यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 58
ऋषिः - बन्धुर्ऋषिः
देवता - रुद्रो देवता
छन्दः - विराट् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
अव॑ रु॒द्रम॑दीम॒ह्यव॑ दे॒वं त्र्य॑म्बकम्। यथा॑ नो॒ वस्य॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नः॒ श्रेय॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नो व्यवसा॒यया॑त्॥५८॥
स्वर सहित पद पाठअव॑। रु॒द्रम्। अ॒दी॒म॒हि॒। अव॑। दे॒वम्। त्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। यथा॑। नः॒। वस्य॑सः। कर॑त्। यथा॑। नः॒। श्रेय॑सः। कर॑त्। यथा॑। नः॒। व्य॒व॒सा॒यया॒दिति॑ विऽअवसा॒यया॑त् ॥५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अव रुद्रमदीमह्यव देवन्त्र्यम्बकम् । यथा नो वस्यसस्करद्यद्यथा नः श्रेयसस्करद्यद्यथा नो व्यवसाययात् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अव। रुद्रम्। अदीमहि। अव। देवम्। त्र्यम्बकमिति त्रिऽअम्बकम्। यथा। नः। वस्यसः। करत्। यथा। नः। श्रेयसः। करत्। यथा। नः। व्यवसाययादिति विऽअवसाययात्॥५८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ रुद्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते॥
अन्वयः
वयं त्र्यम्बकं देवं रुद्रं जगदीश्वरमुपास्य दुःखान्यवादीमह्यवक्षाययेम। स यथा नोऽस्मान् वस्यसोऽव करद्, यथा नोऽस्मान् श्रेयसोऽव करद्, यथा नोऽस्मान् व्यवसाययात्, तथा तं वसीयांसं व्यवसायप्रदं परमेश्वरमेव प्रार्थयामः॥५८॥
पदार्थः
(अव) विनिग्रहार्थे (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारं परमेश्वरम् (अदीमहि) सर्वाणि दुःखानि क्षाययेम नाशयेम। अत्र दीङ् क्षय इत्यस्माल्लिङर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति श्यनो लुक्। (अव) अवगमार्थे (देवम्) दातारम् (त्र्यम्बकम्) अमति येन ज्ञानेन तदम्बं त्रिषु कालेष्वेकरसं ज्ञानं यस्य तम्। अत्र अमगत्यादिष्वस्माद् बाहुलकेन करणकारके वः प्रत्ययस्ततः शेषाद्विभाषा (अष्टा॰५.४.१५४) इति समासान्तः कप् प्रत्ययः। (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मान् (वस्यसः) येऽतिशयेन वसन्ति ते वसीयांसस्तान्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा [अष्टा॰भा॰वा॰८.२.२५] इतीकारलोपः। (करत्) कुर्य्यात्, अयं लेट् प्रयोगः। डुकृञ् करण इत्यस्य भ्वादिगणान्त-र्गतपठितत्वाच्छव्विकरणोऽत्र गृह्यते। तनादिभिः सह पाठादुविकरणोऽपि। कःकरत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः (अष्टा॰८.३.५०) नित्यं करोतेः (अष्टा॰६.४.१०८) एताभ्यां द्वाभ्यां ज्ञापकाभ्यामप्युभयगणप्रयोगः कृञ् गृह्यते। (यथा) (नः) अस्मान् (श्रेयसः) अतिशयेन प्रशस्तान् (करत्) कुर्य्यात् अत्रापि लेट् (यथा) (नः) अस्मान् (व्यवसाययात्) निश्चयवतः कुर्य्यात्। अयं व्यवपूर्वात् षोऽन्तकर्मणीति एजन्ताद्धातोः प्रथमपुरुषैकवचने तिपि लेट् प्रयोगः। अयं मन्त्रः (शत॰२.६.२.११) व्याख्यातः॥५८॥
भावार्थः
नहीश्वरस्योपासनेन विना कश्चिन्मनुष्यः सर्वदुःखान्तं गच्छति, यः सर्वान् सुखनिवासान् प्रशस्तान् सत्यनिश्चयान् करोति, तस्यैवाज्ञा सर्वैः पालनीयेति॥५८॥
विषयः
