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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 49
    ऋषिः - और्णवाभ ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    पू॒र्णा द॑र्वि॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒ पुन॒राप॑त। व॒स्नेव॒ वि॒क्री॑णावहा॒ऽइ॒षमूर्ज॑ꣳ शतक्रतो॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्णा। द॒र्वि॒। परा॑। प॒त॒। सुपू॒र्णेति॒ सुऽपूर्णा। पुनः॑। आ। प॒त॒। वस्नेवेति॑ व॒स्नाऽइ॑व। वि। क्री॒णा॒व॒है॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ऽइति॑ शतऽक्रतो ॥४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरा पत । वस्नेव वि क्रीणावहा इषमूर्जँ शतक्रतो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्णा। दर्वि। परा। पत। सुपूर्णेति सुऽपूर्णा। पुनः। आ। पत। वस्नेवेति वस्नाऽइव। वि। क्रीणावहै। इषम्। ऊर्जम्। शतक्रतोऽइति शतऽक्रतो॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    यज्ञे हुतं द्रव्यं कीदृशं भवतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    या दर्वि होतव्यद्रव्येण पूर्णा होमसाधिका भूत्वा परापत पतत्यूर्ध्वं द्रव्यं गमयति, याऽऽहुतिराकाशं गत्वा वृष्ट्या पूर्णा भूत्वा पुनरापतति समन्तात् पृथिवीं शोभनं जलरसं गमयति, तया हे शतक्रतो तव कृपया आवामृत्विग्यज्ञपती वस्नेवेषमूर्जं च विक्रीणावहै॥४९॥

    पदार्थः

    (पूर्णा) होतव्यद्रव्येण परिपूर्णा (दर्वि) पाकसाधिका होतव्यद्रव्यग्रहणार्था। अत्र सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इति सुलोपः। (परा) ऊर्ध्वार्थे। परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु॰१.३) (पत) पतति गच्छति। अत्रोभयत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सुपूर्णा) या सुष्ठु पूर्यते सा (पुनः) पश्चादर्थे (आ) समन्तात् (पत) पतति गच्छति (वस्नेव) पण्यक्रियेव (वि) विशेषार्थे क्रियायोगे (क्रीणावहै) व्यवहारयोग्यानि वस्तूनि दद्याव गृह्णीयाव वा (इषम्) अभीष्टमन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (शतक्रतो) शतमसंख्याताः क्रतवः कर्माणि प्रज्ञा यस्येश्वरस्य तत्सम्बुद्धौ। अयं मन्त्रः (शत॰२.५.३.१५-१७) व्याख्यातः॥४९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यन्मनुष्यैः सुगन्ध्यादिद्रव्यमग्नौ हूयते तदूर्ध्वं गत्वा वायुवृष्टिजलादिकं शोधयत् पुनः पृथिवीमागच्छति, येन यवादय ओषध्यः शुद्धाः सुखपराक्रमप्रदा जायन्ते। यथा वणिग्जनो रूप्यादिकं दत्त्वा गृहीत्वा द्रव्यान्तराणि क्रीणीते विक्रीणीते च, तथैवाग्नौ द्रव्याणि दत्त्वा प्रक्षिप्य वृष्टिसुखादिकं क्रीणीते वृष्ट्योषध्यादिकं गृहीत्वा पुनर्वृष्टये विक्रीणीतेऽग्नौ होमः क्रियत इति॥४९॥

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    विषयः

    यज्ञे हुतं द्रव्यं कोदृशं भवतीत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    या दर्वि पाकसाधिका होतव्यद्रव्यग्रहणार्था [पूर्णा]=होतव्यद्रव्येण पूर्णा परिपूर्णा होमसाधिका भूत्वा परापत=पतत्यूर्ध्वं द्रव्यं गमयति ऊर्ध्वं पतति=गच्छति;याऽऽहुतिराकाशं गत्वा वृष्ट्या [सुपूर्णा]=पूर्णा या सुष्ठु पूर्यते सा भूत्वा पुनः पश्चात् [आपत]=आपतति=समन्तात्=पृथिवीं शोभनं जलरसं गमयति,समन्तात् पतति=गच्छति,

