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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 57
    ऋषिः - बन्धुर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    1

    ए॒ष ते॑ रुद्र भा॒गः स॒ह स्वस्राम्बि॑कया॒ तं जु॑षस्व॒ स्वाहै॒ष ते॑ रुद्र भा॒गऽआ॒खुस्ते॑ प॒शुः॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः। ते॒। रु॒द्र॒। भा॒गः। स॒ह। स्वस्रा॑। अम्बि॑कया। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑। ए॒षः। ते॒। रु॒द्र॒। भा॒गः। आ॒खुः। ते॒। प॒शुः ॥५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिकया तञ्जुषस्व स्वाहैष ते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः। ते। रुद्र। भागः। सह। स्वस्रा। अम्बिकया। तम्। जुषस्व। स्वाहा। एषः। ते। रुद्र। भागः। आखुः। ते। पशुः॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 57
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ मनलक्षणकथनानन्तरं प्राणलक्षणमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे रुद्र स्तोतस्ते तवैषो भागोऽस्ति, तं त्वमम्बिकया स्वस्रा सह जुषस्व। हे रुद्र! ते तवैषोऽयं भागः स्वाहास्ति, तं सेवस्व। हे रुद्र! ते तवैष आखुः पशुश्चास्ति, तं जुषस्व सेवस्वेत्येकः॥१॥५७॥ योऽयं रुद्रः प्राणस्तेऽस्य रुद्रस्य योऽयं भागोऽयमम्बिकया स्वस्रा सह जुषस्व सेवते, तेऽस्य रुद्रस्यैषोऽयं स्वाहाभागस्तथा यस्तेऽस्याखुः पशुश्चास्ति, यमयं सततं सेवते तं सर्वे मनुष्याः सेवन्ताम्॥२॥५७॥

    पदार्थः

    (एषः) प्रत्यक्षः (ते) तवास्य वा (रुद्र) रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः स्तोता तत्सम्बुद्धौ। रुद्र इति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं॰३.१६)। रुद्र इत्येतस्य त्रयस्त्रिंशद्देवव्याख्याने प्राणसंज्ञेत्युक्तम्। रुद्र रौतीति सतो रोरूयमाणो द्रवतीति वा, रोदयतेर्वा, यदरुदत्तद्रुद्रस्य रुद्रत्वमिति काठकम्, यदरोदीत् तद्रुद्रस्य रुद्रत्वमिति हारिद्रविकम् (निरु॰१०.५)। रोदेर्णिलुक् च (उणा॰२.२२) अनेन रुद्रशब्दः सिद्धः। (भागः) सेवनीयः (सह) सङ्गे (स्वस्रा) सुष्ठ्वस्यति प्रक्षिपति यया विद्यया क्रियया वा तया। सावसेर्ऋन् (उणा॰२.९६) अनेन स्वसृशब्दः सिध्यति। (अम्बिकया) अम्बते शब्दयति यया तया (तम्) भागम् (जुषस्व) सेवस्व सेवते वा। अत्र पक्षे व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (स्वाहा) शोभनं देयमादेयमाह यया सा (एषः) वक्ष्यमाणः (ते) तवास्य वा (रुद्र) उक्तार्थः (भागः) भजनीयः (आखुः) समन्तात् खनत्यवदृणाति येन भोजनसाधनेन सः। अत्र आङ्परयोः खतिशॄभ्यां डिच्च (उणा॰१.३३) इति कुप्रत्ययो डित्संज्ञा च। (पशुः) यो दृश्यते भोग्यपदार्थसमूहः समक्षे स्थापितः सः। अत्र अजिदृशिकमिः (उणा॰१.२७) इत्यौणादिकसूत्रेणास्य सिद्धिः। अयं मन्त्रः (शत॰२.६.२.९-१०) व्याख्यातः॥५७॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा भ्राता प्रियया विदुष्या भगिन्या सह वेदादिशब्दविद्यां पठित्वाऽऽनन्दं भुङ्क्ते, यथा चाऽयं प्राणः श्रेष्ठया शब्दविद्यया प्रियो जायते, तथैव विद्वान् शब्दविद्यां प्राप्य सुखी जायते। नैताभ्यां विना कश्चिदपि सत्यं ज्ञानं सुखभोगं च प्राप्तुं शक्नोतीति॥५७॥

