यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 46
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - इन्द्रमारुतौदेवते
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
1
मो षू ण॑ऽइ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒ हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः। म॒हश्चि॒द्यस्य॑ मी॒ढुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒ वन्द॑ते॒ गीः॥४६॥
स्वर सहित पद पाठमोऽइति॒ मो। सु। नः॒। इ॒न्द्र॒। अत्र॑। पृ॒त्स्विति॑ पृ॒त्ऽसु। दे॒वैः। अस्ति॑। हि। स्म॒। ते॒। शु॒ष्मि॒न्। अ॒व॒या इत्य॑व॒ऽयाः। म॒हः। चि॒त्। यस्य॑। मी॒ढुषः॑। य॒व्या। ह॒विष्म॑तः। म॒रुतः॑। वन्द॑ते। गीः ॥४६॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षू ण इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि ष्मा ते शुष्मिन्नवयाः । महश्चिद्यस्य मीढुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मोऽइति मो। सु। नः। इन्द्र। अत्र। पृत्स्विति पृत्ऽसु। देवैः। अस्ति। हि। स्म। ते। शुष्मिन्। अवया इत्यवऽयाः। महः। चित्। यस्य। मीढुषः। यव्या। हविष्मतः। मरुतः। वन्दते। गीः॥४६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
ईश्वरशूरवीरसहायेन युद्धे विजयो भवतीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे इन्द्र शूरवीरेश्वर! कृपया त्वमत्र पृत्सु देवैर्विद्वद्भिः सहितान् नोऽस्मान् सु रक्ष मो हिन्धि। हे शुष्मिन्! स्म ते तव महो गीर्ह्येतान् मीढुषो हविष्मतो मरुतो वन्दते चिदेते त्वां सततं वन्दन्तेऽभिवाद्यानदयन्तीव, योऽवया यजमानोऽस्ति, स त्वदाज्ञया यानि यव्या यव्यानि हवींष्यग्नौ जुहोति तानि सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति॥४६॥
पदार्थः
(मो) निषेधार्थे (सु) शोभनार्थे निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) जगदीश्वर सुवीर वा (अत्र) अस्मिन् संसारे (पृत्सु) संग्रामेषु। पृत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰२.१७) (देवैः) विद्वद्भिः शूरैः (अस्ति) (हि) खलु (स्म) वर्तमाने। निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (ते) तव (शुष्मिन्) अनन्तबलवन् पूर्णबलवन् वा। शुष्ममिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰२.९) (अवयाः) अवयजते विनिगृह्णाति (महः) महत्तरम् (चित्) उपमार्थे (यस्य) वक्ष्यमाणस्य (मीढुषः) विद्यादिसद्गुणसेचकान् (यव्या) यवेषु साधूनि हवींषि यव्यानि। अत्र शेश्छन्दसि [अष्टा॰६.१.७०] इति शेर्लोपः। (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते येषु तान् (मरुतः) ऋत्विजः (वन्दते) स्तौति तद्गुणान् प्रकाशयति (गीः) वाणी। गीरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१.११)। अयं मन्त्रः (शत॰२.५.२.२६-२८) व्याख्यातः॥४६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः परमेश्वरमाराध्य सम्यक् सामग्रीः कृत्वा युद्धेषु शत्रून् विजित्य चक्रवर्तिराज्यं प्राप्य सम्पाल्य महान्तमानन्दं सेवन्ते तदा सुराज्यं जायत इति॥४६॥