    तया हे शतक्रतो! शतमसंख्याताः क्रतवः=कर्माणि, प्रज्ञा यस्येश्वरस्य तत्सम्बुद्धौ ! तव कृपया आवामृत्विग्यज्ञपती वस्नेव पण्यक्रियेव इषम् अभीष्टमन्नम् ऊर्जं पराक्रमं च विक्रीणावहै विशेषेण व्यवहारयोग्यानि वस्तूनि दद्याव, गृह्णीयाव वा ।। ३ । ४९ ।।

    [या दर्विं [पूर्णां]=होतव्यद्रव्येण पूर्णां होमसाधिका भूत्वा परापत=गत्वा वृष्ट्या [सुपूर्णा]=पूर्णां भूत्वा पुनः [आपत] आपतति=समन्तात्पृथिवीं शोभनं जलरसं गमयति]

    पदार्थः

    (पूर्णा) होतव्यद्रव्येण परिपूर्णा (दर्वि) पाकसाधिका होतव्यद्रव्यग्रहणार्था । अत्र सुपां सुलुगिति सुलोपः (परा) ऊर्ध्वार्थे । परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह ॥ निरु० १ ।३ ॥ (पत) पतति=गच्छति । अत्रोभयत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (सुपूर्णा) या सुष्ठु पूर्यते सा (पुनः) पश्चादर्थे (आ) समन्तात् (पत) पतति=गच्छति (वस्तेव) पण्यक्रियेव (वि) विशेषार्थे क्रियायोगे (क्रीणावहै) व्यवहारयोग्यानि वस्तूनि दद्याव गृह्णीयाव वा (इषम्) अभीष्टमन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (शतक्रतो) शतमसंख्याताः क्रतवः=कर्माणि, प्रज्ञा यस्येश्वरस्य तत्सम्बुद्धौ ॥ अयं मंत्रः शत० २ ।५ ।३ ।१५--१७ व्याख्यातः ॥ ४९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यन्मनुष्यैः सुगन्ध्यादिद्रव्यमग्नौ हूयते तदूर्ध्वं गत्वा वायुवृष्टि जलादिकं शोधयत् पुनः पृथिवीमागच्छति, येन यवादय ओषध्यः शुद्धाः सुखपराक्रमप्रदा जायन्ते ।

    [हे शतक्रतो ! तव कृपया आवाभृत्विग्यज्ञपती  वस्नेवेषमूर्जं च विक्रीणावहै]

    यथा वणिग्जनो रूप्यादिकं दत्त्वा गृहीत्वा द्रव्यान्तराणि क्रीणीते, विक्रीणीते च तथैवाग्नौ द्रव्याणि दत्त्वा, प्रक्षिप्य वृष्टिसुखादिकं क्रीणीते, वृष्ट्योषध्यादिकं गृहीत्वा पुनर्वृष्टये विक्रीणीतेऽग्नौ होमः क्रियत इति ।। ३ ।। ४९ ।।