अथ रुद्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
वयं त्र्यम्बकम् अमति येन ज्ञानेन तदम्बं त्रिषु कालेष्वेकरसं ज्ञानं यस्य तं देवं दातारं रुद्रं=जगदीश्वरं दुष्टानां रोदयितारं परमेश्वरम् उपास्य दुःखान्यवादीमहि=अवक्षाययेम सर्वाणि दुःखानि क्षाययेम=नाशयेम ।
स यथा येन प्रकारेण नः=अस्मान् वस्यसः येऽतिशयेन वसन्ति ते वसीयांसस्तान् अवकरत् अवगमं=कुर्य्यात् यथा येन प्रकारेण नः=अस्मान् श्रेयसः अतिशयेन प्रशस्तान् अवकरत् कुर्य्यात; यथा येन प्रकारेण नः=अस्मान् व्यवसाययात् निश्चयवतः कुर्य्यात्, तथा तं वसीयांसं श्रेयांसं व्यवसायप्रदं परमेश्वरमेव प्रार्थयामः ॥ ३। ५८ ।।
[वयं त्र्यम्बकं रुद्रं=जगदीश्वरमुपास्य दुःखान्यवादीमहि=शवक्षाययेम]
पदार्थः
(अव) विनिग्रहार्थे (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारं परमेश्वरम् (अदीमहि) सर्वाणि दुःखानि क्षाययेम=नाशयेम । अत्र दीङ् क्षय इत्यस्माल्लिङर्थे लङ् । बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक् (अव) अवगमार्थे (देवम्) दातारम् (त्र्यम्बकम्) अमति येन ज्ञानेन तदम्बं त्रिषु कालेष्वेकरसं ज्ञानं यस्य तम् । अत्र अमगत्यादिष्वस्माद् बाहुलकेन करणकारके बः प्रत्ययस्ततः । शेषाद्विभाषा ।अ॰ ५ ।४ ।१५४ ॥इति समासान्तः कप् प्रत्ययः (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मान् (वस्यसः) येऽतिशयेन वसन्ति ते वसीयांसस्तान् । अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेतीकारलोपः (करत्) कुर्य्यात् । अयं लेट् प्रयोगः ।डुकृञ् करण इत्यस्य भ्वादिगणान्तर्गत पठितत्वाच्छब्विकरणोऽत्र गृह्यते । तनादिभिः सह पाठादुविकरणोपि । कः करत्करति कृधिकृतेष्वनदितेः ॥ अ० ८। ३ । ५० ॥ नित्यं करोतेः ॥ अ० ६ ।४ ।१०८ ॥ एताभ्यां द्वाभ्यां ज्ञापकाभ्यामप्युभयगणप्रयोगः कृञ्गृह्यते (यथा) (नः) अस्मान् (श्रेयसः) अतिशयेन प्रशस्तान् (करत्) कुर्य्यात् अत्रापि लेट् (यथा) (नः) अस्मान् (व्यवसाययात्) निश्चयवतः कुर्य्यात् । अयं व्ययपूर्वात् षोऽन्तकर्मणीति णिजन्ताद्धातोः प्रथमपुरुषकवचने तिपि लेट् प्रयोगः ।। अयं मंत्र: शत० २ । ६ । २ । ११ व्याख्यातः ।। ५८ ।।
भावार्थः
नहीश्वरस्योपासनेन विना कश्चिन्मनुष्यः सर्वदुःखान्तं गच्छति ।
[स यथा नः=अस्मान् वस्यसः, श्रेयसोऽवकरत्, व्यवसाययात् तथा तं वसीयांसं श्रेयांसं व्यवसायप्रदं परमेश्वरमेव प्रार्थयामः]
यः सर्वान् सुखनिवासान्, प्रशस्तान्, सत्यनिश्चयान् करोति, तस्यैवाज्ञा सर्वैः पालनीयेति ।। ३ । ५८ ।।
भावार्थ पदार्थः
भा० पदार्थः--वस्यस्य:=सुखनिवासान् । श्रेयसः=प्रशस्तान् । व्यवसाययात्=सत्यनिश्चयान् करोति । करत्=करोति ।।
विशेषः
बन्धुः ।रुद्रः=ईश्वरः ॥ विराट् पंक्तिः । पञ्चमः ।।
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में रुद्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हम लोग (त्र्यम्बकम्) तीनों काल में एकरस ज्ञानयुक्त (देवम्) देने वा (रुद्रम्) दुष्टों को रुलाने वाले जगदीश्वर की उपासना करके सब दुःखों को (अवादीमहि) अच्छे प्रकार नष्ट करें (यथा) जैसे परमेश्वर (नः) हम लोगों को (वस्यसः) उत्तम-उत्तम वास करने वाले (अवाकरत्) अच्छे प्रकार करे (यथा) जैसे (नः) हम लोगों को (श्रेयसः) अत्यन्त श्रेष्ठ (करत्) करे (यथा) जैसे (नः) हम लोगों को (व्यवसाययात्) निवास कराने वा उत्तम गुणयुक्त तथा सत्यपन से निश्चय देने वाले परमेश्वर ही की प्रार्थना करें॥५८॥
