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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निवायुसूर्य्या देवताः छन्दः - दैवी बृहती,निचृत् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    4

    भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा। तस्या॑स्ते पृथिवि देवयजनि पृ॒ष्ठेऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒याद॑धे॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। भुवः॑। स्वः॑। द्यौरि॒वेति॒ द्यौःऽइ॑व। भू॒म्ना। पृ॒थि॒वीवेति॑ पृथि॒वीऽइ॑व। व॒रि॒म्णा॒। तस्याः॑। ते॒। पृ॒थि॒वि॒। दे॒व॒य॒ज॒नीति॑ देवऽयजनि। पृ॒ष्ठे। अ॒ग्निम्। अ॒न्ना॒दमित्य॑न्नऽअ॒दम्। अ॒न्नाद्या॒येत्य॑न्न॒ऽअद्या॑य। आ। द॒धे॒ ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्याया दधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। भुवः। स्वः। द्यौरिवेति द्यौःऽइव। भूम्ना। पृथिवीवेति पृथिवीऽइव। वरिम्णा। तस्याः। ते। पृथिवि। देवयजनीति देवऽयजनि। पृष्ठे। अग्निम्। अन्नादमित्यन्नऽअदम्। अन्नाद्यायेत्यन्नऽअद्याय। आ। दधे॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स किमर्थ उपयोजनीय इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    अहमन्नाद्याय भूम्ना द्यौरिव वरिम्णा पृथिवीव तेऽस्याः प्रत्यक्षायास्तस्या अप्रत्यक्षाया अन्तरिक्षलोकस्थाया देवयजनि देवयजन्याः पृथिवि, पृथिव्याः पृष्ठे, पृष्ठोपरि भूर्भुवः स्वर्लोकान्तर्गतमन्नादमग्निमादधे, स्थापयामि॥५॥

    पदार्थः

    (भूः) भूमिः। भूरिति वै प्रजापतिरिमामजनयत। (भुवः) भुवरित्यन्तरिक्षम् (स्वः) स्वरिति दिवमेतावद्वा। इदꣳसर्वं यावदिमे लोकाः। सर्वेणैवाधीयते। शत॰२.१.४.११। (द्यौरिव) यथा सूर्यप्रकाशयुक्त आकाशे (भूम्ना) विभुना (पृथिवीव) यथा विस्तृता भूमिः (वरिम्णा) श्रेष्ठगुणसमूहेन (तस्याः) वक्ष्यमाणायाः (ते) अस्याः प्रत्यक्षायाः। अत्र व्यत्ययः। (पृथिवि) पृथिव्याः (देवयजनि) देवा यजन्ति यस्यां तस्याः। अत्रोभयत्र प्रातिपदिकनिर्देशानामर्थतन्त्रत्वात् षष्ठ्यर्थे प्रथमा विपरिणम्यते। (पृष्ठे) उपरि (अग्निम्) भौतिकम् (अन्नादम्) योऽन्नं यवादिकं सर्वमत्ति तम् (अन्नाद्याय) अत्तुं योग्यमद्यमन्नं च तदद्यं चान्नाद्यं च तस्मै (आ) समन्तात् (दधे) स्थापयामि। अयं मन्त्रः (शत॰२.१.४.११-२८) व्याख्यातः॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या! यूयमीश्वरेण रचितं त्रैलोक्योपकारकं स्वव्याप्त्या सूर्यप्रकाशसदृशं श्रेष्ठैर्गुणैः पृथिवीसमानं स्वस्वलोके सन्निहितमिममग्निं कार्यसिद्ध्यर्थं प्रयत्नेनोपयोजयत॥५॥

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    विषयः

    पुनः स किमर्थं उपयोजनीय इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    अहमन्नाद्याय अत्तुं योग्यमद्यमन्नं च तदद्य चान्नाद्यं तस्मै भूम्ना विभुना द्यौरिव यया सूर्यप्रकाशयुक्त आकाशे वरिम्णा श्रेष्ठगुणसमूहेन पृथिवीव यथा विस्तृता भूमि ते=अस्याः प्रत्यक्षायाः  तस्याः=अप्रत्यक्षाया अन्तरिक्षलोकस्थाया वक्ष्यमाणायाः देवयजनि=देवयजन्या: देवा यजन्ति यस्यां तस्याः पृथिवि = पृथिव्याः पृष्ठे=पृष्ठोपरि भूः भूमि भुवः (भुवरित्यन्तरिक्षं) स्वः (स्वरिति दिवं) लोकान्तर्गतमन्नादं योऽन्नं=यवादिकं सर्वमत्ति तम् अग्निं भौतिकम् आदधे=स्थापयामि समन्तात् स्थापयामि ॥ ३ ॥ ५ ॥