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    विषयः

    अथ मनोलक्षणकथनानन्तरं प्राणलक्षणमुपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

     हे रुद्रा != स्तोतः ! रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः स्तोता तत्सम्बुद्धौ ते=तवैष प्रत्यक्षः भागः सेवनीयः अस्ति, तं त्वमम्बिकिया अम्बते=शब्दयति यया तया स्वस्रा सुष्ठ्वस्यति=प्रक्षिपति यया विद्यया तया सह सङ्गे जुषस्व सेवस्व ।

    हे रुद्र ! ते=तवैषोऽयं भागः सेवनीयः स्वाहा शोभनं देयमादेयमाह यया सा अस्ति, तं सेवस्व

    हे रुद्र ! ते=तवैष वक्ष्यमाणः आखुः समन्तात् खनत्यवदृणाति येन भोजनसाधनेन स पशुः यो दृश्यते भोग्यपदार्थ समूहः समक्षे स्थापितः सः चास्ति, तं भागं जुषस्वः सेवस्वेत्येकः ।।

     योऽयं रुद्रः=प्राणस्ते=अस्य रुद्रस्य योऽयं भागः सेवनीय: अम्बिकया अम्बते=शब्दयति यया तया स्वस्रा सुष्ठ्वस्यति=प्रक्षिपति यया क्रियया तयासह जुषस्व=सेवते

    तेऽस्य रुद्रस्यैषोऽयं स्वाहा शोभनं देयमादेवमाह यया सा भाग: भजनीयः, तथा यस्ते=अस्याखुः समन्तात् खनत्यवदृणाति येन भोजनसाधनेन सः पशुः यो दृश्यते भोग्यपदार्थसमूहः समक्षे स्थापितः सः चास्ति, यमयं सततं जुषस्व=सेवते, तं सर्वे मनुष्याः सेवन्ताम् [इति द्वितीयः] ॥ ३ ॥ ५७ ।।

    [हे रुद्र=स्तोतः ! ते=तवैष भागोऽस्ति, तं त्वमम्बिकया स्वस्रा सह जुषस्व]

    पदार्थः

    (एषः) प्रत्यक्षः (ते) तवास्य वा (रुद्र) रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः=स्तोता तत्सम्बुद्धौ । रुद्र इति स्तोतृनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ ।१६ ॥रुद्र इत्येतस्य त्रयस्त्रिंशद्देवव्याख्याने प्राणसंज्ञेत्युक्तम् ।रुद्र रौतीति सतो रोरूयमाणो द्रवतीति वा रोदयतेर्वा यदरुदत्तद्रुद्रस्य रुद्रत्वमिति काठकं, यदरोदीत्तद्रुद्रस्य रुद्रत्वमिति हारिद्रविकम् ।।निरु० १० ।५ ॥ रोदेर्णिलुक च ॥ उ० २ ।२२ ॥अनेन रुद्रशब्दः सिद्ध: (भागः) सेवनीयः (सह) संगे (स्वस्रा) सुष्ठवस्यति=प्रक्षिपति यया विद्यया क्रियया वा तया । सावसेर्ऋन् । उ० २ ।९६ ॥ अनेन सवसृशब्दः सिध्यति (अम्बिकया) अम्बते=शब्दयति यया तया (तम्) भागम् (जुषस्व) सेवस्व सेवते वा । अत्र पक्षे व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (स्वाहा) शोभनं देयमादेयमाह यया सा (एषः) वक्ष्यमाणः (ते) तवास्य वा (रुद्र) उक्तार्थ: (भागः) भजनीयः (आखुः) समन्तात्खनत्यवदृणाति येन भोजनसाधनेन सः । अत्र आङ्परयोः खनिशुभ्यां डिच्च । उ० १ ।३३ ॥ इति कुप्रत्ययो डित्संज्ञा च (पशुः) यो दृश्यते भोग्यपदार्थसमूहः समक्षे स्थापितः सः । अत्र अजिदृशिकमि० ॥ १ ॥ २७ ॥ इत्यौणादिकसूत्रेणास्य सिद्धिः अयं मंत्रः शत० २।६। २।९-१० व्याख्यातः ।। ५७॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः ।।यथा भ्राता प्रियया विदुष्या भगिन्या सह वेदादिशब्दविद्यां पठित्वाऽऽनन्दं भुङ्क्ते,

