अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 12
ऋषिः - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
2
प्र॑तीहा॒रो नि॒धनं॑ विश्व॒जिच्चा॑भि॒जिच्च॒ यः। सा॑ह्नातिरा॒त्रावुच्छि॑ष्टे द्वादशा॒होऽपि॒ तन्मयि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ति॒ऽहा॒र: । नि॒ऽधन॑म् । वि॒श्व॒ऽजित् । च॒ । अ॒भि॒ऽजित् । च॒ । य: । सा॒ह्न॒ऽअ॒ति॒रा॒त्रौ । उत्ऽशि॑ष्टे । द्वा॒द॒श॒ऽअ॒ह: । अपि॑ । तत् । मयि॑ ॥९.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीहारो निधनं विश्वजिच्चाभिजिच्च यः। साह्नातिरात्रावुच्छिष्टे द्वादशाहोऽपि तन्मयि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतिऽहार: । निऽधनम् । विश्वऽजित् । च । अभिऽजित् । च । य: । साह्नऽअतिरात्रौ । उत्ऽशिष्टे । द्वादशऽअह: । अपि । तत् । मयि ॥९.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(प्रतीहारः) प्रत्युपकार, (निधनम्) कुल [कुलवृद्धि] (च) और (विश्वजित्) संसार का जीतनेवाला (च) और (यः) जो (अभिजित्) सब ओर से जीतनेवाला [यज्ञ वा व्यवहार है, वह] (साह्नातिरात्रौ) उसी दिन पूरा होनेवाला और रात्रि बिताकर पूरा होनेवाला और (द्वादशाहः) बारह दिन में पूरा होनेवाला [यज्ञ वा व्यवहार] (अपि) भी (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में हैं, (तत्) वह (मयि) मुझ [उपासक] में [होवे] ॥१२॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा में आत्मसमर्पण करते हैं, वे संसार में परस्पर उपकार, कुलवृद्धि, जय और विविध समय का उपयोग करके उत्तम सुख भोगते हैं ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(प्रतीहारः) प्रति+हृञ् स्वीकारे-घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति सांहितिको दीर्घः। प्रत्युपकारः (निधनम्) नि+धा−क्यु। कुलम्। कुलवर्धनम् (विश्वजित्) सर्वजेता (च) (अभिजित्) सर्वतो जेता यज्ञः (च) (यः) (साह्नातिरात्रौ) एकरात्र इति शब्दवत् सिद्धिः-म० १०। समानेन दिनेन समाप्यमानो रात्रिमतीत्य वर्तमानश्च तौ यज्ञौ व्यवहारौ वा (उच्छिष्टे) (द्वादशाहः) अ० ९।६(४)।८। द्वादशभिर्दिनैः समाप्यमानो यज्ञः (अपि) एव (तत्) पूर्वोक्तम् (मयि) उपासके ॥
विषय
विश्वजित् अभिजित्
पदार्थ
१. (प्रतीहार:) = उद्गीथ भक्ति के बाद होनेवाली प्रतिहर्ता से उच्यमान साम की चौथी भक्ति 'प्रतिहार' (निधनम्) = जिस भाग से साम की समाप्ति होती है वह 'निधन' [इसे सब उद्गाताओं को बोलना होता है], (यः विश्वजित् च अभिजित् च) = विश्वजित् व अभिजित् नामवाले सोमयाग, (सह्ना अतिरात्रौ) = एक दिन में समाप्यमान सवनत्रयात्मक सोमयाग तथा रात्रि को लाँधकर होनेवाला उनतीस स्तुतशस्त्रोंवाला सोमयाग तथा (द्वादशाहः अपि) = [द्वादशान्त अझा समाहारो यस्मिन्] बारह दिनोंवाला क्रतु भी-ये सब (उच्छिष्टे) = उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित हैं, (तत्) = ये सब अनुक्रान्त [क्रमश: कथित] यज्ञसमूह (मयि) = मुझमें हों, मैं इन यज्ञों को करनेवाला बनें।
भावार्थ
'प्रतीहार, निधन, विश्वजित, अभिजित, सह्ना , अतिरात्र, द्वादशाह' आदि यज्ञ प्रभु में आश्रित हैं। मैं भी इन्हें करनेवाला बनूं।
