यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - पूर्वार्द्धस्याग्निरुत्तरार्द्धस्य सूर्यश्च देवते
छन्दः - गायत्री,भूरिक् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
3
स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जू रात्र्येन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णोऽअ॒ग्निर्वे॑तु॒ स्वाहा॑। स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जूरु॒षसेन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णः सूर्यो॑ वेतु॒ स्वाहा॑॥१०॥
स्वर सहित पद पाठस॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। रात्र्या॑। इन्द्र॑व॒त्येतीन्द्र॑ऽवत्या। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। उ॒षसा। इन्द्र॑व॒त्येतीन्द्र॑ऽवत्या। जु॒षा॒णः। सूर्यः॑। वे॒तु॒। स्वाहा॑ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या । जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा । सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या । जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
सजूरिति सऽजूः। देवेन। सवित्रा। सजूरिति सऽजूः। रात्र्या। इन्द्रवत्येतीन्द्रऽवत्या। जुषाणः। अग्निः। वेतु। स्वाहा। सजूरिति सऽजूः। देवेन। सवित्रा। सजूरिति सऽजूः। उषसा। इन्द्रवत्येतीन्द्रऽवत्या। जुषाणः। सूर्यः। वेतु। स्वाहा॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
भौतिकावग्निसूर्यौ कस्य सत्तया वर्तेत इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अयमग्निर्देवेन सवित्रा जगदीश्वरेणोत्पादितया सृष्ट्या सह सजूर्जुषाण इन्द्रवत्या रात्र्या सह स्वाहा जुषाणः सन् वेतु सर्वान् पदार्थान् व्याप्नोति। एवं सूर्य्यो देवेन सवित्रा सकलजगदुत्पादकेन धारितया सृष्ट्या सह सजूर्जुषाण इन्द्रवत्योषसा सह स्वाहा जुषाणः सन् हुतं द्रव्यं वेतु व्याप्नोति॥१०॥
पदार्थः
(सजूः) यः समानं जुषते सेवते सः (देवेन) सर्वजगद्द्योतकेन (सवित्रा) सर्वस्य जगत उत्पादकेनेश्वरेणोत्पादितया (सजूः) यः समानं जुषते प्रीणाति सः (रात्र्या) तमोरूपया (इन्द्रवत्या) इन्द्रो बह्वी विद्युद् विद्यते यस्यां तया। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। स्तनयित्नुरेवेन्द्रः। (शत॰१४.६.९.७) (जुषाणः) यो जुषते सेवते सः (अग्निः) भौतिकः (वेतु) व्याप्नोति। अत्र लडर्थे लोट् (स्वाहा) ईश्वरस्य स्वा वागाहेत्यस्मिन्नर्थे (सजूः) उक्तार्थः (देवेन) सूर्यादिप्रकाशकेन (सवित्रा) सर्वान्तर्यामिना जगदीश्वरेणोत्पादितया (सजूः) उक्तार्थः (उषसा) रात्र्यवसानोत्पन्नया दिवसहेतुना (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाशसहितयोषसा (जुषाणः) सेवमानः सूर्यलोकः (वेतु) प्राप्नोति। अत्रापि लडर्थे लोट्। (स्वाहा) हुतामाहुतिम्। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.१.३७-३९) व्याख्यातः॥१०॥
भावार्थः
हे मनुष्या! यूयं योऽयमग्निरीश्वरेण निर्मितः स तत्सत्तया स्वस्वरूपं धारयन् सन् रात्रिस्थान् व्यवहारान् प्रकाशयति। एवं च सूर्य उषःकालमेत्य सर्वाणि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाशयितुं शक्नोतीति विजानीत॥१०॥