भावार्थ
कोई भी मनुष्य ईश्वर की उपासना वा प्रार्थना के विना सब दुःखों के अन्त को नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि वही परमेश्वर सब सुखपूर्वक निवास वा उत्तम-उत्तम सत्य निश्चयों को कराता है। इससे जैसी उसकी आज्ञा है, उसका पालन वैसा ही सब मनुष्यों को करना योग्य है॥५८॥
विषय
त्रयम्बकोपासन
पदार्थ
१. ‘बन्धु’ कहता है कि ( रुद्रम् ) = [ रुत् र ] हृदयस्थरूप से उपदेश देनेवाले उस प्रभु से अवअदीमहि [ दीङ् क्षये, अवक्षाययेम—द० ] हम अपने दोषों का नाश कराते हैं। पिछले मन्त्र में प्रभु को ‘आखु’ ( ) = दोषों का खनन—अवदारण करनेवाला कहा था। वे प्रभु हमारे दोषों को ‘पशु’ देखते हैं और उन्हें नष्ट करते हैं, अतः उपासना द्वारा हम उस प्रभु से अपने दोषों का क्षय कराते हैं।
२. ( देवम् ) = दिव्य गुणों के पुञ्ज ( त्रयम्बकम् ) = [ त्रि+अम्बक, अवि शब्दे ] ‘ज्ञान+कर्म+भक्ति’ रूप तीन शब्दों के उच्चारण करनेवाले उस प्रभु से ( अव ) = हम अपने दोषों को दूर कराते हैं। वे प्रभु देव हैं—उनकी उपासना हमें भी देव बनाती है। वे प्रभु त्र्यम्बक हैं, उनका उपदेश यह है कि ज्ञानपूर्वक कर्म करो, यही मेरी भक्ति है। वस्तुतः इस सूत्र को अपनाने पर दोषों का तो प्रश्न ही नहीं रह जाता।
३. प्रभु के उपासन से हम अपने को निर्दोष बनाने का प्रयत्न इसलिए करते हैं कि ( यथा ) = जिससे ( नः ) = हमें ( वस्यसः करत् ) = वे प्रभु उत्तम जीवनवाला करें, ( यथा ) = जिससे ( नः ) = हमें ( श्रेयसः ) = कल्याण प्राप्तिवाला ( करत् ) = करें। ( यथा ) = जिससे ( नः ) = हमें ( व्यवसाययात् ) = निश्चयपूर्वक कर्मों के अन्त तक पहुँचनेवाला करें [ षो अन्तकर्मणि ], अर्थात् हमारे कार्यों में हमें सफलता प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु उपासन के परिणाम निम्न हैं—[ क ] निर्दोषता [ ख ] उत्तम जीवन [ ग ] कल्याण व मोक्ष की प्राप्ति [ घ ] किये जानेवाले कार्यों में सफलता।
विषय
अब रुद्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया जाता है ॥
भाषार्थ
हम लोग (त्र्यम्बकम्) भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान इन तीनों कालों में एकरस ज्ञान वाले (देवम्) सब सुखों के दाता (रुद्रम्) दुष्टों को रुलाने वाले जगदीश्वर की उपासना करके सब दुःखों का (अव-अदीमहि ) क्षय एवं विनाश करें ।
वह परमेश्वर (यथा) जिससे (नः) हमें (वस्यसः) उत्तम रीति से बसने वाला (अवकरत्) बनाये और (यथा) जिससे (नः) हमें (श्रेयसः) अत्यन्त प्रशंसा के पात्र (अवकरत्) बनाये। और (यथा) जिससे (नः) हमें (व्यवसाययात्) उपासनादि शुभकर्मों में दृढ़ निश्चय वाला बनायें। इसलिये उस सबको बसाने वाले, श्रेष्ठ, दृढ़ निश्चय के प्रदाता परमेश्वर से ही प्रार्थना करते हैं।
भावार्थ
ईश्वर की उपासना के बिना कोई भी मनुष्य सब दुःखों का अन्त नहीं कर सकता ।