    विशेषः

    और्णवाभः । यज्ञः=स्पष्टम् । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    यज्ञ में हवन किया हुआ पदार्थ कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो (दर्वि) पके हुए होम करने योग्य पदार्थों को ग्रहण करने वाली (पूर्णा) द्रव्यों से पूर्ण हुई आहुति (परापत) होम हुए पदार्थों के अंशों को ऊपर प्राप्त करती वा जो आहुति आकाश में जाकर वृष्टि से (सुपूर्णा) पूर्ण हुई (पुनरापत) फिर अच्छे प्रकार पृथिवी में उत्तम जलरस को प्राप्त करती है, उससे हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म वा प्रज्ञा वाले जगदीश्वर! आप की कृपा से हम यज्ञ कराने और करने वाले विद्वान् होता और यजमान दोनों (इषम्) उत्तम-उत्तम अन्नादि पदार्थ (ऊर्जम्) पराक्रमयुक्त वस्तुओं को (वस्नेव) वैश्यौं के समान (विक्रीणावहै) दें वा ग्रहण करें॥४९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब मनुष्य लोग सुगन्ध्यादि पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, तब वे ऊपर जाकर वायु वृष्टि-जल को शुद्ध करते हुए पृथिवी को आते हैं, जिससे यव आदि ओषधि शुद्ध होकर सुख और पराक्रम के देने वाली होती हैं। जैसे कोई वैश्य लोग रुपया आदि को दे-ले कर अनेक प्रकार के अन्नादि पदार्थों को खरीदते वा बेचते हैं, वैसे हम सब लोग भी अग्नि में शुद्ध द्रव्यों को छोड़कर वर्षा वा अनेक सुखों को खरीदते हैं, खरीदकर फिर वृष्टि और सुखों के लिये अग्नि में हवन करते हैं॥४९॥

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    विषय

    पूर्णा-सुपूर्णा

    पदार्थ

    गत मन्त्र की भावना के अनुसार ‘और्णवाभ’ अपने जीवन में यज्ञों का जाल तन देता है। उन यज्ञों में उसे लाभ-ही-लाभ दिखता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी ये यज्ञ घाटे का सौदा नहीं होते। यह और्णवाभ कहता है कि १. हे ( दर्वि ) = हवि से पूर्ण कड़छी! तू ( पूर्णा ) = भरी हुई ( परापत ) = इन्द्र के प्रति जा। मनु के शब्दों के अनुसार अग्नि में डाली हुई आहुति [ अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ] सूर्य = [ इन्द्र ] तक पहुँचती है। अग्नि में डाला हुआ यह हविर्द्रव्य नष्ट नहीं होता, क्योंकि यज्ञाद् भवति पर्जन्यः, पर्जन्यादन्नसम्भवः इन यज्ञों से बादल बनते हैं और बादल से फिर अन्न उत्पन्न होता है। इस प्रकार हे कड़छी! तू ( सुपूर्णा ) = अन्नादि से खूब भरी हुई ( पुनः आपत ) = फिर से हमें प्राप्त होजा। वर्षा होती है, तो किसान भी समझता है और कहता है कि पानी नहीं, सोना बरस रहा है। एवं, कड़छी जाती तो ‘पूर्णा’ है, पर लौटती है ‘सु-पूर्णा’। एवं ये यज्ञ घाटे की वस्तु थोड़े ही हैं ? 

    २. इन यज्ञों से तो हम उस प्रभु के साथ ( वस्ना इव ) = मानों मूल्य देकर ( इषम् ऊर्जम् ) = अन्न व बल—प्राणशक्ति का ( विक्रीणावहै ) = क्रय-विक्रय करते हैं। 

    ३. हे ( शतक्रतो ) = अनन्त क्रतुओंवाले प्रभो! मैं भी आपकी कृपा से शतक्रतु बनूँ। मेरे जीवन के सौ-के-सौ वर्ष यज्ञमय बीतें।

    भावार्थ

    भावार्थ — ‘यज्ञ’ हमारे जीवन का सर्वोत्तम क्रय-विक्रय है।

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    विषय

    यज्ञ में हवन किया हुआ पदार्थ कैसा होता है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    जो (दर्वि) पाक को सिद्ध करने वाली एवं होम योग्य द्रव्य को ग्रहण करने वाली चमसी है वह (पूर्णा) होम योग्य घृत आदि द्रव्य से भरी हुई, होम की साधक होकर (परणित) ऊपर जाती है अर्थात् द्रव्य को ऊपर पहुँचाती है जो आहुति काश में जाकर वर्षा से (सुपूर्णा) अच्छे प्रकार परिपूर्ण होकर (पुनः) फिर (आपत) चहुँ ओर से पृथिवी को उत्तम जल रस पहुँचाती है।

      उससे हे (शतक्रतो) असंख्य कर्म और प्रज्ञा वाले ईश्वर ! आपकी कृपा से हम दोनों ऋत्विक् के और यजमान (वस्नेव) लेने देने के व्यवहार के समान (इषम् ) अभीष्ट अन्न (ऊर्जन्) और बल पराक्रम को (विक्रीणावहै) व्यवहार में आने वाली वस्तुओं को देवें वा लेवें ।। ३ । ४।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार  है ॥ मनुष्य जिस सुगन्धि आदि द्रव्य का अग्नि में होम करते हैं वह ऊपर जाकर वायु और वर्षा जल को शुद्ध करता हुआ फिर पृथिवी पर आता है, जिससे यव (जौ) आदि औषधियाँ शुद्ध होकर सुख एवं पराक्रम को देने वाली होती हैं ।

       जैसे वणियाँ लोग रुपया आदि देकर तथा लेकर नाना द्रव्यों को खरीदते और बेचते हैं । वैसे ही अग्नि में द्रव्य को देकर अर्थात् डालकर यजमान वर्षा सुख आदि को खरीदता है, वर्षा से औषधि आदि को ग्रहण करके फिर उसे वर्षा के लिये बेच देता है अर्थात् अग्नि में होम कर देता है । ३ । ४९ ।।

    प्रमाणार्थ

     (दर्वि) यहाँ 'सुपां सुलुक्० [अ० ७ । १ । ३९] सूत्र से 'सु' का लुक है। (परा) 'परा' उपसर्ग का अर्थ निरु० (१ । ३) में '' उपसर्ग का उल्टा अर्थात् विपरीत है। (पत) पतति । यहाँ उभय पक्ष में व्यत्यय और लट् अर्थ में लोट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ५ । ३ । १५।१७) में की गई है ॥ ३ । ४९ ।।

    भाष्यसार

    . यज्ञ में होम किया हुआ द्रव्य--यजमान और ऋत्विक् लोग होम के योग्य सुगन्धित घृत आदि द्रव्यों का अग्नि में दर्वि (चमसा) से हवन करते हैं। वह होम किया हुआ द्रव्य आकाश में जाकर शुद्ध वायु तथा शुद्ध वर्षा का निमित्त बनता है। वर्षा पृथिवी को उत्तम जल-रस प्रदान करती है, जिससे शुद्ध यव (जौ) आदि औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, जो सुख और पराक्रम प्रदान करती हैं । जैसे व्यापारी लोग रुपये के देन-लेन से नाना पदार्थ खरीदते और बेचते हैं, इसी प्रकार अग्नि को द्रव्य देकर ऋत्विक् और यजमान लोग वर्षा को खरीदते हैं। वर्षा से औषधियाँ उत्पन्न करते हैं, फिर उन औषधियों को वर्षा के लिये बेच देते हैं अर्थात् उनका होम करते हैं। यह देन-लेन का चक्र व्यापारी जनों के समान ऋत्विक् और यजमान लोगों का भी चलता रहता है ।। ३ । ४९ ।।

    २. अलङ्कार–यहाँ ऋत्विक् और यजमानों की व्यापारी जनों से उपमा की गई है। मन्त्र में 'इव' शब्द उपमावाचक है। इसलिये उपमा अलङ्कार है ॥ ३ ॥

