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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - सुबन्धुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    2

    अग्ने॒ त्वं नो॒ऽअन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रू॒थ्यः᳖। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑श्रवा॒ इति॒ वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मत्त॑म॒मिति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वन्नोऽअन्तमऽउत त्राता शिवो भवा वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छानक्षि द्युमत्तमँ रयिं दाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। नः। अन्तमः। उत। त्राता। शिवः। भव। वरूथ्यः। वसुः। अग्निः। वसुश्रवा इति वसुऽश्रवाः। अच्छ। नक्षि। द्युमत्तममिति द्युमत्ऽतमम्। रयिम्। दाः॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! यस्त्वं वसुश्रवा वसुरग्निर्नक्षि सर्वत्र व्याप्तोऽसि, स त्वं नोऽस्माकमन्तमस्त्राता वरूथ्यः शिवो भव उतापि नोऽस्मभ्यं द्युमत्तमं रयिमच्छ दाः सम्यग्देहि॥२५॥

    पदार्थः

    (अग्ने) सर्वाभिरक्षकेश्वर (त्वम्) करुणामयः (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (अन्तमः) य आत्मान्तःस्थोऽनिति जीवयति सोऽतिशयितः। स उ प्राणस्य प्राणः॥ केनोपनिषत्॥ खं॰१।मं॰२॥ अनेनात्मान्तःस्थोऽन्तर्यामी गृह्यते (उत) अपि (त्राता) रक्षकः (शिवः) मङ्गलमयो मङ्गलकारी (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (वरूथ्यः) यो वरूथेषु श्रेष्ठेषु गुणकर्म्मस्वभावेषु भवः (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति सः (अग्निः) विज्ञानप्रकाशमयः (वसुश्रवाः) वसूनि सर्वाणि श्रवांसि श्रवणानि यस्य सः (अच्छ) श्रेष्ठार्थे निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (नक्षि) सर्वत्र व्याप्तोऽसि। अत्र णक्ष गतावित्यस्माल्लटि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति शपो लुक्। (द्युमत्तमम्) द्यौः प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिंस्तदतिशयितस्तम् (रयिम्) विद्याचक्रवर्त्यादिधनसमूहम् (दाः) देहि। अत्र लोडर्थे लुङ् बहुलं छन्दस्यामाङ्॰ [अष्टा॰६.४.७५] अनेनाडभावश्च। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.३१) व्याख्यातः॥२५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरित्थं वेदितव्यं परमेश्वरं विहाय नोऽस्माकं कश्चिदन्यो रक्षको नास्तीति, कुतस्तस्य सर्वशक्तिमत्त्वेन सर्वत्राभिव्यापकत्वादिति॥२५॥

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    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे अग्ने! सर्वाभिरक्षकेश्वर ! यस्त्वं करुणामयः वसुश्रवाः वसूनि=सर्वाणि श्रवांसि श्रवणानि यस्य स वसुः वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् वा सर्वेषु भूतेषु वसति सः अग्निः विज्ञानप्रकाशमयः नक्षि=सर्वत्र व्याप्तोऽसि स त्वं नः=अस्माकम् अस्माकमस्मभ्यं वा अन्तमः य आत्मान्तःस्थोऽनिति=जीवयति सोतिशयितः त्राता रक्षकः वरूथ्यः यो वरूथेषु=श्रेष्ठेषु गुणकर्मस्वभावेषु भवः शिवो मङ्गलमयो मङ्गलकारी भव

     उत=अपि=नः=अस्मभ्यं द्युमत्तमं  द्यौः=प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तदतिशयितस्तं रयिं विद्याचक्रवर्त्यादिधनसमूहं अच्छ (श्रेष्ठम्) दाः=सम्यग्देहि ।।३ ।२५ ।।

    [ हे अग्ने.....त्वं नः=अस्माकम्......त्राता.....भव ]