विषयः
भौतिकावग्निसूर्यौ कस्य सत्तया वर्तेत इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
अयमग्निः भौतिको देवेन सर्वजगद्योतकेन सवित्रा=जगदीश्वरेणोत्पादितया सर्वस्य जगत उत्पादकेनेश्वरेणोत्पादितया सृष्ट्या सह सजूः यः समानं जुषते=प्रीणाति स जुषाणः यो जुषते=सेवते सः इन्द्रवत्या इन्द्रो=बह्वी विद्युद् विद्यते यस्यां तया रात्र्या तमोरूपया सह [सजूः] यः समानं जुषते=प्रीणाति स स्वाहा ईश्वरस्य स्वा वागाह जुषाणः सन् वेतु=सर्वान् पदार्थान् व्याप्नोति ।
एवं सूर्य्यः सूर्यलोको देवेन सूर्यादिप्रकाशकेन सवित्रा=सकलजगदुत्पादकेन धारितया, सर्वान्तर्यामिना जगदीश्वरेणोत्पादितया सृष्ट्या सह सजूः उक्तार्थ: जुषाणः सेवमान इन्द्रवत्या सूर्यप्रकाशसहितया उषसा रात्र्यवसानोत्पन्नया दिवस हेतुना सहस्वाहा हुतामाहुतिं जुषाणः सेवमानः सन् हुतं द्रव्यं वेतु=व्याप्नोति ।। ३ । १० ।।
[अयमग्निर्देवेन सवित्रा=जगदीश्वरेणोत्पादितया सृष्ट्या सह ...रात्र्या सह.....वेतु=सर्वान्
पदार्थान् व्याप्नोति ]
पदार्थः
(सजूः) यः समानं जुषते=सेवते सः (देवेन) सर्वजगद् द्योतकेन (सवित्रा) सर्वस्य जगत उत्पादकेनेश्वरेणोत्पादितया (सजूः) यः समानं जुषते=प्रीणाति सः (रात्र्या) तमोरूपया (इन्द्रवत्त्या) इन्द्रो=बह्वी विद्युद्विद्यते यस्यां तया । अत्र भूम्न्यर्थे मतुप् । स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ॥ शत० १४ । ५। ७ ॥ ७ ॥ (जुषाणः) यो जुषते=सेवते सः (अग्निः) भौतिकः ( वेतु) व्याप्नोति । अत्र लडर्थे लोट् (स्वाहा) ईश्वरस्य स्वागाहेत्यस्मिन्नर्थे (सजू:) उक्तार्थ: (देवेन) सूर्यादिप्रकाशकेन (सवित्रा) सर्वांतर्यामिना जगदीश्वरेणोत्पादितया (सजूः) उक्तार्थ: (उषसा) रात्र्यवसानोत्पन्नया दिवसहेतुना (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाशसहितयोषसा (जुषाणः) सेवमानः (सूर्य:) सूर्यलोकः (वेतु) व्याप्नोति । अत्रापि लडर्थे लोट् (स्वाहा) हुतामाहुतिम् ॥ अयं मंत्र: शत॰ २। २।३। ३७–३९ व्याख्यातः ।। १० ।।
भावार्थः
-हे मनुष्याः ! यूयं योऽयमग्निरीश्वरेण निर्मितः स तत्सत्तया स्वस्वरूपं धारयन् सन् रात्रिस्थान् व्यवहारान् प्रकाशयति ।
[एवं सूर्य:..... उषसा सह...... द्रव्यं वेतु=व्याप्नोति ]
एवं च सूर्य उषःकालमेत्य सर्वाणि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाशयितुं शक्नोतीति विजानीत ।। ३ । १० ।।
विशेषः
प्रजापतिः । पूर्वार्द्धस्याग्निरुत्तरार्द्धस्य सूर्यश्च=भौतिकार्थः ॥ पूर्वार्द्धस्य गायत्र्युत्तरार्द्धस्य भुरिग्गायत्री च छन्दः । षड्ज: ।।
हिन्दी (4)
विषय
भौतिक अग्नि और सूर्य ये दोनों किस की सत्ता से वर्त्तमान हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(अग्निः) जो भौतिक अग्नि (देवेन) सब जगत् को ज्ञान देने वा (सवित्रा) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले ईश्वर के उत्पन्न किये हुए जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता हुआ (इन्द्रवत्या) बहुत बिजुली से युक्त (रात्र्या) अन्धकार रूप रात्रि के साथ (स्वाहा) वाणी को सेवन करता हुआ (वेतु) सब पदार्थों में व्याप्त होता है, इसी प्रकार (सूर्यः) जो सूर्यलोक (देवेन) सब को प्रकाश करने वाले वा (सवित्रा) सब के अन्तर्यामी परमेश्वर के उत्पन्न वा धारण किये हुए जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता वा (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाश से युक्त (उषसा) दिन के प्रकाश के हेतु प्रातःकाल के साथ (स्वाहा) अग्नि में होम की हुई आहुतियों को (जुषाणः) सेवन करता हुआ व्याप्त होकर हवन किये हुए पदार्थों को (वेतु) देशान्तरों में पहुँचाता है, उसी से सब व्यवहार सिद्ध करें॥१०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोग जो भौतिक अग्नि ईश्वर ने रचा है, वह इसी की सत्ता से अपने रूप को धारण करता हुआ दीपक आदि रूप से रात्रि के व्यवहारों को सिद्ध करता है। इसी प्रकार जो (सूर्य) प्रातःकाल को प्राप्त होकर सब मूर्तिमान् द्रव्यों के प्रकाश करने को समर्थ है, वही काम सिद्धि करने हारा है, इसको जानो॥१०॥
विषय
इन्द्रवती रात्रि व उषा
पदार्थ
गति के द्वारा शक्ति व ज्ञान का विकास करनेवाला यह प्रजापति अपनी जीवन-यात्रा में निम्न प्रकार से चलता है— १. ( सवित्रा देवेन ) = सबके प्रेरक दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु से ( सजूः ) = मित्रतावाला, अर्थात् इस जीवन-यात्रा में प्रभु उसके साथ होते हैं। यह सदा प्रभु का स्मरण करते हुए अपनी जीवन-क्रियाओं को करता है।
२. ( इन्द्रवत्या रात्र्या ) = इन्द्रवाली रात्रि के ( सजूः ) = साथ, अर्थात् यह प्रतिदिन रात्रि के आरम्भ में प्रभु-स्मरण करते हुए ही सोता है। सारी रात उस प्रभु के साथ ही इसका सम्बन्ध बना रहता है। यदि हम विषयों का चिन्तन करते हुए सोएँगे तो रात में भी उन विषयों के सेवन में ही लगे रहेंगे और इस प्रकार रात्रि ‘इन्द्रियों’ वाली हो जाएगी।
३. एवं, दिन में सदा प्रभु का स्मरण करते हुए रात में भी प्रभु का स्वप्न लेते हुए हम ( जुषाणः ) = सबके साथ प्रीतिपूर्वक वर्त्तनेवाले बनें। प्रभु कहते हैं कि यह प्रीतिपूर्वक वर्त्तनेवाला ( अग्निः ) = प्रगतिशील व्यक्ति ही ( वेतु ) = [ वी गतौ ] मुझे प्राप्त हो। ( स्वाहा ) = इस प्रीतिपूर्वक बर्त्ताव के लिए वह ‘स्व’ का ‘हा’ त्याग करना सीखे।
४. ( देवेन सवित्रा सजूः ) = उस प्रेरक देव से मित्रतावाला—अर्थात् प्रभु को ही सच्चा मित्र जाननेवाला ( इन्द्रवत्या उषसा सजूः ) = इन्द्रवाले उषःकाल के साथ, अर्थात् उषःकाल में उठकर सर्वप्रथम प्रभु का ही ध्यान करनेवाला ( जुषाणः ) = सबके साथ प्रीतिपूर्वक वर्त्तता हुआ अथवा स्वधर्म का प्रीति से सेवन करता हुआ ( सूर्यः ) = यह निरन्तर क्रियाशील, सूर्य के समान प्रकाशवाला व्यक्ति ( वेतु ) = प्रभु को प्राप्त हो। इसके लिए वह ( स्वाहा ) = स्वार्थत्याग की भावना को अपने में उद्बुद्ध करे।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु की प्राप्ति के लिए तीन बातें आवश्यक हैं— १. हमारी जीवन-यात्रा में वे सवितादेव हमारे साथी हों। २. हमारी रात्रि व उषाःकाल प्रभु-स्मरण में बीते और ३. हमारा सारा बर्त्ताव प्रीतिपूर्वक हो।
विषय
भौतिक अग्नि और सूर्य किस की सत्ता से वर्त्तमान हैं, इस विषय का उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ
यह ( अग्निः) भौतिक अग्नि (देवेन) सब जगत् के प्रकाशक ( सवित्रा) सब जगत् के उत्पादक जगदीश्वर के द्वारा उत्पन्न सृष्टि के साथ (सजूः) समानता से (जुषाणः) सेवन की जाती हुई तथा (इन्द्रवत्या) विद्युत् वाली (रात्र्या) तमोरूप रात्रि के साथ [सजू:] समानतया (स्वाहा) ईश्वर के उपदेशानुसार (जुषाणः) सेवन की जाती हुई [अग्नि ] (वेतु) सब पदार्थों को प्रकाशित करती है ।
तथा (सूर्य:) सूर्यलोक ( देवेन) सूर्य आदि के प्रकाशक ( सवित्रा) सकल जगत् के उत्पादक सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर के द्वारा धारण एवं उत्पन्न सृष्टि के साथ (सजुः) समानता से (जुषाणः) सेवन किया हुआ [सूर्य ] ( इन्द्रवत्या) सूर्य प्रकाश सहित (उषसा) रात्रि-विराम से उत्पन्न, दिन की निमित्त उषा के साथ (स्वाहा) हवन की हुई आहुति को (जुषाणः) सेवन करता हुआ आहुत द्रव्य को (वेतु) प्राप्त करता है ।। ३ । १० ।।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो यह अग्नि ईश्वर ने रचा है। वह उसकी सत्ता से अपने स्वरूप को धारण करता हुआ रात्रि के व्यवहारों को प्रकाशित करता है।
और इसी प्रकार सूर्य उषा काल को प्राप्त होकर सब मूर्त्त द्रव्यों को प्रकाशित करने में समर्थ होता है, ऐसा तुम समझो ।। ३ । १० ।।
प्रमाणार्थ
(इन्द्रवत्या) यहाँ आधिक्य अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है। शत० (१४।५। ७ । ७) में 'इन्द्र' शब्द का अर्थ 'स्तयित्नु' (विद्युत्) है। (वेतु) व्याप्नोति। यहाँलट् अर्थ में लोट् लकार है। (वेतु) (व्याप्नोति) यहाँभी लट् अर्थ में लोट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ ।२।३ । ३७-३९ ) में की गई है ।। ३ । १० ।।
भाष्यसार
अग्नि किसकी सत्ता से है--सब जगत् का प्रकाशक एवं सकल जगत् को उत्पन्न करने वाला ईश्वर है, उसी ने सृष्टि को रचा है। इस सृष्टि में ईश्वर ने समान रूप से अग्नि को भी रचा है। ईश्वर की सत्ता से ही अग्नि की सत्ता है। यह इन्द्रवती (विद्युत् वाली) रात्रि के सब व्यवहारों को प्रकाशित करता है। सब पदार्थों में व्याप्त है।
२. सूर्य किस की सत्ता से है–सूर्य आदि लोकों का प्रकाशक एवं सकल जगत् का उत्पादक ईश्वर है, जो सर्वान्तर्यामी है। उसने सृष्टि के साथ सूर्यलोक को भी रचा है । ईश्वर की सत्ता से ही सूर्य की सत्ता है। सूर्य इन्द्रवती (सूर्य प्रकाश वाली) उषा के साथ होम की हुई आहुति का सेवन करता हुआ होम किये हुये द्रव्य को व्यापक बना देता है, तथा सब मूर्त्त द्रव्यों को प्रकाशित करता है।
अन्यत्र व्याख्यात
महर्षि ने इस मन्त्र के पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध भाग को पञ्चमहायज्ञविधि (देवयज्ञविधि) में क्रमशः सायं और प्रातःकाल की आहुतियों में विनियुक्त करके वहाँ इस प्रकार से व्याख्या की है :--
“(सजूर्देवेन०)" [सायंकाल की आहुति] जो परमेश्वर प्राण आदि में व्यापक, वायु और रात्रि के साथ पूर्ण, सब पर प्रीति करने वाला और सबके अङ्ग-२ में व्याप्त है, वह अग्नि परमेश्वर हमको प्राप्त हो। जिसके लिये हम होम करते हैं ॥ ४ ॥