    [योऽयं रुद्रः=प्राणस्ते=अस्य रुद्रस्य योऽयं भागोऽम्बिकया स्वस्रा सह जुषस्व=सेवते ]

    यथा चायं प्राणः श्रेष्ठया शब्दविद्यया प्रियो जायते, तथैव विद्वान् शब्दविद्यां प्राप्य सुखी जायते ।

    [तात्पर्यमाह--]

    नैताभ्यां विना कश्चिदपि सत्यं ज्ञानं सुखभोगं च प्राप्तुं शक्नोतीति ॥ ३ । ५७ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा० पदार्थ:--रुद्र=भ्रातः । स्वस्रा=वेदादिशब्दविद्यया, भगिन्या । अम्बिकया=विदुष्या ।

    विशेषः

    बन्धुः । रुद्रः=विद्वान् और प्राण ।निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मन के लक्षण कहने के अनन्तर प्राण के लक्षण का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (रुद्र) अन्यायकारी मनुष्यों को रुलाने वाले विद्वन्! जो (ते) तेरा (एषः) यह (भागः) सेवन करने योग्य पदार्थ समूह है, उस को तू (अम्बिकया) वेदवाणी वा (स्वस्रा) उत्तम विद्या वा क्रिया के (सह) साथ (जुषस्व) सेवन कर तथा हे (रुद्र) विद्वन्! जो (ते) तेरा (एषः) यह (भागः) धर्म से सिद्ध अंश वा (स्वाहा) वेदवाणी है, उस का सेवन कर और हे (रुद्र) विद्वन्! जो (ते) तेरा (एषः) यह (आखुः) खोदने योग्य शस्त्र वा (पशुः) भोग्य पदार्थ है (तम्) उसको (जुषस्व) सेवन कर॥१॥५७॥ जो (एषः) यह (रुद्र) प्राण है (ते) जिसका (एषः) यह (भागः) भाग है, जिसको (अम्बिकया) वाणी वा (स्वस्रा) विद्याक्रिया के (सह) साथ (जुषस्व) सेवन करता वा जो (ते) जिसका (स्वाहा) सत्यवाणी रूप (भागः) भाग है और जो इसके (आखुः) खोदने वाले पदार्थ वा (पशुः) दर्शनीय भोग्य पदार्थ हैं, जिसका यह (जुषस्व) सेवन करता है, उसका सेवन सब मनुष्य सदा करें॥२॥५७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे भाई पूर्ण विद्यायुक्त अपनी बहिन के साथ वेदादि शब्दविद्या को पढ़कर आनन्द को भोगता है, वैसे विद्वान् भी विद्या को प्राप्त होकर सुखी होता है। जैसे यह प्राण श्रेष्ठ शब्दविद्या से प्रिय आनन्ददायक होता है, वैसे सुशिक्षित विद्वान् भी सब को सुख करने वाला होता है। इन दोनों के विना कोई भी मनुष्य सत्यज्ञान वा सुख भोगों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता॥५७॥

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    विषय

    आखुस्ते पशुः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्रों में वर्णित मनोनिरोध के लिए प्राणसाधना मौलिक उपाय है। प्राणायाम से ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ होकर मन का वशीकरण होता है, अतः प्रस्तुत मन्त्र को प्राणसाधना से प्रारम्भ किया गया है। हे ( रुद्र ) = प्राण! [ रुद्राः प्राणाः ] ( एषः ) = ये प्रभु ( ते ) = तेरा ( भागः ) = भाग हैं—सेवनीय हैं। तूने प्रभु की ही उपासना करनी है। 

    २. प्राणों के द्वारा प्रभु का उपासन यही है कि प्राणसाधना से मनोनिरोध होता है और मनोनिरोध से प्रभु-साक्षात्कार। 

    ३. ( तम् ) = उस प्रभु को ( स्वस्रा ) = [ सु+अस् ] उत्तमता से सब दोषों को परे फेंकनेवाली ( अम्बिकया सह ) = [ अवि शब्दे ] इस शब्दविद्या = वेदवाणी के साथ ( जुषस्व ) = प्रीतिपूर्वक सेवन कर। ज्ञानयज्ञ से प्रभु का उपासन सर्वोत्तम उपासन है। ( स्वाहा ) = [ सु+आह ] यह बात बहुत ही सुन्दर कही गई है। 