    पदार्थः

    (अग्ने) सर्वाभिरक्षकेश्वर (त्यम्) करुणामयः (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (अन्तमः) य आत्मान्तःस्थोऽनिति-जीवयति सोतिशयितः । स उ प्राणस्य प्राणः ॥ केनोपनिषत् ।खं० १ । मं० २ ॥ अनेनात्मान्तःस्थोऽन्तर्यामी गृह्यते (उत) अपि ( त्राता) रक्षक: (शिवः) मङ्गलमयो मङ्गलकारी (भवा) अत्र द्व्यचोतस्तिङ इति दीर्घः (वरूथ्यः) यो वरुथेषु=श्रेष्ठेषु गुणकर्मस्वभावेषु भवः (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति सः (अग्निः) विज्ञानप्रकाशमयः (वसुश्रवाः) वसूनि=सर्वाणि श्रवांसि श्रवणानि यस्य सः (अच्छ) श्रेष्ठार्थे। निपातस्य चेति दीर्घः (नक्षि) सर्वत्र व्याप्तोऽसि । अत्र णक्ष गतावित्यस्माल्लटि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसीति शपी लुक् (द्युमत्तमम्) द्यौः=प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तदतिशयितस्तम् (रयिम्) विद्याचक्रवर्त्यादिधनसमूहम् (दाः) देहि । अत्र लोडर्थे लुङ् बहुलं छन्दस्य माङ्॰ । अनेनाडभावश्च ॥ अयं मंत्रः श० २ ।३ ।४ ।३१ व्याख्यातः ॥ २५ ॥

    भावार्थः

    भावार्थ:-मनुष्यैरित्थं वेदितव्यं--परमेश्वरं विहाय नोऽस्माकं कश्चिदन्यो रक्षको नास्तीति, कुतस्तस्य सर्वशक्तिमत्त्वेन सर्वत्राभिव्यापकत्वादिति ॥ ३ ।२५ ।।

    विशेषः

    सुबंधुर्ऋषिः । अग्निः=ईश्वरः । भुरिग्बृहती। मध्यमः ।।

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    हिन्दी (6)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सब की रक्षा करने वाले जगदीश्वर! जो (त्वम्) आप (वसुश्रवाः) सब को सुनने के लिये श्रेष्ठ कानों को देने (वसुः) सब प्राणी जिसमें वास करते हैं वा सब प्राणियों के बीच में बसने हारे और (अग्निः) विज्ञानप्रकाशयुक्त (नक्षि) सब जगह व्याप्त अर्थात् रहने वाले हैं, सो आप (नः) हम लोगों के (अन्तमः) अन्तर्यामी वा जीवन के हेतु (त्राता) रक्षा करने वाले (वरूथ्यः) श्रेष्ठ गुण, कर्म और स्वभाव में होने (शिवः) तथा मङ्गलमय मङ्गल करने वाले (भव) हूजिये और (उत) भी (नः) हम लोगों के लिये (द्युमत्तमम्) उत्तम प्रकाशों से युक्त (रयिम्) विद्याचक्रवर्ति आदि धनों को (अच्छ दाः) अच्छे प्रकार दीजिये॥२५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि परमेश्वर को छोड़कर और हमारी रक्षा करने वा सब सुखों के साधनों का देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि वही अपने सामर्थ्य से सब जगह परिपूर्ण हो रहा है॥२५॥

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    विषय

    सुबन्धु-स्तवन

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में प्रभु को पिता के रूप में स्मरण किया था। उसी को अब उत्तम बन्धु के रूप में स्मरण करते हैं। प्रभु को इस रूप में स्मरण करने के कारण ही मन्त्र का ऋषि ‘सु-बन्धु’ है = उत्तम बन्धुवाला। हम जैसों को बन्धु बनाते हैं वैसे ही बन जाते हैं, अतः सुबन्धु तो प्रभु के बन्धुत्व में ही रहने का प्रयत्न करता है। 

    २. यह प्रभु का स्तवन इस रूप में करता है— ( अग्ने ) = हे प्रकाशमय प्रभो! अथवा मेरी सम्पूर्ण उन्नतियों के साधक प्रभो! ( त्वम् ) = आप ( नः ) = हमारे ( अन्तमः ) = अन्तिकतम मित्र हैं Intimate friend हैं। अथवा अनिति जीवयति अतिशयेन = आप ही मेरे प्राण हैं—जीवन हैं। 

    २. ( उत ) = और, अन्तिकतम व प्राणप्रद बन्धु के रूप में आप मेरे ( त्राता ) = रक्षक हैं। आपकी कृपा से ही मैं काम-क्रोधादि शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित रहता हूँ। 