जो ईश्वर हम सबको सब सुखों का निवासस्थान, सर्वत्र प्रशंसनीय, सत्य निश्चय करने वाला बनाता है, उसकी ही आज्ञा का पालन सब करें ।। ३ । ५८ ।।
प्रमाणार्थ
(अदीमहि) यहाँ क्षय अर्थ वाली 'दीङ्' धातु से लिङ् अर्थ में लङ् लकार है तथा 'बहुलं छन्दसि' [अ० २ । ४ । ७३] सूत्र से 'श्यन्' प्रत्यय का लुक् है। (त्र्यम्बकम्) यहाँ गत्यादि-अर्थ वाली 'अम्' धातु से बहुल करके करण अर्थ में 'ब' प्रत्यय है और 'शेषाद् विभाषा' (अ० ५ । ४ । १५४) सूत्र से समासान्त 'कप्' प्रत्यय है। (वस्यसः) यहाँ 'छन्दसो वर्णलोपो वा' अर्थात् 'वेद में वर्णों का लोप हो जाया करता है' इस नियम के अनुसार 'ईकार' का लोप है । (करत्) कुर्यात्। यह लेट् लकार का प्रयोग है। 'डुकृञ् करणे' इस धातु का भ्वादिगण में पाठ होने से यहाँ 'शप्' विकरण प्रत्यय का ग्रहण होता है, तनादि के साथ पठित होने के कारण 'उ' विकरण प्रत्यय का भी ग्रहण होता है। 'कः करत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः’ (अ० ८।३।५०) और 'नित्यं करोते:' (अ० ६।४।१०८) इन दो ज्ञापकों द्वारा दोनों गणों के प्रयोग वाली 'कृञ्' धातु गृहीत होती है। (करत्) यहाँ भी लेट् लकार है। (व्यवसाययात्) यह वि-अव पूर्व अन्तकर्म वाली णिजन्त 'षो' धातु से प्रथम पुरुष के एकवचन में तिप् के परे रहते लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ६ । २ । ११) में की गई है ॥ ३ ॥ ५८ ॥
भाष्यसार
रुद्र (ईश्वर)-–रुद्र अर्थात् जगदीश्वर का ज्ञान तीनों कालों में एक रस रहता है, वह श्रेष्ठों को सब सुखों का दाता है तथा दुष्टों को रुलाने वाला है। रुद्र (ईश्वर) की उपासना से ही मनुष्य सब दुखों का विनाश कर सकता है। वह रुद्र हमें सुख से निवास करने वाले, अत्यन्त प्रशंसनीय और सत्य का निश्चय करने वाले बनाता है। इसलिए हम उस रुद्र परमेश्वर की प्रार्थना, उपासना और आज्ञापालन किया करें ।। ३।५८ ।।
विषय
दुःखनाशक उपाय।
भावार्थ
( रुद्रम् ) दुष्टों को रुलाने वाले ( त्रि- अम्बकम् ) तीनों कालों में ज्ञानमय वेद वाणी से तीन रूप अथवा उत्साह, प्रज्ञा, नीति आदि तीन शक्तियों से युक्त ( देवम् ) राजा से ( अदीमहि ) अपने समस्त कष्टों का अन्त करवावें । ( यथा ) जिससे वह ( न: ) हमें ( वस्यसः ) अपने राष्ट्र का सबसे उत्तम वासी, ( करत् ) बनावे और ( यथा ) जिससे वह (नः) हमें ( श्रेयसः ) सबसे श्रेष्ठ पदाधिकारी ( करत् ) बनावे और ( यथा ) जिससे वह ( नः ) हमें ( वि अवसाययात् ) उत्तम व्यवसाय वाला दृढ़ निश्चयी, कर्म में सफल यत्नवान् बनाये || शत० २।६।२।११॥
ईश्वर पक्ष में- हम उत्पत्ति, स्थिति, तप आदि तीन शक्तियों से युक्त ईश्वर से अपने दुःख दूर करावें, वह हमें सर्वश्रेष्ठ बनावे ! शत० २ । ६ । २।११ ॥
टिप्पणी
५८ - [५८ , ५६ ] बन्धुःऋषिः । द० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः । रुद्रो देवता । विराट् पंक्तिः । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वराच्या उपासनेखेरीज किंवा प्रार्थनेखेरीज कोणत्याही माणसाच्या दुःखांचा अंत होऊ शकत नाही. कारण तोच परमेश्वर सुखाने राहण्याची (जगण्याची, निवासाची) व्यवस्था करतो व सत्याने निश्चयी बनवितो. त्यामुळे त्याच्या आज्ञेचे पालन सर्व माणसांनी करावे.
