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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 45
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - स्वराट् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    1

    यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत् स॒भायां॒ यदि॑न्द्रि॒ये। यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यमि॒दं तदव॑यजामहे॒ स्वाहा॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे॑। यत्। अर॑ण्ये। यत्। स॒भाया॑म्। यत्। इन्द्रि॒ये। यत्। एनः॑। च॒कृ॒म। व॒यम्। इ॒दम्। तत्। अव॑। य॒जा॒म॒हे॒। स्वाहा॑ ॥४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ग्रामे यदरण्ये यत्सभायाँ यदिन्द्रिये । यदेनश्चकृमा वयमिदन्तदव यजामहे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे। यत्। अरण्ये। यत्। सभायाम्। यत्। इन्द्रिये। यत्। एनः। चकृम। वयम्। इदम्। तत्। अव। यजामहे। स्वाहा।४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 45
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्गृहस्थकृत्यमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    वयं यद् ग्रामे यदरण्ये सत्सभायां यदिन्द्रिये यद्यत्रैनश्चकृमस्तदव यजामहे दूरीकुर्मः। यद्यत्र तत्र स्वाहा सत्यवाचा पुण्यकर्म चकृम तत्तत्सर्वं सङ्गच्छामहे॥४५॥

    पदार्थः

    (यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (ग्रामे) शालासमुदाये, गृहस्थैः सेविते। ग्राम इत्युपलक्षणं नगरादीनाम् (यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (अरण्ये) वानप्रस्थैः सेवित एकान्तदेशे वने (यत्) यस्यां वक्ष्यमाणायाम् (सभायाम्) विद्वत्समूहशोभितायाम् (यत्) यस्मिँश्च्छ्रेष्ठे (इन्द्रिये) मनसि श्रोत्रादौ वा (यत्) वक्ष्यमाणम् (एनः) पापम् (चकृम) कुर्महे करिष्यामो वा। अत्र लड्लृटोरर्थे लिट्। अन्येषामपि॰ [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घश्च। (वयम्) कर्मानुष्ठातारो गृहस्थाः (इदम्) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानं करिष्यमाणं वा (तत्) कर्म (अव) दूरीकरणे (यजामहे) सङ्गच्छामहे (स्वाहा) सत्यवाचा। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१.११)। अयं मन्त्रः (शत॰२.५.२.२५) व्याख्यातः॥४५॥

    भावार्थः

    चतुराश्रमस्थैर्मनुष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा सदा सत्यं कर्माचर्यं पापं च त्यक्त्वा सभाविद्याशिक्षाप्रचारेण प्रजायाः सुखोन्नतिः कार्येति॥४५॥

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    विषयः

    पुनर्गृहस्थकृत्यमुपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    वयं कर्मानुष्ठातारो गृहस्था यत् यस्मिन् वक्ष्यमाणे ग्रामे शालासमुदाये, गृहस्थैः सेविते, ग्रा इत्युपलक्षणं नगरादीनाम्, यत् यस्मिन् वक्ष्यमाणे अरण्ये वानप्रस्थैः सेवित एकान्तदेशे वने यत् यस्यां वक्ष्यमाणायां सभायां विद्वत्समूह-शोभितायां यत् यस्मिञ्छ्रेष्ठे इन्द्रिये मनसि, श्रोत्रादौ वा यत्=यत्र वक्ष्यमाणम् [इदम् ] प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानं करिष्यमाणं वा एनः पापं चकृम कुर्महे, करिष्यामो वा तत् कर्म अव+यजामहे=दूरी कुर्मः, दूरं संगच्छामहे ।

    यद्=यत्र तत्र स्वाहा=सत्यवाचा पुण्यकर्म चकृम, तत् तत्तत्सर्वं [यजामहे]=संगच्छामहे ॥३ । ४५ ।।

