यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 19
सं त्वम॑ग्ने॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च्च॑सागथाः॒ समृषी॑णा स्तु॒तेन॑। सं प्रि॒येण॒ धाम्ना॒ सम॒हमायु॑षा॒ सं वर्च॑सा॒ सं प्र॒जया॒ संꣳरा॒यस्पोषे॑ण ग्मिषीय॥१९॥
स्वर सहित पद पाठसम्। त्वम्। अ॒ग्ने॒। सूर्य्य॑स्य। वर्च॑सा। अ॒ग॒थाः॒। सम्। ऋषी॑णाम्। स्तु॒तेन॑। सम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। सम्। अ॒हम्। आयु॑षा। सम्। वर्च॑सा। सम्। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। सम्। रा॒यः। पोषे॑ण। ग्मि॒षी॒य॒ ॥१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सन्त्वमग्ने सूर्यस्य वर्चसागथाः समृषीणाँ स्तुतेन । सम्प्रियेण धाम्ना समहमायुषा सँवर्चसा सम्प्रजया सँ रायस्पोषेण ग्मिषीय ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। त्वम्। अग्ने। सूर्य्यस्य। वर्चसा। अगथाः। सम्। ऋषीणाम्। स्तुतेन। सम्। प्रियेण। धाम्ना। सम्। अहम्। आयुषा। सम्। वर्चसा। सम्। प्रजयेति प्रऽजया। सम्। रायः। पोषेण। ग्मिषीय॥१९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अग्ने जगदीश्वर! यस्त्वं सूर्यस्य प्राणस्यर्षीणां येन संस्तुतेन संप्रियेण संवर्चसा धाम्ना समायुषा संप्रजया संरायस्पोषेण सह समगथास्तेनैवाहमपि सर्वाणि सुखानि संग्मिषीय सम्यक् प्राप्नुयामित्येकः॥१९॥ योऽग्निः सूर्यस्य प्रत्यक्षस्य सवितृमण्डलस्यर्षीणां संस्तुतेन संप्रियेण संवर्चसा धाम्ना समायुषा संप्रजया संरायस्पोषेण समगथाः सङ्गतो भूत्वा राजते, तेन संसाधितेनाहं सर्वाणि व्यवहारसुखानि संग्मिषीय सम्यक् प्राप्नुयामिति द्वितीयः॥१९॥
पदार्थः
(सम्) समागमे (त्वम्) परमेश्वरोऽयं भौतिको वा (अग्ने) विज्ञानस्वरूपव्यवहारप्राप्तिहेतुर्वा (सूर्य्यस्य) सर्वान्तर्गतस्य प्राणस्य सूर्यलोकस्य वा (वर्चसा) दीप्त्या (अगथाः) गच्छसि प्राप्नोति वा। अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः। वर्तमाने लुङ् मन्त्रे घसह्वरणश॰ [अष्टा॰२.४.८०] इति च्लेर्लुक् च। (सम्) सङ्गतार्थे (ऋषीणाम्) वेदविदां मन्त्रद्रष्टॄणां विदुषाम् (स्तुतेन) प्रशंसितेन (सम्) एकीभावे (प्रियेण) प्रसन्नताकारकेण (धाम्ना) स्थानेन (सम्) समीचीनार्थे (अहम्) जीवः (आयुषा) जीवनेन (सम्) सङ्गत्यर्थे (वर्चसा) विद्याध्ययनप्रकाशनेन (सम्) श्रैष्ठ्यार्थे (प्रजया) सन्तानेन राज्येन वा (सम्) प्रशस्तार्थे (रायस्पोषेण) रायो धनानां भोगपुष्ट्या (ग्मिषीय) प्राप्नुयाम्। अत्र आशिषि लिङि वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति [अष्टा॰भा॰वा॰१.४.९] इतीडागमः। गमहनजन॰ [अष्टा॰६.४.९८] इत्युपधालोपश्च। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.२४) व्याख्यातः॥१९॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्याः ईश्वरस्याज्ञापालनेन सम्यक् पुरुषार्थेनाग्न्यादिपदार्थानां संप्रयोगेणैतत् सर्वं सुखं प्राप्नुवन्तीति॥१९॥