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    विषय

    व्यापार और विनिमय करने के नियम ।

    भावार्थ

    हे ( दर्वि ) देने योग्य पदार्थों को अपने भीतर लेने वाली पात्रिके ! ( पूर्णा) तू पूर्ण होकर, भरी भरी ( परा पत ) दूसरे के पास जा । (सुपूर्णा) खूब पूर्ण होकर, भरी भरी ही ( पुनः ) फिर ( आ पत ) हमें भी प्राप्त हो | हे (शतक्रतो ) सेकड़ों कर्म करने में समर्थ इन्द्र ! राजन् ! ( वस्ना इव) विक्रय करने योग्य पदार्थों के समान ही हम ( इषम् ) अन्न और मन चाहे सभी पदार्थ और (ऊर्जम् ) अपने बल पराक्रम का भी ( विक्रीणावहै ) विनिमय करें , लें , दें । व्यापार में परिमाण पूरा पूरा दें और पूरा पूरा लें।  इस प्रकार अन्न और मन चाहे सभी पदार्थ और परिश्रम को भी अदला बदला करें। 
    यज्ञ पक्ष में--भरकर चमस डालें और फिर उत्तम वृष्टि आदि फल भी खूब प्राप्त हों । अन्न आहुति अग्नि में दें और विनिमय में उत्तम रस-बल और अन्नोत्पत्ति प्राप्त करें । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     और्णवाभ ऋषिः । यज्ञो देवता । अनुष्टुप् छन्दः । गान्धारः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जेव्हा माणसे सुगंधी पदार्थ अग्नीला अर्पण करून हवन करतात तेव्हा ते पदार्थ अंतरिक्षात जाऊन वायू, वृष्टिजल शुद्ध करून पृथ्वीवर येतात. ज्यामुळे जव इत्यादी पदार्थ शुद्ध होऊन बल व सुख देतात. जसे वैश्य लोक रुपये इत्यादींचे देणे-घेणे करून अनेक प्रकारचे धान्य इत्यादी पदार्थ विकतात किंवा विकत घेतात. तसेच आपणही अग्नीला शुद्ध द्रव्ये अर्पण करून पर्जन्य इत्यादी अनेक प्रकारचे सुख विकत घेतो व पुन्हा वृष्टी व सुखासाठी अग्नीद्वारे हवन करतो.

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    विषय

    यज्ञात होम केलेल्या पदार्थाने पुढे काय होते, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (दर्विः) होम करण्यास योग्य असे पक्व पदार्थांचे ग्रहण करणारी व (पूर्णा) उपकारक द्रव्यांनी परिपूर्ण अशी आहुती (परापत) हा हवन केलेल्या पदार्थांच्या अंशांना वर पाठविते अथवा ती आहुती आकाशात जाऊन दृष्टिजलाने (सुपूर्णा) परिपूर्ण होते. (पुनरापत) पुन्हा ती आहुती भूमीला उत्तम जलरूप रस देते. (शतक्रतो) असंख्य कर्म करणारे व असीम प्रज्ञेचे स्वामी हे जगदीश्‍वर, आपल्या कृपेने यज्ञ संपन्न करविणारा मी विद्वान होता आणि करणारा विद्वान यजमान, आम्ही दोघे (इषम्) उत्तमोत्तम अन्नादी पदार्थांची (ऊर्जम्) पराक्रमयुक्त वस्तूंचे ग्रहण करू (वस्नेव) वैश्य वा व्यापारी व्यवहाराप्रमाणे (विक्रीणावहै) देवाणघेवाण करू. (आम्ही यज्ञाग्नीत हव्य पदार्थांची आहुती देत राहू व त्याचे प्रतिदान म्हणून वृष्टिजल घेत राहू) ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ -या मंत्रात उपमा अलंकाराचा वापर केला आहे. जेव्हां मनुष्यगण अग्नीत सुगंधीयुक्त पदार्थांची आहुती देतात, तेव्हां त्या वस्तू आकाशात वर जाऊन वायु आणि वृष्टीजलास शुद्ध करतात आणि पुन्हा जलरूपाने भूमीवर येतात. त्यामुळे यव आदी औषधी शुद्ध होतात, सुखकारक व शक्तीदायक होतात. ज्याप्रमाणे वैश्य (व्यापारी) जन रूपया देतात-घेतात आणि अनेक प्रकारच्या अन्न आदी पदार्थ विकत घेतात आणि विकतात. त्याप्रमाणे आम्ही याज्ञिकजन देखील यज्ञाग्नीमधे शुद्ध द्रव्यांचे हवन करून मोबदला म्हणून पाऊस व अनेक सुख विकत घेतो. त्या वस्तू विकत घेऊन वृष्टी आणि सुख प्राप्त करण्यासाठी पुन्हा त्या वस्तूंचे अग्नीत हवन करतो. (याप्रकारे आदान-प्रदानाची ही क्रिया चालू राहते) ॥49॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The oblation full of cooked articles put into the fire, goes up to the sky. and returns there from full of rain. O God, Let us twain, like traders, barter our food and strength.

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    Meaning

    The ladle, full with ghee and samagri, goes up (to the sky from the vedi). It comes down to the earth, full again (with water). Lord of infinite vision and a thousand yajnas, may we too, yajamana and the priest, give and take, as in exchange, yajna, food, energy and other things.

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    Translation

    O ladle, full to the brim may уou go up; and come down overflowing still. O accomplisher of noblest deeds, let both of us barter our merchandise, i. e. mine the food and your's the vigo (1)

    Notes

    Here begin the mantras for Sakamedha offerings on the full moon of the Kartika month. Darvi, O ladle! Vasna iva, as if with price.

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    बंगाली (1)

    विषय

    য়জ্ঞে হুতং দ্রব্যং কীদৃশং ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    যজ্ঞে হবন করা পদার্থ কেমন হয়, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যাহা (দর্বি) হোতব্যদ্রব্য গ্রহণকারিণী (পূর্ণা) দ্রব্য দ্বারা পূর্ণ হওয়া আহুতি, (পরাপত) হোতব্য পদার্থের অংশকে উপরে প্রাপ্ত করে অথবা যে আহুতি আকাশে গমন করিয়া বৃষ্টি দ্বারা (সুপূর্ণা) সুষ্ঠুভাবে পূর্ণিত, (পুনরাপত) পুনঃ সম্যক্ প্রকার পৃথিবীতে উত্তম জলরসকে প্রাপ্ত করে তাহা দ্বারা হে (শতক্রতো) অসংখ্য কর্ম বা প্রজ্ঞাসম্পন্ন জগদীশ্বর ! আপনি কৃপা করিয়া আমরা যজ্ঞকারী বিদ্বান্ হোতা ও যজমান উভয়কেই (ইষম্) উত্তম-উত্তম অন্নাদি পদার্থ (ঊর্জম্) পরাক্রমযুক্ত বস্তুগুলিকে (বস্নেব) বৈশ্যদের সমান (বিক্রীণাবহৈ) দিন বা গ্রহণ করুন ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালংকার আছে । যখন মনুষ্যগণ সুগন্ধ্যাদি পদার্থ অগ্নিতে হবন করে তখন উহা উপরে গমন করিয়া বায়ু-বৃষ্টি জল শুদ্ধ করিয়া পৃথিবীতে ফিরিয়া আইসে যাহা দ্বারা যবাদি ওষধি শুদ্ধ হইয়া সুখ ও পরাক্রম হইয়া থাকে । যেমন কোনও বৈশ্য টাকা পয়সা দিয়া বহু প্রকার অন্নাদি পদার্থ ক্রয়-বিক্রয় করিয়া থাকে সেইরূপ আমরা সকলেও অগ্নিতে শুদ্ধ দ্রব্যের আহুতি দিয়া বহু সুখ ক্রয় করিয়া থাকি, ক্রয় করিয়া পুনরায় বৃষ্টি ও সুখের জন্য অগ্নিতে হবন করি ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পূ॒র্ণা দ॑র্বি॒ পরা॑ পত॒ সুপূ॑র্ণা॒ পুন॒রা প॑ত ।
    ব॒স্নেব॒ বি॒ক্রী॑ণাবহা॒ऽই॒ষমূর্জ॑ꣳ শতক্রতো ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পূর্ণাদর্বীত্যস্যৌর্ণবাভ ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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