(सजूर्देवेन०) [प्रातःकाल की आहुति] जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्यापक, वायु और दिन के साथ परिपूर्ण सब पर प्रीति करने वाला और सबके अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त है। वह अग्नि परमेश्वर हमको विदित हो । उसके अर्थ हम होम करते हैं" ॥ ४ ॥
महर्षि ने संस्कारविधि (गृहाश्रमप्रकरण) में प्रातः एवं सायंकाल की आहुतियों में इस मन्त्र का विनियोग किया है।
महर्षि ने इस मन्त्र के दोनों खण्डों की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (पंचमहायज्ञ विषय) में इस प्रकार की है—"(सजूर्देवेन) [प्रातः] जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्याप्त वायु और दिन के साथ संसार का परम हितकारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किये हुये होम को ग्रहण करें" ॥ ४ ॥
(सजूर्देवेन०) [सायं] जो अग्नि परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और रात्रि के साथ संसार का परम हितकारक है। वह हमको विदित होकर हमारे किये हुए होम का ग्रहण करें । "
विषय
प्रातः सांय के हवन मन्त्रों में ईश्वरोपासना और भौतिक तत्त्व ।
भावार्थ
( अग्निः ) यह भौतिक अग्नि जिस प्रकार ( देवेन सवित्रा ) सर्व प्रकाशक, सर्व व्यवहारप्रवर्तक, सर्वोत्पादक परमेश्वर के बल से (सजूः) सब पदार्थों को समान भाव से सेवन करता है । (इन्द्रवत्या) इन्द्र, वायु से युक्त ( रात्र्या ) रात्रि या आदानकारिणी शक्ति से युक्त होकर ( सजूः ) समस्त पदार्थों को समान रूप से अपने भीतर लीन करता है, उसी प्रकार ( अग्निः ) प्रकाशक अग्नि, सर्वेश्वर परमात्मा (जुषाणः ) सबको प्रेम करता हुआ या सबको सेचन करता हुआ ( अग्निः ) भौतिक अग्नि के समान ही. परमेश्वर ( स्वाहा ) अपनी महिमा या महत्व शक्ति से ( वेतु ) सर्वत्र व्याप्त है और (देवेन) सर्व प्रकाशक ( सवित्रा ) सर्वोत्पादक परमेश्वर के बल से सूर्य ( सजू : ) सर्वत्र समान भाव से व्याप्त होता है और वही (इन्द्रवत्या ) प्रकाशमय ( उषसा ) उषा या प्रभा के साथ ( सजूः ) समान भाव से व्याप्त होता है, उसी प्रकार ( सूर्यः ) सर्व प्रेरक परमेश्वर सबको ( जुषाणः ) प्रेम करता हुआ ( स्वाहा ) अपनी महान् शक्ति से सर्वत्र ( वेतु ) व्यापक है, सबको अपने भीतर लिये है |
अग्निहोत्र पक्ष में देव सविता परमेश्वर की उत्पादित सृष्टि के साथ मिल कर और इन्द्रवती रात्रि अर्थात् विद्युत् शक्ति से युक्त रात्रि से मिल कर हवि आदि को अग्नि अपने भीतर ले । इसी प्रकार ईश्वरीय शक्ति से युक्त और प्रकाश युक्त उषा से होकर सूर्य चरुद्रव्यों को अपने भीतर ले ॥
टिप्पणी
१० - इतः परं मन्त्रचतुष्कं काण्व० पठित परिशिष्टे द्रष्टव्यम्।
१ सजुर्देवेन। २ सजूर्देवेन।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः । ( १ ) अग्निः (२) सू्र्यः।( १) गायत्री, (२) भुरिग्गायत्री । षड्जः स्वरः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ईश्वराने जो भौतिक अग्नी निर्माण केलेला आहे तो ईश्वराच्या सामर्थ्यानेच विविध रूपे धारण करतो. दीपक वगैरेच्या माध्यमाने रात्रीचे व्यवहार पार पाडले जातात. याचप्रमाणे प्रातःकाळी सूर्य पदार्थांना प्रकाशित करतो त्या ईश्वरामुळेच हे सर्व कार्य घडते हे जाणा.