    [अहम्.......भूम्ना द्यौरिव, वरिम्णा पृथिवीव.......भूर्भुवः स्वर्लोकान्तर्गतम्...... अग्निमादधे=स्थापयामि ]

    पदार्थः

     (भूः) भूमि । भूरिति वै प्रजापतिरिमामजनयत (भुवः) भूवरित्यन्तरिक्षम् (स्वः) स्वरिति दिवमेतावद्वा इदं सर्वं यावदिमे लोकाः, सर्वेणैवाधीयते ॥ शत० २ ।१।४ ।११ ॥ (द्यौरिव) यथा सूर्यप्रकाशयुक्त आकाशे (भूम्ना) विभुना (पृथिवीव) यथा विस्तृता भूमि: (वरिम्णा) श्रेष्ठगुणसमूहेन (तस्याः) वक्ष्यमाणाया: (ते) अस्याः प्रत्यक्षायाः । अत्र व्यत्ययः (पृथिवि) पृथिव्याः (देवयजनि) देवा यजन्ति यस्यां तस्याः । अत्रोभयत्र प्रातिपदिकनिर्देशानामर्थतन्त्रात्यष्ठ्यर्थे प्रथमा विपरिणम्यते (पृष्ठे) उपरि (अग्निम् ) भौतिकम् (अन्नादम्) योऽन्नं=यवादिकं सर्वमत्ति तम् (अन्नाद्याय) अत्तुं योग्यमद्यमन्नं च तदद्यं चान्नाद्यं तस्मै (आ) समन्तात् (दधे) स्थापयामि ॥ अयं मंत्रः शत० २ । १।४।९-२८ व्याख्यातः ।। ५ ।।

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ ॥ हे मनुष्या ! यूथमीश्वरेण रचितं त्रैलोक्योपकारकं स्वव्याप्त्या सूर्यप्रकाशसदृशं श्रेष्ठैर्गुणैः पृथिवीसमानं स्वस्वलोके सन्निहितमिममग्निं कार्यसिद्ध्यर्थं प्रयत्नेनोपयोजयत ।। ३।५ ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः । अग्निवायुसूर्य्याः=स्पष्टम् ॥दैवी बृहती। द्यौरिवेत्यस्य। निचृद् बृहती । उभयत्र मध्यमः स्वरः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उस अग्नि का किसलिये उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    मैं (अन्नाद्याय) भक्षण योग्य अन्न के लिये (भूम्ना) विभु अर्थात् ऐश्वर्य्य से (द्यौरिव) आकाश में सूर्य के समान (वरिम्णा) अच्छे-अच्छे गुणों से (पृथिवीव) विस्तृत भूमि के तुल्य (ते) प्रत्यक्ष वा (तस्याः) अप्रत्यक्ष अर्थात् आकाशयुक्त लोक में रहने वाली (देवयजनि) देव अर्थात् विद्वान् लोग जहाँ यज्ञ करते हैं वा (पृथिवी) भूमि के (पृष्ठे) पृष्ठ के ऊपर (भूः) भूमि (भुवः) अन्तरिक्ष (स्वः) दिव अर्थात् प्रकाशस्वरूप सूर्यलोक इनके अन्तर्गत रहने तथा (अन्नादम्) यव आदि सब अन्नों को भक्षण करने वाले (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि को (आदधे) स्थापन करता हूँ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्य लोगो! तुम ईश्वर से तीन लोकों के उपकार करने वा अपनी व्याप्ति से सूर्य प्रकाश के समान तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पृथिवी के समान अपने-अपने लोकों में निकट रहने वाले रचे हुए अग्नि को कार्य की सिद्धि के लिये यत्न के साथ उपयोग करो॥५॥