    [यद्=यत्र तत्र स्वाहा=सत्यवाचा पुण्यकर्म चकृम, तत्सर्वं [यजामहे]=संगच्छामहे, [यजामहे]= संगच्छामहे, यत् सभायां..... [इदम् ] एनश्चकृमस्तदवयजामहे=दूरी कुर्मः ]

    पदार्थः

    (यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (ग्रामे) शालासमुदाये, गृहस्थैः सेविते। ग्राम इत्युपलक्षणं नगरादीनाम् (यत्) यस्मिन्वक्ष्यमाणे(अरण्ये) वानप्रस्थैः सेवित एकान्तदेशे वने (यत्) यस्यां वक्ष्यमाणायाम् (सभायाम्) विद्वत्समूहशोभितायाम् (यत्) यस्मिञच्छ्रेष्ठे (इन्द्रिये) मनसि श्रोत्रादौ वा (यत्) वक्ष्यमाणम् (एनः) पापम् (चकृम) कुर्महे करिष्यामो वा । अत्र लङ्लृटोर्थे लिट् । अन्येषामपीति दीर्घश्च (वयम्) कर्मानुष्ठातारो गृहस्थाः (इदम्) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानं करिष्यमाणं वा (तत्) कर्म (अव) दूरीकरणे (यजामहे) संगच्छामहे (स्वाहा ) सत्यवाचा ।स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम् ॥ निघं० १ ।११ ॥ अयं मंत्र: शत० २। ५। २ । २५ व्याख्यातः ॥ ४५ ॥

    भावार्थः

    चतुराश्रमस्थैर्मनुष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा सदा सत्यं कर्मावचर्यं, पापं च त्यक्त्वा सभाविद्याशिक्षाप्रचारेण प्रजायाः सुखोन्नतिः कार्येति ॥ ३ । ४५ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा० पदार्थ:-- स्वाहा=मनसा वाचा कर्मणा सदा सत्यकर्माचरणम् ।

    विशेषः

    प्रजापतिः । मरुतः=[गृहस्थी] ।स्वराडनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में गृहस्थों के कर्मों का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    (वयम्) कर्म के अनुष्ठान करने वाले हम लोग (यत्) ग्रामे) जो गृहस्थों से सेवित ग्राम (यत्) (अरण्ये) वानप्रस्थों ने जिस वन की सेवा की हो (यत्सभायाम्) विद्वान् लोग जिस सभा की सेवा करते हों और (यत्) (इन्द्रिये) योगी लोग जिस मन वा श्रोत्रादिकों की सेवा करते हों, उसमें स्थिर हो के जो (एनः) पाप वा अधर्म (चकृम) करा वा करेंगे सब (अवयजामहे) दूर करते रहें तथा जो-जो उन-उन उक्त स्थानों में (स्वाहा) सत्यवाणी से पुण्य वा धर्माचरण (चकृम) करना योग्य है (तत्) उस-उस को (यजामहे) प्राप्त होते रहें॥४५॥

    भावार्थ

    चारों आश्रमों में रहने वाले मनुष्यों को मन, वाणी और कर्मों से सत्य कर्मों का आचरण कर पाप वा अधर्मों का त्याग करके विद्वानों की सभा, विद्या तथा उत्तम-उत्तम शिक्षा का प्रचार करके प्रजा के सुखों की उन्नति करनी चाहिये॥४५॥

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    विषय

    पाप का अवयजन

    पदार्थ

    प्रजापति प्रार्थना करता है कि— १. ( यत् ) = जो ( एनः ) = पाप ( ग्रामे ) = ग्राम के विषय में ( वयम् ) = हम ( चकृम ) = कर बैठे हैं ( इदम् ) = इस ( तत् एनः ) = उस पाप को ( अवयजामहे ) = यज्ञों के द्वारा दूर करते हैं। ग्राम में निवास करनेवाले को उत्तम नागरिक बनना चाहिए। उसे कभी उत्तम नागरिक के कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ‘मार्गों को मलिन करना, मार्गों पर चलने आदि के नियमों का पालन न करना, पड़ोसियों के आराम आदि का ध्यान न करके शोर करते रहना, शराब आदि के नशे में उपद्रवादि करना’—ये सब ग्रामविषयक पाप हैं। हमें इनसे बचने का यत्न करना चाहिए। ऋषियों के समय-समय पर आते रहने से हममें यज्ञिय भावना जागरित रहेगी और हम ऐसे पाप न करेंगे। 