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे अग्ने=जगदीश्वर ! विज्ञानस्वरूप ! यस्त्वं परमेश्वरः सूर्यस्य=प्राणस्य सर्वान्तर्गतस्य प्राणस्य ऋषीणां वेद-विदां मन्त्रद्रष्टृणां विदुषां येन संस्तुतेन सङ्गतं प्रशंसितेन सम्प्रियेण एकीभावेन प्रसन्नताकारकेरण संवर्चसा सङ्गतं विद्याध्ययनप्रकाशनेन धाम्ना स्थानेन समायुषा समीचीनेन जीवनेन संप्रजया श्रेष्ठेन सन्तानेन संरायस्पोषेण प्रशस्तानां रायो=धनानां भोगपुष्ट्या सह समगथाः समागमं गच्छसि तेनैवाहम् जीव: अपि सर्वाणि सुखानि संग्मिषीय=सम्यक् प्राप्नुयामित्येकः॥
यः [अग्ने]=अग्निः व्यवहारप्राप्तिहेतुः सूर्यस्य=प्रत्यक्षस्य सवितृमण्डलस्य सूर्यलोकस्य ऋषीणां वेदविदां मन्त्रद्रष्टृणां विदुषां संस्तुतेन संगतं प्रशंसितेन सम्प्रियेण एकीभावेन प्रसन्नताकारकेण संवर्चसा दीप्त्या धाम्ना स्थानेन समायुषा समीचीनेन जीवनेन संप्रजया श्रेष्ठराज्येन संरायस्पोषेण प्रशस्तानां रायो धनानां भोगपुष्टया समगथा:=सङ्गतो भूत्वा राजते तेन संसाधितेनाहं जीवः सर्वाणि व्यवहारसुखानि संग्मिषीय=सम्यक् प्राप्नुयामिति द्वितीयः ।। ३ । १९ ।।
[ हे अग्ने=जगदीश्वर! यस्त्वं सूर्यस्य=प्राणस्य.....येन संस्तुतेन......सह समगथास्तेनैवाहमपि सर्वाणि संग्मिषीय, यः [अग्ने]=अग्निः.....समगथाः=संगतो भूत्वा राजते तेन संसाधितेनाहं सर्वाणि व्यवहारसुखानि संग्मिषीय]
पदार्थः
(सम्) समागमे (त्वम्) परमेश्वरोऽयं भौतिको वा (अग्ने) विज्ञानस्वरूपं व्यवहारप्राप्तिहेतुर्वा (सूर्य्यस्य) सर्वान्तर्गतस्य प्राणस्य सूर्यलोकस्य वा (वर्च्चसा) दीप्त्या (अगथा:) गच्छसि प्राप्नोति वा । अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः । वर्तमाने लुङ् । मंत्रे घसह्वरणश० ॥ अ० २।४।८० ॥ इति च्लेर्लुक च (सम्) संगतार्थे (ऋषीणाम्) वेदविदां मन्त्रद्रष्टृणां विदुषाम् (स्तुतेन) प्रशंसितेन (सम्) एकीभावे (प्रियेण) प्रसन्नताकारकेण (धाम्ना) स्थानेन (सम्) समीचीनार्थे (अहम्) जीव: (आयुषा) जीवनेन (सम्) संगत्यर्थे (वर्चसा) विद्याध्ययनप्रकाशनेन (सम्) श्रैष्ठ्यार्थे (प्रजया) संतानेन राज्येन वा (सम्) प्रशस्तार्थे (रायस्पोषेण) रायो=धनानां भोगपुष्ट्या (ग्मिषीय) प्राप्नुयाम् । अत्राशिषि लिङि वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीडागमः । गमहनजन० ॥ अ॰ ६ ।४। ९८॥ इत्युपधालोपश्च ॥ अयं मंत्रः शत० २ ।३ ।२ ।२४ व्याख्यातः ॥ १९॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः॥ मनुष्या ईश्वररस्याज्ञापालनेन, सम्यक् पुरुषार्थेनाग्न्यादिपदार्थानां संप्रयोगेणैतत्सर्वं सुखं प्राप्नुवन्तीति ॥ ३ । १९ ।।
विशेषः