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    विषय

    अग्निहोत्र

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र का ऋषि ‘प्रजापति’ लोकहित के उद्देश्य से ‘प्राजापत्य यज्ञ’ करने का निश्चय करता है। अग्निहोत्र के द्वारा वह अकेले खाने की वृत्ति से ऊपर उठता है। देवताओं से दिये गये अन्नों को देवों के लिए देकर ही वह खाता है, वायु आदि देवों की शुद्धि से समय पर वृष्टि के द्वारा अन्नोत्पादन का कारण बनता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस यज्ञियवृत्ति के परिणामस्वरूप उसका जीवन विलासमय नहीं बनता और परिणामतः वह ( ‘भूः’ ) = स्वस्थ बना रहता है। भू = होना = बने रहना = अस्वस्थ न हो जाना। स्वस्थ शरीर में उसका मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है और ( भुवः ) = वह ज्ञान प्राप्त करता है। [ भुवोऽवकल्कने, अवकल्कणं चिन्तनम् ]। स्वस्थ व ज्ञानी बनकर वह ( स्वः ) = [ स्वयं राजते ] स्वयं राजमान व जितेन्द्रिय बनता है। यह इन्द्रियों का दास नहीं होता। वस्तुतः यज्ञियवृत्ति के मूल में ही इन्द्रियों की दासता समाप्त हो जाती है। यह व्यक्ति विलास से ऊपर उठकर— केवल अपने लिए न जीता हुआ सभी के लिए जीता है। यह ( भूम्ना ) = बहुत्व के दृष्टिकोण से ( द्यौः इव ) = द्युलोक के समान हो जाता है। जैसे द्युलोक अनन्त नक्षत्रों को अपने में समाये हुए है उसी प्रकार यह भी सारे प्राणियों को अपनी ‘मैं’ में समाविष्ट करने का प्रयत्न करता है। यह ( वरिम्णा ) = विशालता के दृष्टिकोण से ( पृथिवी इव ) = इस विस्तृत पृथिवी के समान होता है। वसुधैव कुटुम्बकम् = सभी वसुधा को यह अपना कुटुम्ब बना लेता है।

    २. यह निश्चय करता है कि हे पृथिवी मातः = भूमे! ( देवयजनि ) = जो तू देवताओं के यज्ञ करने का स्थान है ( तस्याः ) = उस ( ते ) = तेरे ( पृष्ठे ) = पृष्ठ पर मैं ( अग्निम् ) = इस अग्नि को ( आदधे ) = अग्निकुण्ड में अवहित करता हूँ, जो अग्नि ( अन्नादम् ) = अन्न को खानेवाली है। इस अग्नि में उत्तमोत्तम हव्य अन्नों की आहुति देता हूँ। यह अग्नि उन्हें सूक्ष्मतम कणों में विभक्त करके सारे वायुमण्डल में फैला देता है। यह सूक्ष्मकण श्वासवायु के साथ कितने ही प्राणियों से अपने अन्दर ग्रहण किये जाते हैं। अग्निहोत्र हमें ( अन्नाद्याय ) = खानेयोग्य अन्न प्राप्त कराता है। इस ‘अन्नाद्याय’ खाद्य अन्न के लिए ही मैं अग्नि का आधान करता हूँ और इस आद्य अन्न की उत्पत्ति में कारण बनकर अपने ‘प्रजापति’ नाम को चरितार्थ करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — अग्निहोत्र के लाभ निम्न हैं—[ क ] स्वास्थ्य [ भूः ] [ ख ] ज्ञान [ भुवः ], [ ग ] जितेन्द्रियता [ स्वः ], [ घ ] विशालता [ द्यौः इव, पृथिवी इव ] [ ङ ] आद्य अन्न की प्राप्ति—इन लाभों का ध्यान करते हुए हमें अग्निहोत्र करना चाहिए।