    ४. हे ( रुद्र ) = प्राण! ( एष ) = यह प्रभु ही ( ते ) = तेरा ( भागः ) = उपासनीय—भजनीय है। यह ( ते ) =  तेरा ( आखु ) = [ आखमति = अवदारयति ] सब दोषों का सुदूर विदीर्ण करनेवाला है। ( ते पशुः ) [ पश्यति ] = यह तेरा द्रष्टा है। तेरे दोषों का देखनेवाला और उनका नाश करनेवाला है। तू अपने दोषों को देख पाये या न, परन्तु प्रभु तो तेरे दोषों को देखते ही हैं। उनसे तेरा कोई दोष छिपा नहीं। वे तेरे इन सब दोषों को उखाड़ फेंकेंगे—भस्म कर देंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु ही सेवनीय हैं, ज्ञान-प्राप्ति से उनका उपासन होता है। वे प्रभु ही हमारे दोषों के द्रष्टा व नाशक हैं।

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    विषय

    मन के लक्षण कहने के पश्चात् अब प्राण के लक्षण का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (रुद्र) अन्यायकारी जनों को रुलाने वाले विद्वान् ! (ते) तेरा (एषः) यह (भागः) सेवन करने योग्य विद्या पदार्थ है, उसको तू (अम्बिकया) प्रिय वेदादि शब्द विद्या से (स्वस्रा) अविद्या अन्धकार को अच्छे प्रकार दूर हटाने वाली विद्या के (सह) संग (जुषस्व) सेवन कर ।

      हे (रुद्र) स्तोता! (ते) तेरा (एषः) यह (भागः) सेवनीय (स्वाहा) जिस क्रिया से दान और ग्रहण होता है उसको (जुषस्व) सेवन कर ।

      हे (रुद्र) स्तोता! (ते) तेरा (एषः) यह उपदिश्यमान (आखुः) सब ओर खोदने योग्य भोजन साधन और (पशु:) दृश्यमान भोग्य पदार्थ है (उसके) सेवन करने योग्य पदार्थ को (जुषस्व) उपभोग कर। यह मन्त्र का पहला अर्थ है ।

    जो यह (रुद्रः) प्राण है, (ते) इस रुद्र का जो यह (भागः) सेवन करने योग्य भाग है यह (अम्बिकया) वेदवाणी एवं (स्वस्रा) शब्द विद्या के (सह) संग (जुषस्व) सेवन करता है।

      (ते) इस प्राण का (एषः) यह (स्वाहा) उत्तम रीति से प्राण-अपान क्रिया रूप (भागः) सेवन करने योग्य भाग है जो (ते) इसका (आखु:) सब ओर से खोदने योग्य भोजन साधन और (पशु:) दृश्यमान भोग्य पदार्थ है उसका (जुषस्व) सेवन करता है, उक्त भोग्य पदार्थों का सब सेवन करें। [यह मंत्र का दूसरा अर्थ है] ॥ ३ । ५७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है । जैसे भाई अपनी प्रिया विदुषी बहिन के साथ वेदादि शब्दविद्या को पढ़कर आनन्द का भोग करता है,

      और जैसे--यह प्राण श्रेष्ठ शब्द विद्या से प्रिय बनता है, वैसे ही विद्वान् शब्दविद्या को प्राप्त करके सुखी होता है।