    २. ( यत् अरण्ये ) = जो पाप हम वन के विषय में करते हैं, उसे भी यज्ञ से दूर करते हैं। ‘वृक्षों को काटते रहना और नयों का न लगाना, निषिद्ध प्राणियों का शिकार करना अथवा वनों में वर्त्तमान आश्रमों को उजाड़ना’ ये सब अरण्यविषयक पाप हैं। इनसे भी हम बचें। 

    ३. ( यत् सभायाम् ) = जो पाप हम सभा में करते हैं, उसका भी हम अवयजन [ दूर ] करनेवाले हों। ‘सभा की शान्ति को भङ्ग करना, वहाँ उपदेश न सुन ऊँघते रहना, परस्पर बातें करना, शिष्ट रीति से न बैठना’ आदि सभा-विषयक पाप हैं। इन्हें भी हमें दूर करना है। 

    ४. ( यत् इन्द्रिये ) = जो इन्द्रियों के विषय में हमसे पाप हुए हैं उसे भी हम यज्ञ से दूर करते हैं। अतिभोजन, अशुभ दर्शन, निन्दाश्रवण, निन्दाकथन व असंयम आदि इन्द्रियों के दोषों को भी हम यज्ञ से दूर करनेवाले हों। 

    ५. ( स्वाहा ) = [ स्वं प्रति आह ] यही बात हमें सदा अपने से कहते रहना चाहिए। निरन्तर इस प्रकार आत्मप्रेरणा देने से हमारा जीवन इन सब पापों से ऊपर उठेगा, वह पवित्र होगा और हम पवित्र सन्तानों के निर्माण करनेवाले ‘प्रजापति’ बन पाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ — यज्ञादि से हमारी पापवृत्तियाँ दूर होती जाएँ। हम ग्राम, अरण्य, सभा व इन्द्रियविषयक सब पापों से ऊपर उठें।

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    विषय

    फिर गृहस्थों के कर्मों का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    (वयम् ) सत्य कर्म का आचरण करने वाले हम गृहस्थ लोग (यत्) जिस (ग्रामे) गृहस्थों से सेवित शाला समूह रूप ग्राम तथा नगर आदि में (यत्) जिस (अरण्ये) वानप्रस्थ जनों से सेवित एकान्त देश वाले वन में (यत्) जिस (सभायाम्) विद्वानों के समूह से सुशोभित सभा में (यत्) जिस श्रेष्ठ (इन्द्रिये) मन वा श्रोत्रादि इन्द्रिय में (यत्) जो [इदम्] यह (एनः) पाप कर्म (चकृम) करते हैं वा करेंगे (तत्) उस कर्म को (अवयजामहे) दूर करते हैं ।

    और जो जहाँ-हाँ (स्वाहा ) सत्य वाणी से पुण्य कर्म (चकृम) करते हैं (तत्) उस सब से (यजामहे) सदा संगत रहें ।। ३ । ४५ ।।

    भावार्थ

    चारों आश्रमों के मनुष्य मन, वचन और कर्म से सदा सत्य कर्म का आचरण करके और पाप को छोड़कर सभा अर्थात् विद्वानों के संग से विद्या और शिक्षा के प्रचार से प्रजा की सुख-वृद्धि करें ॥ ३ ॥ ४५ ॥

    प्रमाणार्थ

    (ग्रामे) यहाँ ग्राम शब्द नगर आदि का उपलक्षण है (चकृमा) चकृम। यहाँ लट् प्रौर लृट् अर्थ में लिट् लकार है तथा 'अन्येषामपि दृश्यते [अ० ६ । ३ । १३७] सूत्र से दीर्घ है। (स्वाहा) 'स्वाहा' शब्द निघं० (१ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ । ५ ।२।२५ ) में की गई है ।। ३ । ४५ ।।