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    विषय

    फिर उस अग्नि का किस लिये उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    मैं (अन्नाद्याय) भक्ष्य अन्न के लिये (भूम्ना) व्यापक (द्यौरिव) सूर्य के प्रकाश से युक्त आकाश के समान (वरिम्णा) श्रेष्ठ गुणों वाली ( पृथिवीव) विस्तृत भूमि को समान [अग्नि को] (ते) इस प्रत्यक्ष (तस्याः) अप्रत्यक्ष अन्तरिक्ष लोक में स्थित (देवयजनि) जहाँ विद्वान् लोग यज्ञ करते हैं उस (पृथिवी) पृथिवी की (पृष्ठे) पीठ पर (भूः) भूमि ( भुवः) अन्तरिक्ष (स्वः) द्युलोक इन लोकों के अन्तर्गत ( अन्नादम् ) सब यव आदि अन्न का भक्षण करने वाली (अग्निम् ) भौतिक अग्नि को (आदधे) स्थापित करता हूँ ।। ३।५।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमा अलङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम ईश्वर-रचित, तीनों लोकों के उपकारक, अपनी व्याप्ति से सूर्य के प्रकाश के समान श्रेष्ठ गुणों से पृथिवी के समान, अपने-अपने लोकों में स्थित इस अग्नि को कार्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नपूर्वक उपयोग में ला ॥ ३ ॥ ५ ॥

    अन्यत्र उद्धृत - महर्षि ने इस मन्त्र का उल्लेख संस्कार विधि (सामान्य प्रकरण) में अग्न्याधान में किया है और लिखा है-- "इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-२ काष्ठ और थोड़ा कपूर धर अगला मन्त्र पढ़ के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे" ।

    प्रमाणार्थ

    (भूर्भुवः स्वः) शत० (२। १ । ४ । ११) के अनुसार 'भूः भुवः स्वः', का अर्थ इस प्रकार है–- (भूः) 'भू:' का अर्थ भूमि है। प्रजापति ने इसको उत्पन्न किया है। (भुवः) 'भुवः' का अर्थ अन्तरिक्ष है।। (स्वः) 'स्वः' का अर्थ द्युलोक है। ये तीनों ही सब कुछ हैं। सर्व से ही आधान किया जाता है, असर्व से नहीं। (ते) अस्याः। यहाँव्यत्यय है। (पृथिवि ) पृथिव्याः । ( देवयजनि) देवयजन्याः । यहाँ निर्दिष्ट दोनों प्रातिपादिकों में अर्थ को प्रधान मान कर षष्ठी विभक्ति का विपरिणाम किया है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । १ । ४।९-२८) में की गई है । ३ ॥ ५ ॥

    भाष्यसार

     अग्नि (भौतिक) कैसा है --जैसे सूर्य का प्रकाश व्याप्त है, इसी प्रकार अग्नि सर्वत्र व्याप्त है, जैसे पृथिवी विस्तृत है, इसी प्रकार अग्नि भी अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण सर्वत्र विस्तृत है। अग्नि भूलोक, अन्तरिक्षलोक और द्युलोक इन तीनों लोकों में विद्यमान है।

    . अग्नि का उपयोग--अन्न आदि भक्ष्य पदार्थों की सिद्धि के लिये इस भौतिक अग्नि का प्रयत्नपूर्वक यज्ञ आदि में उपयोग करें।

    ३. पृथिवी--पृथिवी का कुछ भाग प्रत्यक्ष है और शेष अन्तरिक्ष में स्थित अप्रत्यक्ष है। देवता लोग इसमें यज्ञ करते हैं इसलिए इस पृथिवी को 'देवयजनी' भी कहते हैं ।

    ४. अलङ्कार--यहाँसूर्यप्रकाश और पृथिवी से अग्नि की उपमा की गई है। अतः दो उपमा अलङ्कार हैं।