विषयः
ईश्वरशूरवीरसहायेन युद्धे विजयो भवतीत्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे इन्द्र=शूरवीरेश्वर जगदीश्वर सुवीर वा ! कृपया त्वमत्र अस्मिन् संसारे पृत्सु संग्रामेषु देवैः=विद्वद्भिः विद्वद्भिः शूरै: सहितान् नः=अस्मान् सु शोभनतया रक्ष मो न हिन्धि ।
हे शुष्मिन् ! अनन्तबलवन=पूर्ण बलवन् वा ! स्म वर्तमाने [यस्य] वक्ष्यमाणस्य ते=तव महः महत्तर गीः वाणी हि खलु एतान् मीढुषः विद्यादिसद्गुणसेचकान् हविष्मतः प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते येषु तान् मरुतः ऋत्विजः वन्दते स्तौति=तद्गुणान् प्रकाशयति ।
चित् यथा एते त्वां सततं वन्दन्तेऽभिवाद्यानन्दयन्तीव, योऽवयाः=यजमानः अवयजते=विनिगृह्णाति [सः] अस्ति, स त्वदाज्ञया यानि यथा=यव्यानि हवींषि यवेषु साधूनि हवींषि यव्यानि अग्नौजुहोति, तानि सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति ॥ ३ । ४६ ।।
[ हे इन्द्र=शूरवीरेश्वर ! कृपया त्वमत्र पृत्सु देवैः=विद्वद्भिः सहितान् नः=अस्मान् सु रक्ष, यो हिन्धि, यस्य ते=तव महो गीर्हि --मरुतो वन्दते ]
पदार्थः
(मो) निषेधार्थे (सु) शोभनार्थे निपातस्य चेति दीर्घः (नः) अस्मान् (इन्द्र) जगदीश्वर सुवीर वा (अत्र) अस्मिन् संसारे (पृत्सु) संग्रामेषु । पृत्स्विति संग्रामनाम पठितम् ॥ निघं० २ ।१७ ॥ (देवैः) विद्वद्भिः शूरै: (अस्ति) (हि) खलु (स्म) वर्तमाने । निपातस्य चेति दीर्घः (ते) तव (शुष्मिन्) अनन्तबलवन् पूर्णबलवन् वा । शुष्ममिति बलनामसु पठितम् ॥ निघं० २ ।९ ॥ (अवयाः) अवयजते--विनिगृह्णाति (महः) महत्तरम् (चित्) उपमार्थे (यस्य) वक्ष्यमाणस्य (मीढुषः) विद्यादिसद्गुणसेचकान् (यव्या) यवेषु साधूनि हवींषि यव्यानि । अत्र शेश्छन्दसीति शेर्लोपः (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते येषु तान् ( मरुतः) ऋत्विजः (वन्दते) स्तौति तद्गुणान्प्रकाशयति (गीः) वाणी । गौरिति वाङ्नामसु पठितम् ॥ निघं० १ ।११ ॥ अयं मंत्रः शत० २ ।५ ।२ ।२६-२८ व्याख्यातः ॥ ४६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः ॥ यदा मनुष्याः परमेश्वरमाराध्य, सम्यक् सामग्री: कृत्वा, युद्धेषु शत्रून् विजित्य, चक्रवर्त्तिराज्यं प्राप्य, सम्पाल्य, महान्तमानन्दं सेवन्ते, तदा सुराज्यं जायत इति । ३ । ४६ ।।
भावार्थ पदार्थः
भा॰ पदार्थ:-- पृत्सु=युद्धेषु ।महः=महान्तमानन्दम् ॥
विशेषः
अगस्त्यः । इन्द्रमारूतौ=ईश्वर-शूरवीरौ ॥ भुरिक् पंक्तिः ।पंचमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर और शूरवीर के सहाय से युद्ध में विजय होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) शूरवीर! आप (अत्र) इस लोक में (पृत्सु) युद्धों में (देवैः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (सु) अच्छे प्रकार रक्षा कीजिये तथा (मो) मत हनन कीजिये। हे (शुष्मिन्) पूर्ण बलयुक्त शूरवीर! (हि) निश्चय करके (चित्) जैसे (ते) आपकी (महः) बड़ी (गीः) वेदप्रमाणयुक्त वाणी (मीढुषः) विद्या आदि उत्तम गुणों के सींचने वा (हविष्मतः) उत्तम-उत्तम हवि अर्थात् पदार्थयुक्त (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले विद्वानों के (वन्दते) गुणों का प्रकाश करती है, जैसै विद्वान् लोग आप के गुणों का हम लोगों के अर्थ निरन्तर प्रकाश करके आनन्दित होते हैं, वैसे जो (अवयाः) यज्ञ करने वाला यजमान है, वह आपकी आज्ञा से जिन (यव्या) उत्तम-उत्तम यव आदि अन्नों को अग्नि में होम करता है, वे पदार्थ सब प्राणियों को सुख देने वाले होते हैं॥४६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब मनुष्य लोग परमेश्वर की आराधना कर अच्छे प्रकार सब सामग्री को संग्रह करके युद्ध में शत्रुओं को जीतकर चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त कर प्रजा का अच्छे प्रकार पालन करके बड़े आनन्द को सेवन करते हैं, तब उत्तम राज्य होता है॥४६॥
विषय
हाथों में कर्म, वाणी में स्तवन
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में पापों को दूर करने का उल्लेख है। यह पापों को दूर करनेवाला ‘अगस्त्य’ कहलाता है। ‘अग’ = पापपर्वत का ‘स्त्य’ = संहार करनेवाला। यह अगस्त्य प्रभु से प्रार्थना करता है—हे ( इन्द्र ) = सर्वशक्तिमन् सर्वैश्वर्यवन् प्रभो! ( अत्र ) = यहाँ—इस मानव-जीवन में ( पृत्सु ) = संग्रामों में ( नः ) = हमारा ( मा ) = मत ( उ ) = ही मन्थन [ नाश ] हो [ विनाशयतीति शेषः—म० ]। [ सुशब्दो विनाशभावस्य सौष्ठवं ब्रूते—म० ] ( सु ) = थोड़ा-सा भी नाश मत हो। हे प्रभो! आपकी कृपा से हम इन काम-क्रोधादि से संघर्ष में तनिक भी पराजित न हों।
२. हे ( शुष्मिन् ) = शत्रुओं के शोषक बलवाले प्रभो! ( देवैः ) = देववृत्तिवालों द्वारा ( ते ) = तेरा ( अवयाः ) = [ अवयुतो भागः ] पृथक् भाग ( अस्ति हि ष्म ) = निश्चय से है ही, अर्थात् देव प्रातः-सायं संसार से अलग होकर कुछ देर के लिए प्रभु का ध्यान अवश्य करते हैं। वह प्रभु-चिन्तन ही वस्तुतः उन्हें देव बनाता है।
३. ( हविष्मतः ) = उस प्रशस्त हविवाले, अर्थात् सब उत्तम पदार्थों को देनेवाले ( मीढुषः ) = [ मिह सेचने ] सब सुखों की वर्षा करनेवाले ( यस्य ) = प्रभु की ( यव्या ) = [ यु मिश्रणामिश्रणयोः ] अपने जीवन को दोषों से पृथक् करना और गुणों से संयुक्त करना ( चित् ) = ही ( महः ) = पूजा है। हम बुराइयों को छोड़ें और अच्छाइयों को लें, यही प्रभु-पूजा है।
४. ( मरुतः ) = इस यव्या—दोषत्याग एवं गुणसंग्रह के द्वारा प्रभु-पूजा करनेवाले मरुत् [ मनुष्य की ] ( गीः ) = वाणी ( वन्दते ) = प्रभु का स्तवन करती है। ‘मरुत’ मितरावी है, कम बोलता है। अपने अन्दर अच्छाइयों को ग्रहण करने का प्रयत्न करता है। अपने कार्यों में लगा हुआ प्रभु-स्तवन करता है। हाथ काम में लगे हैं तो वाणी प्रभु का गुणगान करती है।
भावार्थ
भावार्थ — अवगुणों को दूर करना व गुणों को धारण करना ही ‘प्रभु-स्तवन’ है।
विषय