     विद्वान् भ्राता और प्राण-- इन दोनों के बिना कोई भी सत्य-ज्ञान और सुखभोग को प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ३ । ५७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (रुद्र) 'रुद्र' शब्द निघं० ( ३ । १६ ) में स्तोता-नामों में पढ़ा है। रुद्र शब्द की तैंतीस देवताओं के व्याख्यान में प्राण संज्ञा कही गई है। 'रुद्र' शब्द की व्याख्या निरु० ( १० । ५ ) में इस प्रकार है--"शब्द अर्थ वाली 'रु' धातु से 'रुद्र' शब्द बनता है क्योंकि यह बहुत शब्द करता हुआ दौड़ता है। अथवा वह शत्रुओं को रुलाता है, अतः वह रुद्र है । काठक और हारिद्रविक शाखा के अनुसार 'रुद्र रो पड़ा' इस लिए भी वह रुद्र कहाता है । 'रोदेर्णि लुक् च' उणा० (२ । २२) से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है (स्वस्रा) यह शब्द 'सानसेर्ॠन्' उणादि ( २ । ९६) सूत्र से सिद्ध है। (जुषस्व) सेवस्व सेवते वा । यहाँ पक्ष में व्यत्यय और लट् अर्थ में लोट् लकार है। (आखु:) 'आखु' शब्द ‘आङ् परयोः खनिशृभ्यां डिच्च’ उणा० (१ । ३३) सूत्र से 'खन्' धातु से 'कु' प्रत्यय और उसके 'डित्' होने से 'आखु' शब्द सिद्ध होता है। (पशुः) इस शब्द की सिद्धि 'अजिदृशिकमि०' उणा० (१ । २७) सूत्र से जाननी चाहिए। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ६ । २ । ९-१०) में की गई है ।। ३ । ५७ ।।

    भाष्यसार

    १. रुद्र (विद्वान् भ्राता) --अन्यायकारी लोगों को रुलाने वाला विद्वान् रुद्र कहलाता है। वेदविद्या उसकी सेवनीय वस्तु है, जिसका वह उपदेश करने वाली वेदविद्या से अविद्यान्धकार को दूर भगाने वाली अपनी प्रिय विदुषी बहिन के साथ सेवन करता है और इस सेवनीय वेदविद्या का वह परस्पर उत्तम आदान-प्रदान की क्रिया से भी सेवन करता है। यह भोजन-साधन चमस आदि से भोज्य पदार्थों का सेवन करता है ।।

    २. रुद्र (प्राण)--प्राण को भी रुद्र कहते हैं। प्राण की भी सेवनीय वस्तु शब्दविद्या है। श्रेष्ठ शब्दविद्या से यह प्राण प्यारा लगता है। यह प्राण आदान-प्रदान की क्रिया से विद्या का सेवन करता है तथा उत्तम भोज्य पदार्थों का सेवन भी प्राण ही करता है। प्राण के बिना सुखभोग संभव नहीं ।।

    ३. अलंकार-- इस मन्त्र में श्लेष-अलङ्कार होने से रुद्र शब्द से विद्वान् और प्राण दो अर्थों का ग्रहण किया गया है ।। ३ । ५७ ।।

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    विषय

    राजा के हाथ पांव श्रमी जन।

    भावार्थ

    हे ( रुद) दुष्ट जनों के रुलाने हारे राजन् ! ( ते एषः भागः ) तेरा यह सेवन करने योग्य अंश है । ( तं ) उसको (स्वस्रा ) अपनी भगिनी, सेवा और (अम्बिकया ) माता , पृथिवी के साथ (जुषस्व ) स्वीकार कर । ( स्वाहा ) यह हमारा उत्तम त्याग है ! हे (रुद्र) विद्वन् ! राजन् ! (ते) तेरा ( एषः ) यह ( भागः ) सेवन करने योग्य अंश है । (आखुः ) भूमि को चारों ओर धातुओं, ओषधियों के खोदने वाले खनक लोग ( ते ) तेरे निमित्त नाना पदार्थों के ( पशुः ) देखने वाले हैं। वे तेरे लिये अभिमत लोह आदि धातु और ओषधि आदि पदार्थ प्राप्त कराते हैं । अथवा हे रुद्र ! विद्वन् ! ( एष ते भागः ) यह तेरा सेवन करने योग्य भाग है । (स्वस्रा अम्बिया ) उत्तम विवेककारिणी वेदवाणी से उसका विवेक करके (जुषस्व) सेवन करो । ( ते पशुः आखुः ) तेरा दर्शनकारी चित्त ही सबको चारों ओर खनन करने हारा है, वह तेरा पशु है । वह तुझे सर्वत्र पहुंचाने वाला साधन है। अध्यात्म में --  हे रुद ! प्राण ! यह अन्न तेरा भाग है । इसे विवेककारिणी वाणी के साथ भोग कर । चारों तरफ व्याप्त वायु या प्राण ही तेरा  , तेरे वाहन के समान है । शत० २ । ६ । २ । १० ॥