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    विषय

    अग्न्याधान, राजा का स्थापन और गृहस्थ कर्म का महत्त्व ।

    भावार्थ

     ( भूः ) यह पृथ्वी लोक ( भुवः ) अन्तरिक्ष और ( स्वः ) वह द्यौलोक और ( भूः ) ब्राह्मण, ( भुवः ) क्षत्रिय, ( स्वः ) वैश्य और ( भूः ) आत्मा, या स्वयं पुरुष ( भुवः ) प्रजा, पुत्र आदि ( स्वः ) पशुगण इनके हित के लिये मैं ( भूम्ना ) अति अधिक महान ऐश्वर्य और सामर्थ्य से और अधिक प्रजाजनों से उसी प्रकार युक्त होजाऊं जैसे ( द्यौः ) यह महान् आकाश नक्षत्रों से, परमैश्वर्य युक्त है और (पृथिवी इव ) पृथिवी जिस प्रकार विशाल है, सबको आश्रय देती है, उसी प्रकार की ( वरिम्णा ) विशालता से मैं भी युक्त होऊं । हे ( पृथिवि ) पृथिवि ! हे ( देवयजनि ) देव - विद्वानों के यज्ञ करने के आश्रयभूत ! ( ते तस्याः ) उस तेरी ( पृष्ठे ) पीठ, पृष्ठ पर ( अन्नादम् ) समस्त अन्नों के भोग करने वाले (अग्निम् ) अग्निरूप प्रजापति राजा को ( आदधे) स्थापित करता हूं। अथवा हे स्त्रीऔर हे वेदि ! तू ( भूम्ना ) अपनी महती शक्ति से ( द्यौः इव ) आकाश के समान गुण रूप नक्षत्रों से सुशोभित है और ( वरिम्णा पृथिवीव ) उत्तम गुणों से पृथिवी के समान उदार पुत्रादि उत्पत्तिकारक पालक और गृहका आश्रय है ! हे ( देवयजनि पृथिवि ) विद्वान् द्वारा पूजनीय पृथिवी के समान योग्य भूमि ( अन्नादम् अग्निम् ) अन्न का भोग करने वाले या कर्म फल के भोग करने वाले अग्नि जीवात्मा को मैं ( अन्नाद्याय ) भावी जीवन के कर्मफल भोग के लिये ही वीर्य रूप से तुझ में ( आदधे ) आधान करता हूँ || शत० का० २ । ८ । १-२८ ॥ 
     

    टिप्पणी

     ५--०' भूम्ना भूमिरिव वरिम्णा' इति काण्व० । १ भूर्भुवः। २ द्यौरिव।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निवायुसूर्याः पृथिवी च देवताः | ( १) देवी बृहती । ( २ ) निचृद् बृहती ।मध्यमः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! ईश्वराने तिन्ही लोकांवर उपकार करण्यासाठी उत्तम अग्नी (सूर्य, विद्युत, भौतिक अग्नी) निर्माण केलेला आहे. त्याचा कार्यसिद्धीसाठी उपयोग करून घेण्याचा प्रयत्न करा.

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    विषय

    त्या अग्नीचा उपयोग का करावा, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - याज्ञिक म्हणत आहे - मी (अन्नाद्याय) भक्षणीय अन्नधान्याच्या प्राप्तीसाठी या अग्नीची स्थापना करीत आहे. ज्याप्रमाणे (भूम्ना) आपल्या ऐश्‍वर्याने तेजाने (द्यौरिव) सूर्य आकाशात चमकत आहे आणि (वरिम्णा) आपल्या सद्गुणांनी (पृथिवीव) ही विशाल भूमी सुशोभित आहे, त्याप्रमाणे (ते) प्रत्यक्ष दिसणार्‍या अग्नीत अथवा (तस्या:) अप्रत्यक्ष असून आकाशयुक्त लोकांत राहणार्‍या अग्नीत (देवयजनि) जेथे देव म्हणजे विद्वज्जन यज्ञ करतात, त्या (पृथिवी) भूमीच्या (पृष्ठे) पाठीवर (मू:) भूमी (भुव:) अन्तरिक्ष आणि (स्व:) दिव म्हणजे प्रकाशरूप सूर्यलोक या सर्वांत राहणार्‍या आणि (अन्नादम्) यव आदी सर्व अन्नांचे भक्षण करणार्‍या (अग्निम्) भौतिक अग्नीची मी (आदधे) (वेदीत किंवा यज्ञकुंडात) स्थापना करीत आहे. ॥5।

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकाराचा दोन वेळा प्रयोग केला आहे. (भूम्ना घौरिव आणि वरिम्णा पृथिवीव) मंत्रात सांगितले आहे की हे मनुष्यांनो, परमेश्‍वराने तीन्ही लोकांवर उपकार करण्यासाठी सूर्याची निर्मिती केली आहे व उत्तमोत्तम गुण देऊन पृथ्वीला अलंकृत केले आहे. या सूर्यलोक आणि भूमिलोकामधे सर्व कार्यांच्या सिद्धतेकरिता अग्नी दिला आहे. हे मनुष्यांनो, तूम्ही या अग्नीचा यज्ञादीद्वारे उत्तम उपयोग करा. ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I lay upon the back of the Earth upon which the learned perform yajna, which is like Heaven in plenty, and like Earth in grandeur, for gain of eatable food, this food-eating fire, that pervades the Earth, Ether, and Sky.