ईश्वर और शूरवीर के सहाय से युद्ध में विजय होता है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे (इन्द्र) शूरवीर वा जगदीश्वर! आप (अत्र) इस संसार में (पृत्सु) युद्धों में (देवैः) शूर विद्वानों के सहित (नः) हमारी (सु) अच्छे प्रकार (रक्ष) रक्षा करो (मो) मत (हिन्धि) हिंसा करो ।
हे (शुष्मिन्) अनन्त बल ईश्वर एवं पूर्ण बल वाले शूर! (स्म) इस समय (यस्य) जिस (ते) आपकी (महः) महान् (गी:) वाणी (हि) निश्चय से इन (मीढुष:) विद्या आदि उत्तम गुणों को सींचने वाले (हविष्मतः) प्रशस्त हवि देने वाले (महतः) ऋत्विक् जनों की (वन्दते) स्तुति करती है एवं उनके सद्गुणों को प्रकाशित करती है।
(चित्) जैसे यह लोग आपकी सदा वन्दना करते हैं एवं अभिवादन करके आनन्दित करते हैं, वैसे ही जो (अवयाः) यजन करने वाला यजमान (अस्ति) है, वह आपकी आज्ञा से जिन (यव्या) यव आदि उत्तम हवियों को अग्नि में (जुहोति) डालता है, वे हवियाँ सब प्राणियों को सुख देती हैं ।। ३ । ४६ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है । जब सब मनुष्य परमेश्वर की आराधना करके, अच्छे प्रकार सामग्री को बनाकर, युद्धों में शत्रुओं को जीत कर, चक्रवर्त्ती राज्य को प्राप्त कर तथा उसकी रक्षा भी करके महान् आनन्द का सेवन करते हैं, तब 'सुराज्य' बनता है ।। ३ । ४६ ।।
प्रमाणार्थ
(सू) सु । यहाँ 'निपातस्य च' [अ० ६ । १ । १३६] सूत्र से दीर्घ है। (पृत्सु) 'पृत्सु' शब्द निघं० (२। १७) में संग्राम-नामों में पढ़ा है । (स्मा) स्म । यहाँ 'निपातस्य च [अ० ६ । ३। १३६] सूत्र से दीर्घ है। (शुष्मिन्) 'शुष्म' शब्द निघं० (२ । ९) में बल-नामों में पढ़ा है। (यव्या) यव्यानि । यहाँ 'शेश्छन्दसि बहुलम्’ [अ०। ६ । १ । ७०] से 'शि' प्रत्यय का लोप है । (गीः) 'गिर्' शब्द निघं॰ (१ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ५ । २ । २६-२८) में की गई है ।। ३ । ४६ ।।
भाष्यसार
१. ईश्वर और शूरवीरों के सहाय से युद्ध में विजय-- ईश्वर और शूरवीर के लोग कृपा करके विद्वानों की तथा हमारी रक्षा करते हैं। अनन्त बलवान् जगदीश्वर तथा पूर्ण बलवान् शूरवीरों की महान् आनन्दकारक वाणी विद्वान् ऋत्विक् जनों की सदा प्रशंसा करती है, उनके गुणों को प्रकाशित करती हैं। जैसे यजमान और ऋत्विक् लोग यज्ञ से सबको आनन्दित करते हैं वैसे ही ईश्वर तथा शूरवीरों की सहायता से मनुष्य युद्धों में विजय प्राप्त करके सबको सुखी करें ।। ३ । ४६ ।।
२. अलङ्कार--यहाँ ऋत्विक् जनों से शूरवीरों की उपमा की गई है तथा मन्त्र में 'चित्' पद उपमार्थक है। इसलिये उपमा अलङ्कार है ।
विषय
कर व्यवस्था।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! राजन् ! ( अत्र ) इस राष्ट्र में रहते हुए (नः) हमें (मा) सर्वधा मत मार , मत कटा । (सु) प्रत्युत उत्तम रूप से रक्षा कर । हे ( शुष्मिन्) बलशालिन् ! (हि ) निश्चय से ( देवैः ) देव, विजयशील सैनिकों सहित ( ते ) तेरा ( अवयाः ) पृथक् भाग ( अस्ति ) हैं । अर्थात् अन्नादि पदार्थों के लिये राजा अपना कर प्रजा से नियत भाग में लेले। उसके लिये वह प्रजा का संग्रामों में नाश न करे । (यस्य ) जिस ( मीढुषः ) नाना सुखों के प्रवर्धक, उदार राजा के लिये ( यव्या ) यवों, अन्नों के बने उत्तम पदार्थ ही ( महः चित् ) बढ़ी भारी पूजा सत्कार हैं और जिस ( हविष्मतः ) अन्न से सम्पन्न या अस्त्रादि से सम्पन्न ( मरुतः ) प्रजागणों या मारणशील सैनिक अधिकारीगण की ( गीः ) हमारी वाणी ही ( वन्दते) वन्दना करती है, उनको अभिवादन करती है उस तुझ इन्द्र के लिये हमारा अवश्य पृथक भाग है । प्रजा राजा को उत्तम अन्नो से सत्कार करे और अधिकारियों को आदर से नमस्कार करे और वे उसी को अपना पर्याप्त सत्कार समझें ॥ शत० २ । ५ । २ । २८ ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो मरुतश्च देवताः । भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जेव्हा माणसे परमेश्वराची उपासना करतात व सर्व पदार्थांचा संग्रह करून युद्धात शत्रूंना जिंकतात आणि चक्रवर्ती राज्य प्राप्त करून प्रजेचे उत्तम प्रकारे पालन करतात व आनंदी होतात तेच राज्य उत्तम ठरते.
विषय
ईश्वराच्या आणि शूरवीरांच्या सहाय्याने युद्धात विजय प्राप्त होतो, पुढील मंत्रात या विषयी प्रतिपादन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (इन्द्र) शूरवीर (सेनेपती राजा वा सैनिक) तुम्ही (अत्र) या लोकात (मृत्यु) युद्धामधे (दैवैः) विद्वानांसह (नः) आम्हां धार्मिक लोकांचे (सु) चांगल्याप्रकारे रक्षण करा. (तथा) (मो) आमचे हनन करू नका आमची हाती घेईल अस कार्य करू नका आणि शत्रूला करू देऊ नका) हे (शुष्मिन्) पूर्ण बलशाली वीरवर, (हि) निश्चयाने (चित्) ज्याप्रमाणे (ते) तुमची) (महः) महान् (गीः) वेदानुकूल वाणी (मीढुषः) विद्यादी उत्तम गुणांनी सिंचन करून वाढविले तसेच (हविष्मतः) उत्तमोत्तम पदार्थयुक्त हवी (मरूतः) प्रत्येक ऋतूमधे यज्ञ करणार्या विद्वानांच्या (वन्दते) गुणांना प्रकट करते, तसेच ज्याप्रमाणे विद्वज्जन तुमच्या वीरत्वादी गुणांचे वर्णन आमच्यासमोर करून आम्हांस आनंदित करतात व स्वतःही आनंदित होतात, त्याच प्रमाणे (अवयाः) यज्ञ करणारा यजमान तुमच्या आज्ञेने तुमच्या रक्षणाच्या आश्रयाने निर्भय होऊन (यव्या) उत्तम यव आदी अन्नांचे अग्नीमधे हवन करतो, ते सर्व हव्य पदार्थ सर्व प्राण्यांसाठी सुखकारी होतात. ॥46॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जेव्हा लोक परमेश्वराचे आराधना करून युद्धासाठी आवश्यक सामग्री साहित्याचा संग्रह करतात आणि युद्धामधे शत्रूवर विजय मिळवून चक्रवर्ती राज्य करून प्रजांचे उत्तम प्रकारे परिपालन करतात व आनंदात राहतात, तेव्हां त्या राज्यासच उत्तम राज्य म्हणावे. ॥46॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, protect us in battles, in this world, with the help of heroes and destroy us not. O mighty hero, verily, as the vedic voice, replete with noble virtues, offering oblations, displays the qualities of the learned worshippers, so does the worshipper, put oblations into the fire, which contribute to the happiness of mankind.