    ३. ( शिवः ) = कामादि शत्रुओं से सुरक्षित करके आप मेरा कल्याण करते हैं। 

    ४. आप ( वरूथ्यः भव ) = मेरे लिए उत्तम आवरण होओ, [ वृ = संवरण ]। वस्तुतः आप ही मेरे अमृतरूप उपस्तरण व अपिधान हैं। अथवा वरूथ = Wealth  धन, आप ही हमारे उत्तम धन हैं, हमें उत्तम धन देनेवाले हैं। 

    ५. ( वसुः ) = इस उत्तम धन के द्वारा आप हमें उत्तम निवास देनेवाले हैं ‘वासयतीति वसुः’। 

    ६. ( अग्निः ) = उत्तम निवास देकर हमें आगे ले-चलनेवाले हैं। 

    ७. ( वसुश्रवाः ) = आप निवासक ज्ञान देनेवाले हैं। 

    ८. ( अच्छा नक्षि ) = हे प्रभो! आप हमें आभिमुख्येन प्राप्त होओ [ अच्छ = ओर, नक्ष् गतौ ], और ९. ( द्युमत्तमम् ) = अधिक- से-अधिक ज्योतिवाला ( रयिम् ) = धन ( दाः ) = दीजिए। मुझे धन प्राप्त हो, परन्तु धन पाकर मैं प्रमत्त न हो जाऊँ। धन मेरी ज्योति के वर्धन का कारण बने नकि ह्रास का।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम प्रभु को अपना बन्धु बनाकर वासनाओं को तैर जाएँ और प्रकाशमय धन को प्राप्त होनेवाले हों।

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    विषय

    फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (ग्ने) सबके रक्षक ईश्वर ! जो (त्वम्) आप करुणामय (वसुश्रवाः) सब सुनने वाले (वसुः) सब भूत जिसमें रहते हैं वा सब भूतों में जो रहता है ऐसे आप (अग्निः) विज्ञान प्रकाशमय (नक्षि) सर्वत्र व्यापक हो, वह (त्वम्) आप (नः) हमारे (अन्तम) अन्तर्यामी रूप से आत्मा एवं अन्तःकरण में स्थित होकर अत्यन्त जीवन देने वाले (त्राता) रक्षक (वरूथ्यः) श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव वाले (शिव:) मङ्गलमय एवं मङ्गलकारक (भव) हो ।

    (उत) और आप (नः) हमारे लिये (द्युमत्तमम्) अत्यन्त प्रशस्त प्रकाश वाले (रयिम्) विद्या तथा चक्रवर्ती राज्य आदि धनों को (अच्छ) अच्छे प्रकार से (दाः) प्रदान कीजिये ।। ३ । २५ ।।

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि परमेश्वर को छोड़कर हमारा और कोई रक्षक नहीं है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् होने से सर्वत्र व्यापक है ।। ३ । २५ ।।

    प्रमाणार्थ

     (अन्तमः) 'अन्तम' शब्द का अर्थ जीवन देने वाला है। क्योंकि केनोपनिषद् ( खं० १ । मं० २) में परमात्मा को प्राणों का भी प्राण कहा है। इस प्रमाण से अन्तर्यामी अर्थ गृहीत होता है। (भवा) भव । यहाँ 'द्व्यचोऽतस्तिङ:' [अ० ६ । ३ । १३५] सूत्र से दीर्घ है। (अच्छा) अच्छ । यहाँ 'निपातस्यश्च' ( अ॰ ६।३। १३६) सूत्र से दीर्घ है। (नक्षि) यह गति अर्थ वाली 'णक्ष' धातु के लट्कार मध्यम पुरुष के एकवचन का रूप है। 'बहुलं छन्दसि' [अ० २। ४ ।  ६३] सूत्र से 'शप्' का लुक् है । (दाः) यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार है। 'बहुलं छन्दस्यमाङ्॰ [अ० ६ । ४ । ७५] अट् का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ३ । ४ । ३१) में की गई है ।। ३ । २५ ।।

    भाष्यसार

    अग्नि (ईश्वर) कैसा है-- अग्नि अर्थात् ईश्वर सबका रक्षक, करुणामय, सब सुनने वाला, सब भूत इसमें निवास करते हैं, अथवा यह सब भूतों में निवास करता है, विज्ञानप्रकाशमय, सर्वव्यापक, आत्मा और अन्तःकरण में स्थित होकर जीवित रखने वाला, रक्षक, श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाला, मङ्गलमय, मङ्गलकारी, प्रशस्त प्रकाश वाला, विद्या और चक्रवर्ती राज्य आदि धन का दाता है। क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् होने से सर्वव्यापक है ।। ३ । २५ ।।