    भाष्यसार

    गृहस्थों का कर्त्तव्य--कर्मों का अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ लोग ग्राम में, एकान्त देश जङ्गल में, विद्वानों की सभा में कहीं भी पापाचरण न करें। यहाँ तक कि मन में भी पाप का विचार न करें। किसी इन्द्रिय से पाप करने की चेष्टा न करें, किन्तु मन, वचन, कर्म से गृहस्थ तथा अन्य आश्रमी भी सत्य-कर्म का आचरण करें, पापकर्म को सदा दूर हटावें । विद्वानों की सभा करके विद्या शिक्षा के प्रचार से प्रजा के सुखों की वृद्धि किया करें ।। ३ । ४५ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात

     महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (गृहाश्रम विषय) में इस प्रकार की है-- " (यद् ग्रामे॰) गृहाश्रमी को उचित है कि जब वह पूर्ण विद्या को पढ़ चुके तब अपने तुल्य स्त्री से स्वयंवर करे और वे दोनों यथावत् उन विवाह के नियमों में चलें जो कि विवाह और नियोग के प्रकरणों में लिख आये हैं परन्तु उनसे जो विशेष कहना है सो यहाँ लिखते हैं। गृहस्थ स्त्री पुरुषों को धर्म की उन्नति और ग्रामवासियों के हित के लिये जो-जो काम करना है तथा (यदरण्ये) वनवासियों के साथ हित और (यत्सभायाम्) सभा के बीच में सत्यविचार और अपने सामर्थ्य से संसार को सुख देने के लिये (यदिन्द्रिये) जितेन्द्रियता से ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये सो-सो सब काम अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ यथावत् करें और (यदेनश्चकृ०) पाप करने की बुद्धि को हम लोग मन, वचन और कर्म से छोड़ कर सर्वथा सब के हितकारी बनें ॥ ९॥

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    विषय

    दुश्चरित्र का त्याग।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम ( यद् एनः ) जो पाप, अपराध, अयुक्त कार्य , निषिद्धाचरण ( ग्रामे ) ग्राम में करें, ( यत् अरण्ये ) जो बुरा काम जंगल में करें, (यत् सभायाम्) जो बुरा कार्य हम सभा में करें और जो काम हम (इन्द्रिये ) आंख, नाक, कान और मन में भी, उनको कुचेष्टा और दुरिच्छारूप से (चकृम ) करें (तत्) उसको हम ( अवयजामहे ) सर्वथा त्याग दें | ( स्वाहा ) यह प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रति दृढ़ भावना किया करे | शत० २।५।२।२५ ॥ 
    'क्षत्रं वा इन्द्रो विशो मरुतः । क्षत्रं वै निषेद्धा, विशो निषिद्धा आसन्निति । शत० २ । ५ । २७ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः । मरुतो देवता । स्वराड् अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    चारही आश्रमांत राहणाऱ्या माणसांनी मन, वाणी, कर्म यांनी सत्याचरण करावे. पापाचा, अधर्माचा त्याग करावा व विद्वानांच्या सभा आयोजित कराव्यात. विद्या व उत्तम शिक्षणाचा प्रचार करून प्रजेचे सुख वाढवावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात गृहस्थजनांच्या कर्तव्य-कर्मांविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (वयम्) आवश्यक व्यवसाय कर्मादी करणारे (यत्) (ग्रामे) आम्ही जे गावामधे निवास करणारे गृहस्थजन आहोत, ते लोक (यत) (अरण्ये) जे वानप्रस्थ जन वनाचे सेवन करीत आहेत, (यत्सभायाम्) जे विद्वज्जन सभा-समितीत बसतात, तसेच (यत्)(सन्द्रिये) योगीजन मन आणि श्रोत्रादींचे विरोधन करतात त्या सर्व वानप्रस्थ, विद्वान आणि योगीजनांची आम्ही सेवा करीत राहू. त्यांच्या जवळ राहून (एनः) पाप वा अधर्म (चकृम) जे केले आहेत व जे घडण्याची शक्यता आहे, त्या पाप-अधर्मांना (अवयजामहे) भस्मीभूत करू. त्या वन, सभा आणि योगीस्थान याठिकाणी राहून (स्वाहा) सत्य-भाषण, पुण्यार्जन व धर्माचरण (चक्रम) करीत तिथे राहणे हेच आम्हांसाठी योग्य आहे. (तत्) त्या सर्व लाभांना (यजामहे) आम्ही प्राप्त करीत राहू ॥45॥

