनुहुन्छ । हामीलाई तिनैओटा लोक को सुख प्रदान गर्नुहोस् । हे सर्वाध्यक्ष ! हजुरले कृपा गर्नुहोस् । जसले मँ सुप्रजाः प्रजाभिः स्याम् = पुत्र-पौत्रादि उत्तम गुणसम्पन्न प्रजा ले श्रेष्ठ प्रजावान होऊँ । सर्वोत्कृष्ट वीरैः= वीरयोद्धा हरु ले युक्त भएर सुवीर:= युद्ध मा सदा विजयी हूँ । हे महापुष्टिप्रद ! तपाईंको अत्यन्त अनुग्रह ले पोषैः = विद्यादि तथा सोम औषधी, सुवर्णादि अरू नैरोग्यता आदि ले युक्त भएर सुपोषः = सर्वपुष्टियुक्त स्याम् = हूँ | हे नर्य= नर-नारी हरु का हितकारक ! प्रजां मे पाहि= तपाईंले मेरा सन्तान हरू को रक्षा गर्नुहोस् । हे शंस्य = स्तुति गर्न योग्य ईश्वर ! पशून् मे पाहि= मेरा हात्ती-घोडा आदि पशु हरु को रक्षा गर्नुहोस् । हे अथर्य = व्यापक ईश्वर ! पितुम् मे पाहि= मेरा अन्नको रक्षा गर्नु होस् । हे दयानिधे ! हामीलाई सम्पूर्ण उत्तम पदार्थ हरु द्वारा परिपूर्ण र सबै दिन आनन्द मा राख्नु होस् ॥३५॥

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