Meaning
Mighty Indra, in the battles of this life, protect us well along with the learned and the wise, hurt us not. Lord of infinite power, surely the high and divine voice of yours reveals the nature and virtue of those who, in every season, with appropriate samagri, perform the yajnas. The yajamana, host-performer of yajna, with his offerings sings the songs of praise in honour of the lord of rain and the carriers of the yajna, the winds.
Translation
О resplendent illustrious leader, associated with your brave comrades, abandon us not in the grim struggle of life which confronts us at every step. For O mighty one, the bestower of blessings and kind accepter of our oblations, whilst we have the greatest regard for you, we have no less regard for your brave associates also, and we have all praise for them too. (1)
Notes
Prtsu, in the struggles; battles. Devaih,विद्वद्भि: शूरै:, with learned and brave comrades. Marutah, brave soldiers. Midhusah, of the bestower of blessings; of the showerer. Gih, praises.
बंगाली (1)
विषय
ঈশ্বরশূরবীরসহায়েন য়ুদ্ধে বিজয়ো ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
ঈশ্বরও শূরবীরের সাহায্যে যুদ্ধে বিজয় হয়, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) শূরবীর ! আপনি (অত্র) এই লোকে (পৃৎসু) যুদ্ধে (দেবৈঃ) বিদ্বান্দিগের সঙ্গে (নঃ) আমাদিগের (সু) ভাল প্রকার রক্ষা করুন, এবং (মো) হনন করিবেন না । হে (শুষ্মিন্) পূর্ণ বলযুক্ত শূরবীর ! (হি) নিশ্চয় করিয়া (চিৎ) যেমন (তে) আপনার (মহঃ) মহান্ (গীঃ) বেদপ্রমাণযুক্ত বাণী (মীঢুষঃ) বিদ্যাদি উত্তম গুণ সিঞ্চন করে অথবা (হবিষ্মতঃ) উত্তম-উত্তম হবি অর্থাৎ পদার্থযুক্ত (মরুতঃ) ঋতু-ঋতুতে যজ্ঞকারী বিদ্বান্দিগের (বন্দতে) গুণগুলির প্রকাশ করে, যেমন বিদ্বান্গণ আপনার গুণ সকলের আমাদিগের নিকট অর্থ নিরন্তর প্রকাশ করিয়া আনন্দিত হয়েন সেইরূপ যে (অবয়াঃ) যজ্ঞ কারী যজমান সে আপনার আজ্ঞায় যে সব (য়ব্যা) উত্তম-উত্তম যবাদি অন্নগুলিকে অগ্নিতে হোম করে সেই সব পদার্থগুলি সকল প্রাণীদিগের পক্ষে সুখকারী হইয়া থাকে ॥ ৪৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যখন মনুষ্যগণ পরমেশ্বরের আরাধনা করিয়া সম্যক্ প্রকার সকল সামগ্রী সংগ্রহ করিয়া যুদ্ধে শত্রুদিগকে জিতিয়া চক্রবর্ত্তী রাজ্য প্রাপ্ত করিয়া সম্যক্ প্রকার পালন করিয়া বড় আনন্দ সহকারে সেবন করেন তখন উত্তম রাজ্য হয় ॥ ৪৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মো ষূ ণ॑ऽই॒ন্দ্রাত্র॑ পৃ॒ৎসু দে॒বৈরস্তি॒ হি ষ্মা॑ তে শুষ্মিন্নব॒য়াঃ ।
ম॒হশ্চি॒দ্যস্য॑ মী॒ঢুষো॑ য়॒ব্যা হ॒বিষ্ম॑তো ম॒রুতো॒ বন্দ॑তে॒ গীঃ ॥ ৪৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মো ষূ ণ ইত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । ইন্দ্রমারুতৌ (ইন্দ্রামরুতৌ) দেবতে । ভুরিক্পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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