विषय
भौतिक अग्नी आणि सूर्य कोणाच्या सत्तेने विद्यमान आहेत, पुढील मंत्रात याविषयीचा उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (अग्नी:) हा भौतिक अग्नी (देवेन) सर्व जगाला ज्ञान देणार्या (सवित्रा) सर्वोत्पादक परमेश्वराने उत्पन्न केलेल्या या जगात (सजू:) सर्वत्र व सर्वांसह विद्यमान आहे. (अग्नी परमेश्वराची रचना आहे.) तोच (जुपाण:) सर्व पदार्थांशी संयुक्त होऊन (इन्द्रवत्या) विद्युत रूपाने (रात्र्या) अंधकारमय रात्रीत (स्वाहा) ????? (वेतु) सर्वांना प्रकाश देत व्याप्त आहे. (सूर्य:) सूर्यलोक (देवेन) सर्वांना प्रकाश व प्रेरणा देणार्या (सवित्रा) अंतर्यामी परमेश्वराने धारण केलेल्या जगासह (संजू:) सर्वांसह विद्यमान आहे. अग्नी (जुषाण:) सर्वांसह राहून व (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाशाशी संयुक्त होऊन (उषसा) दिवसाच्या प्रारंभी उष:काळी (स्वाहा) अग्नीत टाकलेल्या आहुतीचे (जुषाण:) सेवन करतो आणि सर्वत्र व्याप्ती होऊन हव्य पदार्थांना (वेतु) देश-देशांतरा पर्यंत नेतो, त्या अग्नीचा सर्वांनी योग्य उपयोग करीत सर्व व्यवहार सिद्ध करावेत.॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, परमेश्वराने तुमच्या हिताकरितां ज्या भौतिक अग्नीची रचना केली आहे, तो आपल्या सामर्थ्यासह विविध रूप धारण करतो, (अनेक पदार्थामधे विद्युत, आग, दीपक आदी रूपाने विद्यमान असतो) तो अग्नी दीपक होऊन रात्रीच्या अंश्रकारात देखील सर्वांना कामें करण्यास सहाय्यभूत होतो. तसेच तोच अग्नी प्रात:काळी किंवा उष:काळी येऊन सर्व मूर्तिमान, साकार पदार्थांना प्रकाशित करतो, त्यामुळे सर्वजण आपले काम, व्यवहारादी पूर्ण करण्यास समर्थ होतात. मनुष्यांनो, तुम्ही अशा या गुणवान अग्नीला जाणा (व त्यापासून योग्य लाभ घ्या.)॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as God gives the light of truthful speech to all human beings, so does physical fire give light that illumines all substances. Just as God inculcates knowledge in the souls of all, that man should speak, as he feels in his heart, so does the Sun bring to light all physical objects. Just as God reveals for humanity all the four Vedas, the storehouse of knowledge, so does fire in the shape of lighting exist in the space, and become the source of rain and knowledge. Just as God, through the Vedas displays all sciences, fire, and lightning, so does the Sun develop our physical and spiritual forces. Sun illumines all objects. God is self-Resplendent. This is the manifestation of His Glory.