    टिप्पणी

     ५७ –बन्धुःॠषिः ।द०। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः । रुद्रो देवता । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा एखादा विद्वान बंधू आपल्या भगिनीबरोबर वेदादी शब्दविद्येचा (वेदवाणीचा) अभ्यास करून आनंदित होते तसेच विद्वानही विद्येची प्राप्ती करून सुखी होतो. जसा हा प्राण श्रेष्ठ शब्दविद्येने (वेदवाणीने) प्रिय, आनंददायक वाटतो तसेच सुशिक्षित विद्वानही सर्वांना सुखी करणारा असतो. या दोन्हीशिवाय कोणीही व्यक्ती सत्यज्ञान प्राप्त करू शकत नाही किंवा सुखाचा उपभोग घेऊ शकत नाही.

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    विषय

    मनाचे लक्षण सांगितल्यानंतर आतां प्राणांच्या लक्षणाविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (रूद्र) अन्यायी मनुष्यांना रडविणार्‍या विद्वान महाशय. (ते) तुमच्या करिता प्रस्तुत (एषः) हा जो (भाः) सेवनास योग्य असा पदार्थसमूह आहे (जे आम्ही अन्यायापासून आमचे रक्षण करण्याबद्दल तुम्हाला भेट देत आहोत) याचे तुम्ही (अम्बिकथा) वेदवाणीचे (पठण-अध्ययन करीत) (स्वस्रा) उत्तम विद्या व कृती (सह) सह (जुषस्व) सेवन करा. (रक्षण विद्याध्ययन करीत आम्ही प्रसुत केलेल्या पदार्थाने पुष्ट व्हा) तसेच हे (रूद्र) विहान, (ते) तुमचा) (एषः) हा जो (भागः) धर्माने व अधिकाराने प्रप्तव्य अंश आहे, त्याचे व (स्वाहा) वेदवाणीने सेवन करा. (रूद्र) हे विद्वान, (ते) तुमचे (एषः) हे जे (आखुः) खोदण्याचे साधन आहे व जो (पशुः) भोग्य पदार्थ आहे, (तम्) त्याचा (जुषस्व) योग्य वापर करा ॥1॥ ^दुसरा अर्थ - (प्राणपरक अर्थ) जो (एषः) हा (रूद्र) प्राण आहे, (ते) त्याचा (एषः) हा जे देय भाग किंवा वाटा आहे, त्या भागाचे त्याने (अम्बिकया) वाणीसोबत किंवा (स्वस्रा) विद्या व कृती (सह) सह (जुषस्व) सेवन करावे (प्राण शक्तीचा वाणी व विद्याप्राप्ती आणि व्यवहारासाठी उपयोग करावा) तसेच (ते) त्या प्राणाचा (स्वाहा) सत्यभाषणरूप जो (भागः) आहे, तसेच जे (आखुः) खोदण्यामुळे प्राप्त होणारे पदार्थ आहेत व जे (पशुः) जमिनीच्या वर उगवणारे व दिसणारे भोग्य पदार्थ आहेत, त्यांचा हा प्राण (जुषस्व) सेवन करीत असतो, त्यांचेच सेवन सर्व माणसांनी केले पाहीजे. (प्राणरक्षणासाठी भूमिगत किंवा भूउत्पन्न भोग्य अन्नादींचा उपभोग घेतला पाहिजे. तसेच सत्यभाषण प्राणशक्ती वाढविणारा गुण आहे) ॥2॥ ॥57॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे पूर्ण विद्यायुक्त एक भाऊ आपल्या बहिणीसह वेदवाणी व शब्दविद्या शिकून आनंदित होतो, त्याप्रमाणे विद्वान देखील विद्या प्राप्त करून सुखी होत असतो, ज्याप्रमाणे हा प्राण श्रेष्ठ शब्दविद्येमुळे प्रिय आणि आनंददायी वाटतो, त्याप्रमाणे सुशिक्षित विद्वान देखील सर्वांना सुखी करतो. वेदविद्या व शब्दविद्या या दोन्हीचे ज्ञान प्राप्त केल्याशिवाय (किंवा विद्वान् व प्राणशक्ती या दोन्ही शिवाय) कोणीही माणूस सत्यज्ञान मिळविण्यात अगर सुखोपभोग घेण्यात समर्थ होऊ शकत नाही. ॥57॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, the chastiser of the sinful and the unrighteous, all these eatable things are for thee. Accept them with thy knowledge and vedic lore. O learned man, follow the Veda and the law of Dharma. O learned person, accept the food worth eating which uproots all diseases.