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    पदार्थ

    पदार्थ = हे  ( अग्ने ) = स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश! ( त्वम् नः ) = आप हमारे  ( अन्तमः ) = अत्यन्त समीप स्थित हैं, ( उत वरूथ्य: ) = और वरणीय और सेवनीय आप ही हैं। ( त्राता ) = आप हमारे रक्षक  ( शिवः भव ) = सुखदायक होओ  ( वसुः ) = सब में वास करनेवाले  ( अग्नि: ) = सबके अग्रणीय नेता  ( वसुश्रवाः ) = धन ऐश्वर्य के स्वामी होने से महायशस्वी  ( अच्छा नक्षि ) = हमें भली प्रकार प्राप्त होओ  ( द्युमत्तमम् ) = हमें उज्ज्वल  ( रयिम् दा: ) = धन विभूति प्रदान करें।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परमात्मन्! आप सर्वत्र व्यापक होने से सबके अति  निकट हुए, सबके गुण-कर्म-स्वभाव को जान रहे हो। किसी की कोई बात भी आपसे छिपी नहीं। इसलिए हम पर दया करो कि हम आपको सर्वान्तर्यामी जानकर सब दुर्गुण दुर्व्यसन और सब प्रकार के पापों से रहित हुए आपके सच्चे प्रेमी भक्त बनें। भगवन्! आप ही भजनीय, सेवनीय, सबके नेता सब में वास करनेवाले, सारी विभूति के स्वामी, अपने प्यारे पुत्रों को उत्तम से उत्तम धन के दाता और उनके कल्याण के कर्ता हो । भगवन् ! हमें भी उत्तम से उत्तम धन प्रदान करें और हमें अच्छे प्रकार से प्राप्त होकर, लोक परलोक में हमारा कल्याण करें। हम आपकी ही शरण में आये हैं ।

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    विषय

    राजा प्रजा का रक्षक होने का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! अग्रणी राजन् ! ( त्वं नः अन्तमः ) तू हमारे सबसे निकट ( उत) और (त्राता ) रक्षक ( शिवः ) सुखकारी और ( वरूथ्य ) हमारे गृहों के लिये हितकारी बरुध = सेना का पति है। तू ( अग्निः ) सबका नेता होकर भी ( वसुः ) सबको बसाने वाला और ( वसुश्रवाः ) धन ऐश्वर्य के कारण महान् कीर्ति से सम्पन्न है । ( अच्छ नक्षि ) हमें भली प्रकार उत्तम रूप में प्राप्त हो और हमें ( द्युमत्तमम् ) अति उज्ज्वल, ( रयिम्) धन ऐश्वर्य ( दाः ) प्रदान कर ॥ 
    ईश्वर पक्ष में- हे परमेश्वर तू हमारे ( अन्तमः ) निकटतम या प्राण- दाताओं में सबसे श्रेष्ठ है । दाता, कल्याणकर, सर्व गुणवान् है । तू ( वसुः ) सर्वत्र बसने वाला, सबको बसाने वाला सर्वत्र व्यापक है । तू हमें सर्वोत्तम उज्ज्वल ऐश्वर्य दे ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    [२५ -२८] बन्ध्वादयश्चत्वा-ऋषयः, अग्निदेवता । भुरिग् बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    प्रभो ! हृदय में बस जाओ

    शब्दार्थ

    (अग्ने) हे सर्वोन्नति-साधक प्रभो ! (त्वं नः अन्तमः) तू हमारे अत्यन्त निकट है (उत) इसलिए तू हमारा (त्राता) रक्षक बन । हमारे लिए (शिव:) कल्याणकारी और (वरूथ्य:) वरण करने योग्य (भव) बन । प्रभो ! आप (वसुः ) समस्त लोकों को बसानेवाले (अग्नि:) सर्वत्रव्यापक और (वसुश्रवाः) चराचर के आश्रय हो । (अच्छ नक्षि) हममें प्रविष्ट हो जाओ, हमें प्राप्त हो जाओ और हमें ( द्युमत्तमम् ) अतिशय प्रकाशयुक्त (रयिम् ) ज्ञान और सदाचार-रूपी धन (दा:) प्रदान करो ।