भाषार्थ
(प्रतीहारः) सामगान का चतुर्थभाग जोकि प्रतिहर्ता द्वारा गाया जाता है, (निधनम्) सामगान का पंचम भाग जिस में सामगान समाप्त होता है और जिसे सब उद्गाता मिलकर गाते हैं, (विश्वजित्, अभिजित् च) इन नामों वाले दो सोमयाग, (साह्नातिरात्रौ) एक दिन में समाप्य तीन सवनों वाला सोमयाग, तथा अतिरात्र सोमयाग,-ये (उच्छिष्टे) उच्छिष्ट ब्रह्म में निहित हैं, (द्वादशाहः अपि) तथा १२ दिनों में समाप्त होने वाला सोमयाग भी उस परमेश्वर में आश्रित है। (तत्) वह सब (मयि) मुझ में हो, अर्थात् सब का मैं सम्पादन कर सकूं।
टिप्पणी
[(द्वादशाहः) १२ दिनों में समाप्त होने वाला सोमयाग अहीनात्मक भी है और सत्रात्मक भी अर्थात् यह उभयात्मक है]।
विषय
सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ
(प्रतीहारः निधनं) साम गान के भाग ‘प्रतीहार’ और ‘निधनं’ (विश्वजित् च अभिजित् च यः) और जो विश्वजित् याग और अभिजित् याग हैं और (सान्हातिरात्रौ) सान्ह और अतिरात्र नामक याग और (द्वादशाहः) द्वादशाह नामक याग भी (उच्छिष्टे) उस उत्कृष्ट परमात्मा में ही आश्रित हैं। वे भी उसी के स्वरूप का वर्णन करते हैं। (तत्) वह प्रभु (मयि) मुझ में, मेरे आत्मा में सम्पन्न हों, मेरी शक्ति और श्री की वृद्धि करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma
Meaning
Pratihara, responsive good and fourth part of a Sanaa song, Nidhana, wealth and the close of a Sanaa song, Vishvajit and Abhijit yajnas for success, the day long yajna and the yajna that lasts till the night, and the twelve day session, all abide and subsist in the transcendent Brahma. I pray all that virtue and yajnic potential were in me too.
Translation
The response (pratihara), the conclusion (nidhana), both the all-conquering and the on-conquering (abhijit), one, the same-day and overnight ones (are) in the remnant, the twelve-day one: also that in me.
Translation
Chaturatra, Pancharatra, Sadratra and respectively of doubled period as Astratra, Dashartra, Dvadshratra Sodashi and Saptaratra and other Yajnas which are in immortality, Yajnas have got rise from Uchchhista.
Translation
Pratihära and Nidhnam, the Visvajit, the Abhijit, the two Sähnătiratras and the Twelve day rite reside in God. May He reside in my soul and strengthen it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(प्रतीहारः) प्रति+हृञ् स्वीकारे-घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति सांहितिको दीर्घः। प्रत्युपकारः (निधनम्) नि+धा−क्यु। कुलम्। कुलवर्धनम् (विश्वजित्) सर्वजेता (च) (अभिजित्) सर्वतो जेता यज्ञः (च) (यः) (साह्नातिरात्रौ) एकरात्र इति शब्दवत् सिद्धिः-म० १०। समानेन दिनेन समाप्यमानो रात्रिमतीत्य वर्तमानश्च तौ यज्ञौ व्यवहारौ वा (उच्छिष्टे) (द्वादशाहः) अ० ९।६(४)।८। द्वादशभिर्दिनैः समाप्यमानो यज्ञः (अपि) एव (तत्) पूर्वोक्तम् (मयि) उपासके ॥
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