विषय
पुढील मंत्रात रूद्र शब्दाने ईश्वराविषयी उपदेश केला आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ -(त्र्यम्बकम्) तीन्ही काळात जो एकरस आणि ज्ञानयुक्त आहे, अशा (देवम्) आम्हांस ज्ञान देणार्या (रूद्रम) दुष्टांना रडविणार्या जगदीश्वराची उपासना करून आम्ही सर्व दु:खांचे (अवादीमहि) पूर्णपणे निवारण करू. (यथा) ज्याप्रमाणे परमेश्वर (नः) आम्हांस (वस्यसः) शांत व स्थिर निवास करणारे (अवाकरत्) करतो (शांत जीवन व्यतीत करण्याची कृपा करतो) (यथा) ज्याप्रमाणे (नः) आम्हाला (श्रेयसः) अत्यंत श्रेष्ठ (करत्) करतो, (यथा) निश्चयी करतो त्याप्रमाणे जनहो या, आम्हांस सुखेन ठेवणार्या, उत्तम गुण देणार्या आणि सत्याचरणाचा उपदेश देणार्या त्या परमेश्वराची, केवळ त्याचीच आम्ही प्रार्थना करू या. (ईश्वरच शांत तन, मन जीवन देणारा, श्रेष्ठत्व व निश्चयवृत्ती देणारा आहे. आमही केवळ त्याचीच उपासना, प्रार्थना कर या.) ॥58॥
भावार्थ
भावार्थ - कोणीही माणूस ईश्वराची उपासना व प्रार्थना केल्याशिवाय आपल्या सर्व दु:खांचा नाश करू शकत नाही. कारण असे की परमेश्वरच सर्वांना सुखमय निवास स्थान व जीवन देणारा आहे, आणि तोच उत्तमोत्तम सत्य निश्चय व संकल्प करण्याची प्रेरणा देतो. यामुळे त्याची जशी जी आज्ञा आहे, सर्व मनुष्यांनी त्याचे पालन करणे उचित आहे. ॥58॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May we ward off all calamities by worshipping God, Who is unchangeable in the past, present and future, chastises the sinners, and is highly benevolent. Just as God makes us better housed, more prosperous, and determined so may we adore Him.
Meaning
We worship Rudra, Lord of justice, destroyer of evil, brilliant and generous, constant in vision and awareness in the three phases of time, past, present and future. We worship him so that we eliminate want and suffering, so that he may bless us with comfortable homes, greatness and honour, and firm resolution in hard work and industry.
Translation
We have pleased the vital breath the triocular, so that he may provide us with decent accommodation, make us more respectable in society and endow us with firm determination. (1)
Notes
Adimahi, we have pleased. Tryambakam, triocular; having three functions. Vasyasah, those who have good accommodation. Sreyasah, respectable in society. Vyavasayayat, may make us firmly determined.
बंगाली (1)
विषय
অথ রুদ্রশব্দেনেশ্বর উপদিশ্যতে ॥
এখন আগামী মন্ত্রে রুদ্র শব্দ দ্বারা ঈশ্বরের উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- আমরা (ত্র্যম্বকম্) তিন কালে একরস জ্ঞানযুক্ত (দেবম্) দাতা বা (রুদ্রম্) দুষ্টদিগকে রোদনকারী জগদীশ্বরের উপাসনা করিয়া সকল দুঃখকে (অবাদীমহি) সম্যক্ রূপে নষ্ট করি । (য়থা) যেমন পরমেশ্বর (নঃ) আমাদিগকে (বস্যসঃ) উত্তম-উত্তম নিবাসকারী (অবাকরৎ) ভাল প্রকার করুন, (য়থা) যেমন (নঃ) আমাদিগকে (শ্রেয়সঃ) অত্যন্ত শ্রেষ্ঠ (করৎ) করুন, (য়থা) সেইরূপ (নঃ) আমাদিগকে (ব্যবসায়াৎ) নিবাস করাইবার বা উত্তম গুণযুক্ত তথা সত্যতা পূর্বক নিশ্চয় প্রদানকারী পরমেশ্বরেরই প্রার্থনা করি ॥ ৫৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- কোনও মনুষ্য ঈশ্বরকে উপাসনা বা প্রার্থনা ব্যতীত সকল দুঃখের অন্ত প্রাপ্ত হইতে পারে না । কেননা সেই পরমেশ্বর সকল সুখপূর্বক নিবাস বা উত্তম-উত্তম সত্য নিশ্চয় করান । এইজন্য যেমন তাহার আজ্ঞা, সেইরূপ তাহার পালন সব মনুষ্যকে করা কর্ত্তব্য ॥ ৫৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অব॑ রু॒দ্রম॑দীম॒হ্যব॑ দে॒বং ত্র্য॑ম্বকম্ ।
য়থা॑ নো॒ বস্য॑স॒স্কর॒দ্ য়থা॑ নঃ॒ শ্রেয়॑স॒স্কর॒দ্ য়থা॑ নো ব্যবসা॒য়য়া॑ৎ ॥ ৫৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অব রুদ্র মিত্যস্য বন্ধুরৃষিঃ । রুদ্রো দেবতা । বিরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal