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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 39
    ऋषिः - आसुरिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    1

    अ॒यम॒ग्निर्गृ॒हप॑ति॒र्गार्ह॑पत्यः प्र॒जाया॑ वसु॒वित्त॑मः। अग्ने॑ गृहपते॒ऽभि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। अ॒ग्निः। गृ॒हप॑ति॒रिति॑ गृ॒हऽप॑तिः। गार्ह॑पत्य॒ इति॒ गार्ह॑ऽपत्यः॑। प्र॒जाया॒ इति॑ प्र॒जायाः॑। व॒सु॒वित्त॑म॒ इति॑ वसु॒वित्ऽत॑मः। अग्ने॑। गृ॒ह॒प॒त॒ इति॑ गृहऽपते। अ॒भि। द्यु॒म्नम्। अ॒भि। सहः॑। आ। य॒च्छ॒स्व॒ ॥३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निर्गृहपतिर्गार्हपत्यः प्रजाया वसुवित्तमः । अग्ने गृहपते भि द्युम्नमभि सह आ यच्छस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। अग्निः। गृहपतिरिति गृहऽपतिः। गार्हपत्य इति गार्हऽपत्यः। प्रजाया इति प्रजायाः। वसुवित्तम इति वसुवित्ऽतमः। अग्ने। गृहपत इति गृहऽपते। अभि। द्युम्नम्। अभि। सहः। आ। यच्छस्व॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथेश्वरभौतिकावग्नी उपदिश्येते॥

    अन्वयः

    हे गृहपतेऽग्ने परमात्मन्! योऽयं भवान् गृहपतिर्गार्हपत्यः प्रजाया वसुवित्तमोऽग्निरस्ति, तस्मात् त्वमस्मदर्थं द्युम्नमभ्यायच्छस्व सहश्चाभ्यायच्छस्वेत्येकः॥ यस्माद् गृहपतिः प्रजाया वसुवित्तमो गार्हपत्योऽयमग्निरस्ति तस्मात् सोऽभिद्युम्नं सहश्चाभ्यायच्छति आभिमुख्येन समन्तात् विस्तारयतीति द्वितीयः॥३९॥

    पदार्थः

    (अयम्) प्रत्यक्षो वक्ष्यमाणः (अग्निः) ईश्वरो विद्युत्सूर्यो ज्वालामयो भौतिको वा (गृहपतिः) गृहाणां स्थानविशेषाणां पतिः पालनहेतुः (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः। अत्र गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः (अष्टा॰४.४.९०) अनेन ञ्यः प्रत्ययः। इदं पदं महीधरादिभिर्व्याकरणज्ञानविरहत्वात्, गृहस्य पतिः पालक इत्यशुद्धं व्याख्यातम्। (प्रजायाः) विद्यमानायाः (वसुवित्तमः) यो वसूनि द्रव्याणि वेदयति प्रापयति सोऽतिशयितः (अग्ने) अयमग्निः (गृहपते) गृहाभिरक्षकेश्वर! गृहाणां पालयिता वा (अभि) अभितः (द्युम्नम्) सुखप्रकाशयुक्तं धनम्। द्युम्नमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰२.१०) (अभि) आभिमुख्ये (सहः) उदकं बलं वा। सह इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१.१२) बलनामसु च। (निघं॰२.९) (आ) समन्तात् क्रियायोगे (यच्छस्व) सर्वतो देहि आयच्छति विस्तारयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः सिद्धिश्च पूर्ववत्। अयं मन्त्रः (शत॰२.४.१.९-११) व्याख्यातः॥३९॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। गृहस्थैर्यदेश्वरमुपास्यैतस्याज्ञायां वर्त्तित्वायमग्निः कार्यसिद्धये संयोज्यते, तदानेकविधे धनबले अत्यन्तं विस्तारयति। कुतः? प्रजाया मध्येऽस्याग्नेः पदार्थप्राप्तये साधकतमत्वादिति॥३९॥

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    विषयः

    अथेश्वरभौतिकावग्नी उपदिश्येते ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे गृहपते ! गृहाभिरक्षकेश्वर ! अग्ने=परमात्मन् ! योऽयं प्रत्यक्षो वक्ष्यमाणो भवान् गृहपतिः गृहाणाम्=स्थानविशेषाणां पतिः=पालनहेपातुः गार्हपत्यः गृहपतिना संयुक्तः प्रजायाः विद्यमानायाः वसुवित्तमः यो वसूनि=द्रव्याणि वेदयति=प्रापयति सोऽतिशयितः अग्निः ईश्वरः अस्ति, तस्मात्त्वमस्मदर्थं द्युम्नं सुखप्रकाशयुक्तं धनम् अभ्यायच्छस्व अभितः=सर्वतः समन्तात् देहि, सहः बलं चाभ्यायच्छस्व अभिमुख्येन सर्वतो देहि इत्येकः।।