अवत्सारः । अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी परमेश्वर और अग्नि कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) जगदीश्वर! जो आप (सूर्यस्य) सब के अन्तर्गत प्राण वा (ऋषीणाम्) वेदमन्त्रों के अर्थों को देखने वाले विद्वानों की जिस (संस्तुतेन) स्तुति करने (संप्रियेण) प्रसन्नता से मानने (संवर्चसा) विद्याध्ययन और प्रकाश करने (धाम्ना) स्थान (समायुषा) उत्तम जीवन (संप्रजया) सन्तान वा राज्य और (रायस्पोषेण) उत्तम धनों के भोग पुष्टि के साथ (समगथाः) प्राप्त होते हैं। उसी के साथ (अहम्) मैं भी सब सुखों को (संग्मिषीय) प्राप्त होऊँ॥१॥१९॥ जो (अग्ने) भौतिक अग्नि पूर्व कहे हुए सबों के (समगथाः) सङ्गत होकर प्रकाश को प्राप्त होता है, उस सिद्ध किये हुए अग्नि के साथ (अहम्) मैं व्यवहार के सब सुखों को (संग्मिषीय) प्राप्त होऊँ॥२॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्य लोग ईश्वर की आज्ञा का पालन, अपना पुरुषार्थ और अग्नि आदि पदार्थों के संप्रयोग से इन सब सुखों को प्राप्त होते हैं॥१९॥
विषय
प्रिय-धाम
पदार्थ
१. हे ( अग्ने ) = अग्रेणी प्रभो! ( त्वम् ) = आप ( सूर्यस्य वर्चसा ) = सूर्य के तेज के साथ ( सम् आगथाः ) = हमें सम्यक् प्राप्त होओ, अर्थात् आपकी कृपा से निरन्तर क्रियाशील रहता हुआ मैं सूर्य के समान चमकूँ।
२. ( ऋषीणाम् ) = तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियों के ( स्तुतेन ) = प्रशस्त ज्ञान के साथ आप हमें प्राप्त होओ [ समागथाः ]।
३. ( प्रियेण धाम्ना सम् ) = आप हमें प्रिय तेज के साथ प्राप्त होओ। हम तेजस्वी हों, परन्तु हमारा तेज औरों की प्रीति का कारण बने। हमारा तेज नाशक न होकर निर्माण-विनियुक्त हो।
४. हे प्रभो! आपकी कृपा से ( अहम् ) = मैं ( आयुषा ) = उत्तम आयुष्य से ( सम् ) = सङ्गत होऊँ। मेरा जीवन उत्तम हो।
५. ( वर्चसा सम् ) = मैं वर्चस् से सङ्गत होऊँ। अपने जीवन में मैं निर्बल न होऊँ।
६. ( प्रजया सम् ) = परिणामतः मेरा उत्तम व वर्चस्वी जीवन मेरी प्रजा को भी उत्तम बनाये। मैं उत्तम सन्तानों से संयुक्त होऊँ।
७. हे प्रभो! इन सन्तानों के जीवनों को भी उत्तम बनाने के लिए ( रायस्पोषेण ) = धन के साथ शरीर की पुष्टि से ( संङ्गिमषीय ) = सङ्गत होऊँ। मैं धनी होऊँ, जिससे मेरी यह संसार-यात्रा ठीक से चले, परन्तु इस धन को प्राप्त करके मैं कुबेर = कुत्सित शरीरवाला व नलकुबेर न बन जाऊँ। मेरा शरीर पुष्ट हो।
भावार्थ
भावार्थ — मैं वर्चस्वी बनूँ, ज्ञानी बनूँ। मेरा तेज लोकहितकारी हो। उत्तम जीवनवाला बनकर मैं उत्तम सन्तान का निर्माण करूँ। धनी होऊँ पर पुष्ट, निर्बल नहीं।
विषय
फिर परमेश्वर और अग्नि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ
हे (अग्ने) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर ! (त्वम् ) आप परमेश्वर (सूर्यस्य) सब के अन्तर्गत प्राण को जो कि (ऋषीणाम्) वेदवेत्ता मन्त्रद्रष्टा विद्वानों से (संस्तुतेन) उचित प्रशंसित है। (सम्प्रियेण) मेल से प्रसन्नता देने वाला है, (संवर्चसा) विद्याध्ययन के प्रकाश से सङ्गत करने वाला है, (धाम्ना) स्थान (समायुषा) अच्छा जीवन (सम्प्रजया) उतम सन्तान (संरायस्पोषेण) प्रशंसनीय धनों के भोग से पुष्टि करने वाला है, उसके साथ (समगथाः) समागम को प्राप्त हो । उससे (अहम्) मैं जीव भी सब सुखों को (संग्मिषीय) अच्छे प्रकार प्राप्त करूं। यह मन्त्र का पहला अर्थ है ।
जो (अग्ने) व्यवहार प्राप्ति की निमित्त अग्नि है, (सूर्यस्य) प्रत्यक्ष सूर्यमण्डल को, जो कि (ऋषीणाम् ) वेदवेत्ता मन्त्र द्रष्टा विद्वानों से (संस्तुतेन) उचित प्रशंसित है, (सम्प्रियेण) मेल से प्रसादक है, (संवर्चसा) कान्ति (धाम्ना) स्थान (समायुषा) उत्तम जीवन (संप्रजया) उत्तम राज्य (संरायस्पोषेण) उत्तम धनों के भोग से प्राप्त पुष्टि से (समगथाः) युक्त होकर चमक रहा है, उसी की सिद्धि से (अहम् ) मैं जीव भी सब व्यावहारिक सुखों को (संग्मिषीय) उत्तम रीति से प्राप्त करूँ। यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ३ । १९।।
भावार्थ
अत्र श्लेषालङ्कारः॥ मनुष्या ईश्वररस्याज्ञापालनेन, सम्यक् पुरुषार्थेनाग्न्यादिपदार्थानां संप्रयोगेण तत्सर्वं सुखं प्राप्नुवन्तीति ॥ ३ । १९ ।।
भावार्थ--इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥ मनुष्य ईश्वर की आज्ञापालन से, उत्तम पुरुषार्थ से, अग्नि आदि पदार्थों के ठीक-ठीक प्रयोग से यह सब सुख प्राप्त करते हैं ।। ३ । १९ ।।
प्रमाणार्थ
(अगथाः) यहाँ सर्वत्र पक्ष में व्यत्यय है तथा वर्तमान अर्थ में लुङ् लकार है। 'मन्त्रे घसह्वरणश०' (अ० २।४ । ८०) सूत्र से च्लि का लुक है। (ग्मिषीय) यहाँआशीर्लिङ् में 'वा छन्दसि' [अ० ३ । ४ । ८८] सूत्र से "वेद में सभी विधियाँ बहुल करके होती हैं“ इस नियम से यहाँ 'इट्' का आगम है और 'गमहनजन०' (अ० ६ । ४ ।९८) सूत्र से उपधा का लोप है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ३ । २ । २४ ) में की गई है ।। ३ । १९।।
भाष्यसार
१. अग्नि (ईश्वर) कैसा है--यह अग्नि=जगदीश्वर विज्ञान स्वरूप है, जो सबके अन्तर्गत प्राणों तथा मन्त्र द्रष्टा वेदज्ञ विद्वानों की स्तुति से, प्रसन्नता कारक मेल से, विद्या प्रकाश के संग से, धामों की रचना से, उत्तम जीवन से, श्रेष्ठ सन्तान से, उत्तम धनों के भोग से, उत्पन्न पुष्टि से हमें सुखों को प्राप्त कराता है। किन्तु यह या ये सब सुख उसकी आज्ञापालन एवं पुरुषार्थ से ही प्राप्त होते हैं ।
२. अग्नि (भौतिक) कैसा है--यह भौतिक अग्नि सब व्यवहारों की प्राप्ति का हेतु है, सूर्य तथा वेदज्ञ विद्वानों की स्तुति से तथा प्रसन्नता कारक मेल, दीप्ति, धाम, उत्तम जीवन (आयु), उत्तम धनों के भोग से, उत्पन्न पुष्टि से युक्त है। अग्नि विद्या की सिद्धि से सब व्यवहार सुखों को प्राप्त करें।
३. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थ ग्रहण किये जाते हैं ।।
विषय
तेज की प्राप्ति ।
भावार्थ
हे अग्ने राजन् ! (त्वम्) तू ( सूर्यस्य वर्चसा । सूर्य के तेज से ( सम् अगथाः ) युक्त हो । (ऋषीणाम्) मन्त्र द्वारा ऋषियों, विद्वानों के ( स्तुतेन ) प्रस्तुत, उपवर्णित सत्य ज्ञान से भी ( सम् अगथाः ) युक्त हो । ( प्रियेण धाम्ना ) प्रिय धाम, स्थान, नाम और जन्म इन तीनों प्रिय धामों, तेजों से ( सम् ) संयुक्त हो और मैं तेरी रक्षा में रहकर ( आयुषा ) आयु से ( वर्चसा ) तेज से ( प्रजया ) प्रजा से और ( रायस्पोषेण ) धनैश्वर्यो की पुष्टि द्वारा ( सं ग्मिषीय) संयुक्त होऊं ।
ईश्वर पक्ष में-- ईश्वर सूर्य के समान तेजोमय ऋषियों के मन्त्रों द्वारा स्तुति किया गया है एवं प्रिय धारण सामर्थ्य से युक्त है। वह मुझे आयु, तेज, प्रजा, धन आदि दे। इसी प्रकार आचार्य तेजस्वी, ज्ञानी हो वह शिष्य को आयुष्मान्, तेजस्वी, प्रजावान् ऐश्वर्यवान् बनावे || शत० २ | ३ | ४ | २४॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । जगती । निषादः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसे ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन, आपला पुरुषार्थ व अग्नी इत्यादी पदार्थांचा उपयोग करून सर्व सुख प्राप्त करतात.
विषय
पुढील मंत्रात देखील परमेश्वर आणि अग्नी हाच विषय प्रकाशित केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने) परमेश्वरा, तूच आहेस की जो (सूर्यस्य) सर्वामधे प्राणरूपेण व्याप्त आहेस. (ऋषीणाम्) वेदमंत्रांच्या अर्थाचे मनन व व्याख्यान करणारे विद्वान ऋषी (संस्तुतेन) तुझ्या स्तुतीद्वारे (संप्रियेण) अत्यंत प्रेमभावनेन (संवर्चसा) विद्याध्ययन आणि प्रेरणा प्राप्त करण्यासाठी (धाम्ना) सुखदायक स्थान आणि (समायुधा) सुखी जीवन तसेच (संप्रजया) श्रेष्ठ संतती आणि राज्य प्राप्त करण्यासाठी (रायस्पोषेण) उत्तम समृद्धी, उपयोग आणि पोषण प्राप्त करण्यासाठी तुझी स्तुती करतात आणि तू त्यांची इच्छा-प्रार्थना पूर्ण करतोस. त्याप्रमाणे हे परमेशा, (अहम्) मी याज्ञिक वा तुझा उपासक सर्व सुखांचा (संग्मिषी) स्वामी वा अधिपती होईन, अशी कृपा कर. ॥1॥ दुसरा अर्थ - जो (अग्ने) भौतिक अग्नीवर उल्लेखलेल्या सर्व पदार्थ प्राप्त करण्यासाठी (समगथा:) साधन कारणीभूत होतो, त्या अग्नी पासून योग्य प्रकारे उपयोग घेत (अहम्) मी देखील सर्व इच्छित सुखांचा स्थायी (संग्मिधीत्व) होईन, असे व्हावे. ॥2॥ ॥19॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. (त्यामुळे प्रसंगाप्रमाणे शब्दाचे दोन अर्थ घेता येतात) यात म्हटले आहे की माणसांनी ईश्वराज्ञेचे पालन आणि त्यानुकूल पुरूषार्थ-परिश्रम केल्यास ते वरील सुखांची प्राप्ती करू शकतात. त्याचप्रमाणे मनुष्य अग्नी आदी पदार्थांच्या संप्रयोगाद्वारे वर मंत्रात वर्णित सुख प्राप्त करू शकतात. ॥19॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh God, Thou art full of splendour like the Sun, sung by the sages with vedic verses, and O Thou full of power for protection May I to long life, to splendour, to offspring, and abundant riches.