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    Meaning

    Man of justice, Rudra, this is your share of knowledge. Take it with its sister, companion, the vision of the Veda. Serve it with reverence. Extend it in creative action through yajna. Man of justice and power, this is your share of wealth. Take it with its sister, companion, the voice of the Veda. Serve it with reverence. Use and enjoy it with restraint. Take up the tool, the spade, and dig your garden. Work is wealth and worship. Use the tool and the wealth with the voice of the Veda.

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    Translation

    O vital breath, this portion (of oblation) is for you. Take it and enjoy it with your sister, the autumn. Svaha. (1) О vital breath, this is your portion; let tubers be your food. (2)

    Notes

    Rudra, vital breath; also the terrible punisher. , Traditionally, the fierce Tempest-god, destroyer of men and cattle. Ambika, autumn. Akhuh, tubers; also mouse. Pasuh, victim; food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ মনলক্ষণকথনানন্তরং প্রাণলক্ষণমুপদিশ্যতে ॥
    মনের লক্ষণ বলার পর প্রাণের লক্ষণের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (রুদ্র) অন্যায়কারী মনুষ্যদিগকে রোদন করায় যে বিদ্বান্ । (তে) তোমার যে (এষঃ) এই (ভাগঃ) সেবন করিবার যোগ্য পদার্থসমূহ, তাহাকে তুমি (অম্বিকয়া) বেদবাণী বা (স্বস্রা) উত্তম বিদ্যা বা ক্রিয়া (সহ) সহ (জুষস্ব) সেবন কর তথা হে (রুদ্র) বিদ্বান্ । যে (তে) তোমার (এষঃ) এই (ভাগঃ) ধর্মসিদ্ধ অংশ বা (স্বাহা) বেদবাণী তাহার সেবন কর এবং হে (রুদ্র) বিদ্বান্ । (তে) তোমার যে (এষঃ) এই (আখুঃ) খননীয় শস্ত্র বা (পশুঃ) ভোগ্য পদার্থ (তম্) তাহাকে (জুষস্ব) সেবন কর ॥ ১ ॥ যে (এষঃ) এই (রুদ্র) প্রাণ, (তে) যাহার (এষঃ) এই (ভাগঃ) অংশ যাহাকে (অম্বিকয়া) বাণী বা (স্বস্রা) বিদ্যাক্রিয়া (সহ) সহ (জুষস্ব) সেবন করে অথবা যে (তে) যাহার (স্বাহা) সত্য বাণী রূপ (ভাগঃ) অংশ এবং যে ইহার (আখুঃ) খনন করিবার পদার্থ বা (পশুঃ) দর্শনীয় ভোগ্য পদার্থ যাহার ইহা (জুষস্ব) সেবন করে তাহার সেবন সকল মনুষ্য সর্বদা করিতে থাকুক ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যেমন ভাই পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত স্বীয় ভগ্নি সহ বেদাদি শব্দবিদ্যা পাঠ করিয়া আনন্দ ভোগ করে সেইরূপ বিদ্বান্ও বিদ্যা প্রাপ্ত হইয়া সুখী হইয়া থাকে । যেমন এই প্রাণ শ্রেষ্ঠ শব্দ বিদ্যা বলে প্রিয় আনন্দদায়ক হইয়া থাকে সেইরূপ সুশিক্ষিত বিদ্বান্ও সকলকে সুখী করে । এই দুইটি ব্যতীত কোনও মনুষ্য সত্যজ্ঞান বা সুখ ভোগ প্রাপ্ত হইতে সক্ষম হইতে পারে না ॥ ৫৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    এ॒ষ তে॑ রুদ্র ভা॒গঃ স॒হ স্বস্রাম্বি॑কয়া॒ তং জু॑ষস্ব॒ স্বাহৈ॒ষ তে॑ রুদ্র ভা॒গऽআ॒খুস্তে॑ প॒শুঃ ॥ ৫৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    এষ ত ইত্যস্য বন্ধুর্ঋষিঃ । রুদ্রো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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