    यस्माद् गृहपतिः गृहाणां=स्थानविशेषाणां पतिः=पालनहेतु प्रजायाः विद्यमानायाः वसुवित्तमः यो वसूनि= द्रव्याणि वेदयति=प्रापयति सोऽतिशयितः गार्हपत्यः गृहपतिना संयुक्तः अयमग्निः विद्युत् सूर्यो ज्वालामयो भौतिकः अस्ति, तस्मात्स [गृहपते] गृहाणां पालयिता [अग्ने] अयमग्निः अभिद्युम्नम् अभितः सुखप्रकाशयुक्तं धनं सह उदकं च[अभ्यायच्छस्व]=अभ्यायच्छति=भिमुख्येन समन्तात् विस्तारयतीति द्वितीयः ॥ ३ । ३९ ॥

    [ हे......अग्ने=परमात्मन् ! योऽयं भवान्......अग्निरस्ति, तस्मात्त्वमस्मदर्थं द्युम्नं......सहश्चाभ्यायच्छस्व, अयमयग्निः......अभिद्युम्नं सहश्च [अभ्यायच्छस्व]=अभ्यायच्छति ]

    पदार्थः

    (अयम्) प्रत्यक्षो वक्ष्यमाणः (अग्नि) ईश्वरो विद्युत्सूर्यो ज्वालामयो भौतिको वा (गृहपतिः) गृहाणां= स्थानविशेषाणां पतिः=पालनहेतुः (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः । अत्र गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः ॥ अ॰ ४ ।४ ।९० ॥ अग्ने ञ्यः प्रत्ययः । इदं पदं महोधरादिभिर्व्याकरणज्ञानविरहत्वात् गृहस्य पति: पालक इत्यशुद्धं व्याख्यातम् (प्रजायाः) विद्यमानायाः (वसुवित्तमः) यो वसूनि=द्रव्याणि वेदयति=प्रापयति सोऽतिशयितः (अग्ने) अयमग्निः (गृहपते) गृहाभिरक्षकेश्वर, गृहाणां पालयिता वा (अभि) अभितः (द्युम्नम्) सुखप्रकाशयुक्तं धनम् । द्युम्नमिति धननामसु पठितम् ॥ निघं० २॥ १० ॥ (अभि) अभिमुख्ये (सहः) उदकं बलं वा । सह इत्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ।बलनामसु च ॥ निघं० २ ॥ ९॥ (आ) समन्तात् क्रियायोगे (यच्छस्व) सर्वतो देहि प्रायच्छति विस्तारयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः सिद्धिश्च पूर्ववत्॥ अयं मन्त्रः शत० २ ।४ ।१ ।९-११ व्याख्यातः ॥ ३९ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः ॥ गृहस्थैर्यदेश्वरमुस्यैतस्याज्ञायां वार्तित्वायमग्निः कार्यसिद्धये संयोज्यते तदानेकविधे धनबले अत्यन्तं विस्तारयति ।

    [प्रजाया वसुवित्तमः....अयमग्निरस्ति]

     कुत:? प्रजाया मध्येऽस्याग्नेः पदार्थप्राप्तये साधकतमत्वादिति ।। ३ । ३९ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा॰ पदार्थ:-- वसुवित्तमः=पदार्थप्राप्तये साधकतमः ।।

    विशेषः

    आसुरिः । अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ भुरिग्बृहती ।मध्यमः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (गृहपते) घर के पालन करने वाले (अग्ने) परमेश्वर! जो (अयम्) यह (गृहपतिः) स्थान विशेषों के पालन हेतु (गार्हपत्यः) घर के पालन करने वालों के साथ संयुक्त (प्रजाया वसुवित्तमः) प्रजा के लिये सब प्रकार धन प्राप्त कराने वाले हैं, सो आप जिस कारण (द्युम्नम्) सुख और प्रकाश से युक्त धन को (अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये तथा (सहः) उत्तम बल, पराक्रम (अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये॥१॥३९॥ जिस कारण जो (गृहपतिः) उत्तम स्थानों के पालन का हेतु (प्रजायाः) पुत्र, मित्र, स्त्री और भृत्य आदि प्रजा को (वसुवित्तमः) द्रव्यादि को प्राप्त कराने वा (गार्हपत्यः) गृहों के पालन करने वालों के साथ संयुक्त (अयम्) यह (अग्ने) बिजुली सूर्य वा प्रत्यक्षरूप से अग्नि है, इससे वह (गृहपते) घरों का पालन करने वाला (अग्ने) अग्नि हम लोगों के लिये (अभिद्युम्नम्) सब ओर से उत्तम उत्तम धन वा (सहः) उत्तम-उत्तम बलों को (अभ्यायच्छस्व) सब प्रकार से विस्तारयुक्त करता है॥२॥॥३९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। गृहस्थ लोग जब ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा में प्रवृत्त होके कार्य्य की सिद्धि के लिये इस अग्नि को संयुक्त करते हैं, तब वह अग्नि अनेक प्रकार के धन और बलों को विस्तारयुक्त करता है, क्योंकि यह प्रजा में पदार्थों की प्राप्ति के लिये अत्यन्त सिद्धि करने हारा है॥३९॥

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    विषय

    द्युम्न+सहः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र का आसुरि ही प्रार्थना करता है कि ( अयम् ) = यह ( अग्निः ) = प्रकाश की अधिदेवता प्रभु ( गृहपतिः ) = मेरे इस शरीररूप घर का रक्षक है। ये प्रभु ही ( प्रजायाः ) = प्रकृष्ट विकास के हेतु से ( वसुवित्तमः ) = अतिशयेन वसुओं को प्राप्त करानेवाले हैं। सब आवश्यक वसुओं को देकर वे प्रभु हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम अपना सब प्रकार से विकास कर सकें। 

    २. हे ( अग्ने ) = प्रकाश की अधिदेवता प्रभो ! ( गृहपते ) = हमारे शरीररूपी गृहों के रक्षक प्रभो! आप हमें ( द्युम्नम् अभि ) = ज्ञान-ज्योति की ओर तथा ( सहः अभि ) = शक्ति की ओर ( आयच्छस्व ) = सम्पूर्ण उद्यमवाला कीजिए। ज्ञान और बल का सम्पादन करके ही मैं इस शरीररूप घर की रक्षा करनेवाला ‘गृहपति’ बनता हूँ। गृहपति ही ‘आसुरि’ होता है। प्राणों का वास्तविक पोषण करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — मैं ज्ञान व बल का विकास करके शरीर की सभी शक्तियों का विकास करूँ और सचमुच गृह-पति बनूँ।

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    विषय

    अब ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया जाता है ॥

    भाषार्थ

    हे (गृहपते) घर के रक्षक (अग्ने) परमात्मन् ! जो (प्रथम) यह उपदिश्यमान आप (गृहपतिः) घरों के पालक (गार्हपत्यः) घर के स्वामी से संयुक्त, (प्रजायाः) विद्यमान प्रजा के (वसुवित्तमः) द्रव्यों के प्रदाता (अग्निः) ईश्वर हो, इसलिये आप हमें (द्युम्नम् ) सुख प्रकाश युक्त धन (अभ्यायच्छस्व) सब ओर से दीजिये (सह) और बल भी (अभ्यायच्छस्व) मुख्यतया सब ओर से प्रदान कीजिये। यह मन्त्र का पहला अर्थ है ।।

      जिससे (गृहपतिः) घरों का पालक (प्रजायाः) विद्यमान प्रजा के लिये (वसुवित्तमः) सब द्रव्यों को प्रदान करने वाला (गार्हपत्यः) घर के स्वामी से संयुक्त यह (अग्निः) विद्युत् सूर्य वा ज्वालामय भौतिक अग्नि है, इसलिये वह [गृहपते] घरों का पालन करने वाला [अग्ने] अग्नि (अभिद्युम्नम्) सब ओर से सुख-प्रकाशयुक्त धन को (सहश्च) और जल को (अभ्यायच्छस्व) प्रधान तथा चहुँ ओर से विस्तृत करता है। यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ३ । ३९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है । गृहस्थ लोग जब ईश्वर की उपासना और इसकी आज्ञा में रहकर इस अग्नि को कार्य सिद्धि के लिये संयुक्त करते हैं तब अनेक प्रकार के धन और बल को यह अग्नि विस्तृत करता है।

    क्योंकि--प्रजा के मध्य में यह अग्नि पदार्थों की प्राप्ति के लिये सब से बड़ा साधक (करण) है ।। ३ । ३९ ।।

    प्रमाणार्थ

    (गार्हपत्यः) यह शब्द 'गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः' (अ० ४।४।९०) सूत्र से 'गृहपति' शब्द से 'ञ्य' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। (द्युम्नम्) 'द्युम्न' शब्द निघं॰ ( २।१० ) में धन-नामों में पढ़ा है (सहः) 'सहस' शब्द निघं० (१ । १२) में जल नामों में और निघं० (२।९ ) में बल-नामों में पढ़ा है। (आयच्छस्व) यहाँ पक्ष में व्यत्यय है इसकी सिद्धि पूर्व मन्त्र में दी हुई सिद्धि के समान समझें । इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ । ४ । १ ।९-११) में की गई है ॥ ३ ॥३९॥

    भाष्यसार

    १. अग्नि (ईश्वर)--यह अग्नि अर्थात् परमात्मा घरों का रक्षक, गृहपतियों के साथ संयुक्त रहने वाला, प्रजा को सब द्रव्य प्राप्त कराने वाला है। जो हमें सुखदायक धन और बल भी सब ओर से देता है। किन्तु इसके लिये ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा का पालन आवश्यक है ।।

    २. अग्नि (भौतिक)–यह भौतिक अग्नि घरों की रक्षा का हेतु है तथा प्रजा में द्रव्यों की प्राप्ति के लिये सब से बड़ा साधन है। यह गृहपतियों के साथ सदा संयुक्त रहने वाला है। यह विद्युत्, सूर्य और ज्वाला रूप है। यह सुखदायक धन और जल का भी विस्तारक है ॥ ३ । ३९ ।।

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    विषय

    गृहपति राजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( अयम् ) यह ( अग्निः ) हमारा अग्रणी, नेता, राजा, (गृहपति:) हमारे घरों का पालक होने से गृहस्वामी के समान और (गार्हपत्यः) गार्हपत्य अग्नि के समान समस्त गृहस्वामियों से संयुक्त है अथवा राष्ट्र- रूप गृह का स्वामी है । वह ( प्रजायाः ) समस्त प्रजा के ( वसुवित्तमः समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करने वालों में सब से श्रेष्ठ है । हे ( अग्ने ) अग्रणी ! ज्ञानवनू ! हे (गृहपते ) गृह के स्वामिन्! (द्युम्नम् सहः, अभि, आयच्छस्व ) तू बल और अन्न और धन ऐश्वर्य को सब प्रकार से नियत कर और हमें प्राप्त करा । राजा अन्य समस्त गृहस्थ प्रजा के संयुक्तशक्ति से स्थापित होकर स्वयं भी गृहस्थ रहे । वह भी सब के समान गृहस्थ, सब का स्वाभी, सब के लिये अन्न और धन का आयोजक हो । ईश्वर पक्ष में वह सबके गृहों का स्वामी, उपास्य है, वह भी महान् गृहपति है । वह सबको अन्न, बल दे । 

    टिप्पणी

     ३९ -- आसुरिरितिदया० । ० प्रजावान् वसुवित्तमः । इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आसुरिरादित्यश्च ऋषी । अग्निर्देवता । भुरिग् बृहती न्यकुंसारणी । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. गृहस्थ जेव्हा ईश्वराची उपासना करतात तेव्हा त्याच्या आज्ञेत राहून कार्य सिद्ध व्हावे यासाठी अग्नीचा प्रयोग करतात तेव्हा अग्नी अनेक प्रकाराने त्यांचे धन व बल वाढवितो. कारण या अग्नीमुळेच प्रजेला पदार्थाची प्राप्ती होते.

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्‍वर आणि भौतिक अग्नीविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (गृहपते) गृहाचे पालनकर्त्या, (अग्ने हे परमेश्‍वरा, (अयम्) हा तूच (गृहयतिः) स्थानविशेषांच्या पालनाचे कारण आहेना. (गार्हपत्यः) आपल्या घरांचे पालन करणार्‍या गृहस्थांशी संयुक्त होऊन (प्रजाया वसुवित्तमः) प्रजा, सन्ततीच्या पालनासाठी त्यांना सर्व प्रकारचे धन प्राप्त करून देणारा आहेस. कृपा करून आम्हास ही (द्युम्नम्) सुखदायक धन-संपत्तीचे (अभ्यायच्छरच) उत्तमप्रकारे दान दे. तसेच (सहः) उत्तम शक्ती आणि पराक्रमाची आम्हांस (अभ्यायच्छरच) प्राप्ती करून दे. ॥1॥^दुसरा अर्थ - हा (गृहपतिः) उत्तम स्थानांचा पालक (प्रजायाः) हा अग्नी पुत्र, मित्र, पत्नी आणि सेवक आदी प्रजाजनांसाठी (वसुक्तिमः) द्रव्यादी प्राप्त करून देणारा आहे (गार्हपत्यः) आपल्या घरांचे पालन-पोषण करणार्‍या गृहयतीच्या उपयोगात येणारा आहे. (अयम्) हाच (अग्ने) विद्युत, सूर्य व भौतिक अग्नी रूपाने प्रत्यक्ष आहे. यामुळे तो (गृहपते) गृहांचा पालनकर्ता आहे. असा तो (अग्ने) अग्नी आम्हांकरिता (अभिद्युम्नम्) सर्वात उत्तमोत्तम संपत्ती देणारा व (सह) उत्तम बळ देणारा होऊन आमची (अभ्यायच्छस्व) सर्वप्रकारे उन्नती व विस्तार करो ॥39॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे. गृहस्थाश्रमी जन जेव्हां ईश्‍वराची उपासना करीत व त्याच्या आज्ञेचे पालन करीत कार्यपूर्तीसाठी या अग्नीचा उपयोग करतात, तेव्हां हा अग्नी अनेक प्रकारच्या धनांची आणि शक्तीची उपलब्धी करून देतो. कारण की हा अग्नीच मनुष्यांकरिता पदार्थाच्या प्राप्तीमधे यश देणारा आहे. ॥39॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of our houses, O God, Thou art the best finder of riches for our children, Thou art the protector of our hearths, and the companion of the householders. Bestow splendour and strength on us.

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    Meaning

    This Agni that resides in the home with the inmates is the sustainer of the home and brings all kinds of wealth to the family. Agni, Lord of Light and Energy, bless us with honour and glory all round and bless us with enduring strength all round.

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    Translation

    This fire is the lord of the house. This is most useful for the household. This bestows wealth for the sake of progeny. O fire, lord of the house, bestow on us power and glory. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথেশ্বরভৌতিকাবগ্নী উপদিশ্যেতে ॥
    এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে ঈশ্বর ও ভৌতিকাগ্নির উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (গৃহপতে) গৃহপতি (অগ্নে) পরমেশ্বর ! যিনি (অয়ম্) এই (গৃহপতিঃ) স্থান বিশেষের পালন হেতু (গার্হপত্যঃ) গৃহপতিদের সহিত সংযুক্ত (প্রজয়া বসুবিত্তমঃ) প্রজার জন্য সর্ব প্রকার ধন প্রাপ্ত করান সুতরাং আপনি সেইকারণে (দ্যুম্নম্) সুখ ও প্রকাশযুক্ত ধনকে (অভ্যায়চ্ছস্ব) ভাল প্রকার প্রদান করুন । তথা (সহঃ) উত্তম বল পরাক্রম (অভ্যায়চ্ছস্ব) ভাল প্রকার প্রদান করুন ॥ ১ ॥ যে কারণে (গৃহপতিঃ) উত্তম স্থানের পালনের হেতু (প্রজায়াঃ) পুত্র, মিত্র, ভৃত্য, স্ত্রী ইত্যাদি প্রজাকে (বসুবিত্তমঃ) দ্রব্যাদি প্রাপ্ত করাইবার অথবা (গার্হপত্যঃ) গৃহপালনকারীদের সহিত সংযুক্ত (অয়ম্) এই (অগ্নে) বিদ্যুৎ, সূর্য্য বা প্রত্যক্ষরূপ অগ্নি ইহা দ্বারা সেই (গৃহপতে) গৃহপতি (অগ্নে) অগ্নি আমাদের জন্য (অভিদ্যুম্নম্) সব দিক দিয়া উত্তম-উত্তম ধন অথবা (সহঃ) উত্তম-উত্তম বলকে (অভ্যায়চ্ছস্ব) সর্ব প্রকারে বিস্তারযুক্ত করে ॥ ৩ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । গৃহস্থগণ যখন ঈশ্বরের উপাসনা এবং তাহার আজ্ঞায় প্রবৃত্ত হইয়া কার্য্যের সিদ্ধি হেতু এই অগ্নিকে সংযুক্ত করে তখন সেই অগ্নি অনেক প্রকার ধন ও বল বিস্তারযুক্ত করে । কেননা ইহা প্রজাদের মধ্যে পদার্থ প্রাপ্তি হেতু অত্যন্ত সিদ্ধিদায়ক ॥ ৩ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ম॒গ্নিগৃর্হপ॒॑তি॒র্গার্হ॑পত্যঃ প্র॒জায়া॑ বসু॒বিত্ত॑মঃ ।
    অগ্নে॑ গৃহপতে॒ऽভি দ্যু॒ম্নম॒ভি সহ॒ऽআ য়॑চ্ছস্ব ॥ ৩ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়মগ্নিরিত্যস্যাসুরির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগ্বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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