Meaning
Agni, celebrated by the Rishis’ songs of praise, come full well with the light and glory and energy of the sun to your own home of celebrity. Come that I may also, with the same songs of praise and the pranic energy of the sun, come to attain a happy home, full age, honour and lustre, a good family and liberal means of life.
Translation
O adorable Lord, you come with the brilliance of the sun, hearing the praises offered by sages, to the place you love. May I be blessed with long life, lustre, progeny and plenty of wealth. (1)
Notes
The sacrificer approaches the cow and addresses her. Sam gmisiya, सड़्गतः भूयासम्, may I be blessed with.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় পরমেশ্বর ও অগ্নি কেমন তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) জগদীশ্বর ! আপনি (সূর্য়স্য) সকলের অন্তর্গত প্রাণ বা (ঋষীণাম্) বেদমন্ত্রের অর্থদ্রষ্টা বিদ্বান্দিগের যে (সংস্তুতেন) স্তুতি করিতে (সপ্রিয়েণ) প্রসন্নতা পূর্বক মান্য করিতে (সবর্চসা) বিদ্যাধ্যয়ন ও প্রকাশ করিতে, (ধাম্না) স্থান (সমায়ুষা) উত্তম জীবন (সংপ্রজয়া) সন্তান বা রাজ্য এবং (রায়স্পোষেণ) উত্তম ধনের ভোগ পুষ্টি সহ (সমগথাঃ) প্রাপ্ত হন । তৎসহ (অহম্) আমিও সকল সুখ (সংগ্মিষীয়) প্রাপ্ত হই ॥ ১ ॥
যে (অগ্নে) ভৌতিকাগ্নি পূর্বকথিত সকলের (সমগথাঃ) সঙ্গত হইয়া প্রকাশ প্রাপ্ত হয় সেই সিদ্ধ কৃত অগ্নি সহ (অহম্) আমি ব্যবহারের সকল সুখ (সংগ্মিষীয়) প্রাপ্ত হই ॥ ২ ॥ ১ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । মনুষ্যগণ ঈশ্বরের আজ্ঞাপালন, স্বীয় পুরুষাকার ও অগ্নি ইত্যাদি পদার্থগুলির সংপ্রয়োগ দ্বারা এই সব সুখ প্রাপ্ত হইয়া থাকে ॥ ১ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সং ত্বম॑গ্নে॒ সূর্য়॑স্য॒ বর্চ্চ॑সাऽগথাঃ॒ সমৃষী॑ণাᳬं স্তু॒তেন॑ । সং প্রি॒য়েণ॒ ধাম্না॒ সম॒হমায়ু॑ষা॒ সং বর্চ॑সা॒ সং প্র॒জয়া॒ সꣳ রা॒য়স্পোষে॑ণ গ্মিষীয় ॥ ১ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সং ত্বমিত্যস্যাবৎসার ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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