    भावार्थ

    भावार्थ - चार आश्रमात असणार्‍या सर्व मनुष्यांनी मनसा, वाचा, आणि कर्मणा सत्य आचरण करावे, पाप व अधर्माचा त्याग करावा. तसेच विद्वत्वभेत बसून, विद्या व उत्तमोत्तम ज्ञान संपादन करून आपल्या सन्ततीला सुखी करावे व त्यांची उन्नती घडवावी. ॥45॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May we forsake each sinful act that we have committed in village or solitude, in an assembly or corporeal sense. Let every man so resolve.

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    Meaning

    Whatever wrong we have done or might do in our village community, in the forest among the foresters (Vanaprasthis), in the assembly or in the mind with our senses, that we abjure and give up, and whatever is true and good, to that we commit ourselves and dedicate.

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    Translation

    Whatever sin we commit either in village or in the wild, whether in assembly or in privacy or with our bodies, we expiate ourselves from it by performing this sacrifice. (1)

    Notes

    Yad tndriye, in privacy, or with our bodies. Avayafamshe, expiate ourselves.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনগৃর্হস্থকৃত্যমুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় পরবর্ত্তী মন্ত্রে গৃহস্থের কর্মের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (বয়ম্) কর্মের অনুষ্ঠানকারী আমরা (য়দ্-গ্রামে) গৃহস্থ দ্বারা যে সেবিত গ্রাম (য়ৎ অরণ্যে) বানপ্রস্থরা যে বনে সেবা করিয়াছে (য়ৎ সভায়াম্) বিদ্বান্গণ যে সভার সেবা করিয়া থাকেন (য়ৎ ইন্দ্রিয়ে) যোগীগণ যে মন বা শ্রোত্রাদিকের সেবা করেন তাহাতে স্থির হইয়া যে (এনঃ) পাপ বা অধর্ম (চকৃম) করিবে বা করাইবে, সকল (অবয়জামহে) দূর করিতে থাকিবে তথা যাহা যাহা সেই সব উক্ত স্থানগুলিতে (স্বাহা) সত্যবাণী দ্বারা পুণ্য বা ধর্মাচরণ (চকৃম) করা উচিত (তৎ) তাহা তাহা (য়জামহে) প্রাপ্ত হইতে থাকিবে ॥ ৪৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- চারি আশ্রমে থাকা মনুষ্যদিগকে মন, বাণী ও কর্ম দ্বারা সত্য কর্মের আচরণ করিয়া পাপ বা অধর্মের ত্যাগ করিয়া বিদ্বান্দিগের সভা, বিদ্যা তথা উত্তমোত্তম শিক্ষার প্রচার করিয়া প্রজাদিগের সুখের উন্নতি করা উচিত ॥ ৪৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দ্ গ্রামে॒ য়দর॑ণ্যে॒ য়ৎ স॒ভায়াং॒ য়দি॑ন্দ্রি॒য়ে ।
    য়দেন॑শ্চকৃ॒মা ব॒য়মি॒দং তদব॑ য়জামহে॒ স্বাহা॑ ॥ ৪৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়দ্ গ্রাম ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । মরুতো দেবতাঃ । স্বরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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