    भावार्थ

    ईश्वर हमारे अत्यन्त निकट है । वह हमारी हृदय-गुहा में विराजमान है । जो जितना निकट होगा, वह उतना ही अधिक हमारी सहायता कर सकेगा । ईश्वर सदा सर्वदा हमारे अङ्ग-सङ्ग है, अतः वह हमारा रक्षक है । वह हमारा कल्याणकर्ता है । वही हमारे लिए वरणीय है । वह प्रभु सबको बसानेवाला है, सबको वस् = चमकानेवाला है । वह सर्वत्र व्यापक है । सारा संसार उसीके आश्रित है । भक्त प्रभु के इस दिव्यरूप को समझकर प्रार्थना करता है— प्रभो ! आप मेरे हृदय मन्दिर में दर्शन दें । आप मुझे ज्ञान और सदाचार रूप धन देकर मेरे जीवन को द्योतित करें, मेरे जीवन को चमका दें ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, परमेश्वराशिवाय आपले रक्षण करणारा किंवा सर्व सुखाची साधने देणारा कोणी नाही. कारण तोच आपल्या सामर्थ्याने सर्व ठिकाणी पूर्णपणे व्याप्त व परिपूर्ण आहे.

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    विषय

    तो परमेश्‍वर कसा आहे, या विषयीचा उपदेश पुढील मंत्रात केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) सर्वरक्षक जगदीश्‍वरा, (त्वम्) तुच (वसुश्रवा:) ऐकण्याकरिता सर्वांना चांगले कान (श्रवणशक्ती) देतोस. (वसु:) तुझ्यातच सर्व प्राणी निवास करतात, तूच सर्वांतयामी आहेस. (अग्नी:) तूच विज्ञानयुक्त आणि (नक्षि) सर्वत्र व्यापक, सर्वत्र राहणारा, विचरणारा आहेस. तू कृपा करून (न:)(अंतम:) अंतर्यामी मी राहून व आमच्या जीवनाचे कारण होऊन (त्राता) आमचा रक्षक हो, तसेच. (वरूथ्य:) तूच आम्हांस उत्तम गुण, कर्म आणि स्वभाव देणारा हो (शिव:) आमचे कल्याण करणारा (भव) हो. (उत) आणि असे मी तूच (न:) आम्हांस (घुत्तमम्) दीप्तीमान (रयिम्) विद्या, चक्रवर्तीराज्य आदी धन (अच्छदा:) उत्तम प्रकारे दे. ॥25॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व मनुष्यांनी हे जाणावे/जाणून घ्वावे की आपला रक्षक सर्वसुखदाता केवळ एक परमेश्‍वरच आहे, अन्य कोणी नाही. कारण की एक परमेश्‍वरच आहे की जो आपल्या सत्ता सामर्थ्याने सर्वस्थानी परिपूर्ण असून सर्वव्यापी आहे.।25॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh God, Thou art the Bestower on us of ears to hear goodness, the Shelter of mankind, the Embodiment of the lustre of knowledge, and real Omnipresence. Thou pervadest our soul. Thou art our Protector, Our Benefactor, and possessest excellent nature, attributes and deeds. Give us wealth most splendidly renowned.

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    Meaning

    Agni, life of our life, saviour, kind and gracious, be an intimate friend and giver of goodness. Vast abode of all, brilliant and all-percipient, bless us richly with the brightest wealth and knowledge of the world.

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    Translation

    О adorable Lord, be our nearest friend, a protector, benefactor and a gracious friend. O adorable Lord, giver of dwellings and dispenser of food, be near us and bestow upon us wealth, splendidly renowned. (1)

    Notes

    Antamah, निकटतम, nearest; closest. Vasusravah, splendidly renowned.