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    Meaning

    In expanse as vast as the bright heaven, in virtue as firm and generous as the earth, Agni is ever present on the earth, in the sky and in heaven. Earth Mother, seat of yajna by the devas (noble people and the powers of nature) for the devas (good people and the powers of nature), here on the ground in the vedi on your surface, I place the sacred fire, consumer of the oblations of food, for the sake of food and energy.

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    Translation

    О being,(1) becoming (2), and bliss (3) ! Vast as sky and extending as earth ! О earth, seat of sacrifice for Nature’s bounties, on your back I place the food-consuming fire, so that we may gain foodgrains. (4)

    Notes

    According to the ritualists, the sacrificer lays down the ahavaniya fire on the place prepared for it with this mantra. Bhuh Bhuvah Svah, these three words are called mahavyahrtis, i. e. solemn sacrificial exclamations. These may denote earth, midspace and the sky; or Brahma, Ksatra and Vis; or the self, human beings and the animals. He wants to say that these may come under my control. Bhumna, with vastness. Varimna, with largeness. Devayajani, seat of sacrifice. देवाः यजन्ति यस्यां सा, on which the enlightened ones perform sacrifice. (Daya). Annadyaya,अन्नं च तत् अद्यं च अन्नाद्यम्, food-grains.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স কিমর্থ উপয়োজনীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই অগ্নি কীজন্য ব্যবহৃত হওয়া উচিত এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- আমি (অন্নাদ্যায়) ভক্ষণীয় অন্নের জন্য (ভূম্না) বিভু অর্থাৎ ঐশ্বর্য্য দ্বারা (দ্যৌরিব) আকাশে সূর্য সমান (বরিম্না) ভাল ভাল গুণগুলি দ্বারা (পৃথিবীব) বিস্তৃত ভূমি তুল্য (তে) প্রত্যক্ষ বা (তস্যাঃ) অপ্রত্যক্ষ অর্থাৎ আকাশযুক্ত লোকে বসবাসকারী (দেবয়জনি) দেব অর্থাৎ বিদ্বান্গণ যেখানে যজ্ঞ করেন অথবা (পৃথিবী) ভূমির (পৃষ্ঠে) পৃষ্ঠোপরি (ভূঃ) ভূমি (ভুবঃ) অন্তরিক্ষ (স্বঃ) দিব অর্থাৎ প্রকাশস্বরূপ সূর্য্যলোক ইহাদের অন্তর্গত নিবাসকারী তথা (অন্নাদম্) যবাদি সকল অন্নাদি ভক্ষণকারী (অগ্নিম্) প্রসিদ্ধ অগ্নিকে (আদধে) স্থাপন করি ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে দুটি উপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! ঈশ্বর দ্বারা ত্রিলোকের উপকার করিবার অথবা স্বীয় ব্যাপ্তি দ্বারা সূর্য্যপ্রকাশ সমান তথা উত্তমোত্তম গুণ সকল দ্বারা পৃথিবী সমান নিজ নিজ লোকে নিকটে নিবাসকারী রচিত অগ্নিকে কার্য্য সিদ্ধ হেতু যত্নপূর্বক ব্যবহার কর ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ভূর্ভুবঃ॒ স্ব᳕র্দ্যৌরি॑ব ভূ॒ম্না পৃ॑থি॒বীব॑ বরি॒ম্ণা ।
    তস্যা॑স্তে পৃথিবি দেবয়জনি পৃ॒ষ্ঠে᳕ऽগ্নিম॑ন্না॒দম॒ন্নাদ্যা॒য়াऽऽ দ॑ধে ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ভূর্ভুবঃ স্বরিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । অগ্নিবায়ুসূর্য়্যা দেবতাঃ । ভূর্ভুবঃ স্বরিত্যস্য দৈবী বৃহতী ছন্দঃ । দ্যৌরিবেত্যস্য নিচৃদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
    উভয়ত্র মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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