Meaning
May Agni, along with Savita in His creation and the dark night of energy, receive this oblation. May the Sun, along with Savita in His creation and the dawn of morning energy, receive this oblation.
Translation
May the fire divine, in consonance with the Creator God as well as with the night associated with the resplendent Lord, be pleased to come here and enjoy. Svaha. (1) May the sun, the illuminator, in consonance with Creator God as well as the dawn associated with the resplendent Lord, be pleased to come here and enjoy. Svaha. (2)
Notes
Devena savitra sajuh, in consonance with the creator Lord. Vetu, may come and enjoy.
बंगाली (1)
विषय
ভৌতিকাবগ্নিসূর্য়ৌ কস্য সত্তয়া বর্তেত ইত্যুপদিশ্যতে ॥
ভৌতিক অগ্নি ও সূর্য্য এই দুইটি কাহার সত্তায় বর্ত্তমান এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (অগ্নিঃ) যে ভৌতিক অগ্নি (দেবেন) সর্বজগতের জ্ঞানদাতা অথবা (সবিতা) সর্ব জগতের উৎপন্নকারী ঈশ্বরের উৎপন্ন করা জগৎ সহ (সজূঃ) তুল্য বর্ত্তমান (জূষাণঃ) সেবন করিতে অথবা (ইন্দ্রবত্যা) বহু বিদ্যুৎ যুক্ত (রাত্রা) অন্ধকার রূপ রাত্রি সহ (স্বাহা) বাণী সেবন করিতে থাকিয়া (বেতু) সকল পদার্থে ব্যাপ্ত হয়, সেইরূপ (সূর্য়ঃ) যে সূর্য্যলোক (দেবেন) সকলের প্রকাশক অথবা (সবিত্রা) সকলের অন্তর্য্যামী পরমেশ্বরের উৎপন্ন বা ধারণ করা জগৎ সহ (সজূঃ) তুল্য বর্ত্তমান (জুষাণঃ) সেবন করিতে অথবা (ইন্দ্রবত্যা) সূর্য্যপ্রকাশ যুক্ত (উষসা) দিনের প্রকাশ হেতু প্রাতঃকাল সহ (স্বাহা) অগ্নিতে হোমকৃত আহুতির (জুষাণঃ) সেবন করিতে থাকিয়া ব্যাপ্ত হইয়া হবনকৃত পদার্থকে (বেতু) দেশ-দেশান্তরে পৌঁছাইয়া দেয়, তাহা দ্বারা সকল ব্যবহার সিদ্ধ করিবে ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে ভৌতিক অগ্নি ঈশ্বর রচনা করিয়াছেন তাহা ইহারই সত্তা বলে নিজ নিজ রূপ ধারণ করিয়া দীপকাদি রূপে রাত্রির ব্যবহার সিদ্ধ করে । এইরূপ যে প্রাতঃকালকে প্রাপ্ত হইয়া সকল মূর্ত্তিমান দ্রব্য সকলকে প্রকাশ দান করিতে সক্ষম সেই কর্ম সিদ্ধি করা দরকার, এইরূপ জানিবে ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒জূর্দে॒বেন॑ সবি॒ত্রা স॒জূ রাত্র্যেন্দ্র॑বত্যা । জু॒ষা॒ণোऽঅ॒গ্নির্বে॑তু॒ স্বাহা॑ । স॒জূর্দে॒বেন॑ সবি॒ত্রা স॒জূরু॒ষসেন্দ্র॑বত্যা । জু॒ষা॒ণঃ সূর্য়ো॑ বেতু॒ স্বাহা॑ ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সজূরিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । পূর্বার্দ্ধস্যাগ্নিরুত্তরার্দ্ধস্য সূর্য়শ্চ দেবতে । পূর্বার্দ্ধস্য গায়ত্র্যুত্তরার্দ্ধস্য ভুরিগ্ গায়ত্রী চ ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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