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনঃ স কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সে কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) সকলের রক্ষক পরমেশ্বর ! (ত্বম্) আপনি (বসুশ্রবাঃ) সকলকে শুনিবার জন্য শ্রেষ্ঠ কর্ণ দিয়াছেন (বসুঃ) সকল প্রাণী যাহার মধ্যে বাস করে অথবা সকল প্রাণিদিগের মধ্যে বসবাসকারী এবং (অগ্নিঃ) বিজ্ঞান প্রকাশযুক্ত (নক্ষি) সকল স্থানে ব্যাপ্ত অর্থাৎ নিবাসকারী সুতরাং আপনি (নঃ) আমাদিগের জন্য (অন্তমঃ) অন্তর্য্যামী বা জীবনের হেতু (ত্রাতা) রক্ষাকারী, (বরূথ্যঃ) শ্রেষ্ঠ গুণ, কর্ম ও স্বভাব যুক্ত (শিবঃ) তথা মঙ্গলময় মঙ্গলকারী (ভব) হউন, আর (উত)(নঃ) আমাদিগের জন্য (দ্যুমত্তমম্) উত্তম প্রকাশ দ্বারা যুক্ত (রয়িম্) বিদ্যাচক্রবর্ত্তি ইত্যাদি ধন সকলকে (অচ্ছ দাঃ) ভাল প্রকার প্রদান করুন ॥ ২৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে এমন জানা উচিত যে, পরমেশ্বর কে ত্যাগ করিয়া আমাদিগের রক্ষাকারী অথবা সকল সুখের সাধন প্রদানকারী অন্য কেহ নহেন কেননা তিনিই নিজ সামর্থ্যবলে সর্বত্র পরিপূর্ণ হইতেছেন ॥ ২৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ ত্বং নো॒ऽঅন্ত॑মऽউ॒ত ত্রা॒তা শি॒বো ভ॑বা বরূ॒থ্যঃ᳖ ।
    বসু॑র॒গ্নির্বসু॑শ্রবা॒ऽঅচ্ছা॑ নক্ষি দ্যু॒মত্ত॑মꣳ র॒য়িং দাঃ॑ ॥ ২৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে ত্বমিত্যস্য সুবন্ধুর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগ্বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    অগ্নে ত্বং নোঅন্তমউত ত্রাতা শিবো ভবা বরূথ্যঃ ।

    বসুরগ্নির্বসুশ্রবা অচ্ছা নক্ষি দ্যুমত্তমংরয়িং দাঃ ।।৫২।।

    (যজু ৩।২৫)

    পদার্থঃ হে (অগ্নে) স্বপ্রকাশস্বরূপ জগদীশ! (ত্বম্ নঃ) তুমি আমাদের (অন্তমঃ) অত্যন্ত নিকটে স্থিত, (উত বরূথ্যঃ) এবং তুমিই বরণীয় এবং সেবনীয়। (ত্রাতা) তুমিই আমাদের রক্ষক (শিবঃ ভব) সুখদায়ক হও। (বসুঃ) সকলের মধ্যে বাসকারী, (অগ্নিঃ) সকলের অগ্রণীয় নেতা, (বসুশ্রবাঃ) ধন ঐশ্বর্যের স্বামী, (অচ্ছা নক্ষি) ভালোভাবে আমাদের প্রাপ্ত হোক, (দ্যুমত্তমম্) আমাদেরকে উজ্জ্বল (রয়িম্ দাঃ) ধন বিভূতি প্রদান করো।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমাত্মন! তুমি সর্বত্র ব্যাপক হওয়ায় সবার অতি নিকটে থেকে সবার গুণ, কর্ম, স্বভাবসমূহ সম্পর্কে জেনে থাক। কারো কোনোকিছুই তোমার নিকট অজানা নয়। এইজন্য আমাদেরকে দয়া করো, আমরা যেন তোমাকে সর্বান্তর্যামী জেনে সকল দুর্গুণ দুর্ব্যসন এবং সকল প্রকার পাপ থেকে দূরে থেকে তোমার প্রকৃত ভক্ত হতে পারি। হে ভগবান! তুমিই ভজনীয়, সেবনীয়, সকলের নেতা, সকলের মধ্যে বাসকারী, সকল বিভূতির অধিপতি, নিজ প্রিয় পুত্র ও পুত্রীগণকে উত্তম হতে উত্তমতর ধনপ্রদাতা এবং কল্যাণের কর্তা। হে ভগবান! আমাদেরকে উত্তম থেকে উত্তমতর ধন প্রদান করো এবং আমাদের লভ্য হয়ে এইজন্ম এবং পরজন্মে আমাদের কল্যাণ করো, আমরা তোমার শরণাগত।।৫২।।

     

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