अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
ऋषिः - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
1
अ॑ग्न्या॒धेय॒मथो॑ दी॒क्षा का॑म॒प्रश्छन्द॑सा स॒ह। उत्स॑न्ना य॒ज्ञाः स॒त्राण्युच्छि॒ष्टेऽधि॑ स॒माहि॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि॒ऽआ॒धेय॑म् । अथो॒ इति॑ । दी॒क्षा । का॒म॒ऽप्र: । छन्द॑सा । स॒ह । उत्ऽस॑न्ना: । य॒ज्ञा: । स॒त्त्राणि॑ । उत्ऽशि॑ष्टे । अधि॑ । स॒म्ऽआहि॑ता: ॥९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न्याधेयमथो दीक्षा कामप्रश्छन्दसा सह। उत्सन्ना यज्ञाः सत्राण्युच्छिष्टेऽधि समाहिताः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निऽआधेयम् । अथो इति । दीक्षा । कामऽप्र: । छन्दसा । सह । उत्ऽसन्ना: । यज्ञा: । सत्त्राणि । उत्ऽशिष्टे । अधि । सम्ऽआहिता: ॥९.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(अग्न्याधेयम्) अग्न्याधान [अग्नि की स्थापना] (अथो) और (दीक्षा) दीक्षा [नियमपालन व्रत] (छन्दसा सह) वेद के साथ (कामप्रः) कामनापूरक व्यवहार, (उत्सन्नाः) ऊँचे चढ़े हुए (यज्ञाः) यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] और (सत्राणि) बैठकें (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक (समाहिताः) एकत्र किये गये हैं ॥८॥
भावार्थ
परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से मनुष्य को यथावत् उन्नति करने के लिये वेद के साथ सत्यव्रत धारण आदि नियमों का उपदेश किया है ॥८॥
टिप्पणी
८−(अग्न्याधेयम्) अग्नि+आ+दधातेः-यत्। वाजपेयवत् सिद्धिः-म० ७। अग्न्याधानम् (अथो) अपि च (दीक्षा) अ० ८।५।१५। नियमपालनव्रतम् (कामप्रः) आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। काम+प्रा पूरणे-क। कामनापूरको व्यवहारः (छन्दसा) वेदेन (सह) साकम् (उत्सन्नाः) उत्+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-क्त। ऊर्ध्वं गताः। उन्नताः (यज्ञाः) पूजनीया व्यवहाराः (सत्राणि) गुधृपचिवचियमिसदि०। उ० ४।१६७। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-त्र। सदनानि। सभास्थानानि (उच्छिष्टे) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (समाश्रिताः) राशीकृताः ॥
विषय
अग्न्याधेय आदि का आश्रय 'उच्छिष्ट'
पदार्थ
१. (अग्न्याधेयम्) = अग्निहोत्र में किया जानेवाला अग्नि के आधान का कर्म, (दीक्षा) = व्रतग्रहण, (कामनः) = सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले काम्य कर्म,( छन्दसा सह) = गायत्री आदि छन्दों व अथर्ववेद के साथ (उत्सन्ना: यज्ञा:) = जिन यज्ञों द्वारा जीव ऊपर उठकर [उत् सन्न] ब्रह्म में स्थित होते हैं, वे यज्ञ तथा (सत्राणि) = [सीदन्ति एषु बहवो यजमानाः] बहुकर्तृक सोमयाग-ये सब (उच्छिष्टे अधि) = उच्छिष्यमाण प्रभु में (समाहिता:) = समाश्रित हैं।
भावार्थ
'अग्न्याधेय, दीक्षा, कामप्र, छन्दस, उत्सन्न, यज्ञ व सत्रों' के आश्रय वे उच्छिष्ट प्रभु ही हैं।
भाषार्थ
(अग्न्याधेयम्) अग्नियों के आधान, (अथो) तथा (दीक्षा) व्रतों का ग्रहण, (छान्दसा सह) मन्त्रों की सहायतानुसार (कामप्रः) कामनाओं का पूर्तिकारी यज्ञ, (उत्सन्नाः यज्ञाः) उन्नति कारक विविधयज्ञ, (सत्त्राणि) तथा नानाविध सत्त्र वे सब (उच्छिष्टे अधि) उत्कृष्ट तथा प्रलय में भी वर्तमान परमेश्वर में, उसकी अध्यक्षता में, (समाहिताः) सम्यक्तया आश्रित हैं।
टिप्पणी
[अग्न्याधेयम्= आधेय अग्नियों का आधान, (१) यज्ञार्थ याज्ञिक अग्नियों अर्थात् गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि का आधान यज्ञशाला में। इन द्वारा रोगनिवृत्ति तथा गृहस्वास्थ्य बना रहता है। (२) तथा योऽतिथीनां स आहवनीयो यो वेश्मनि स गार्हपत्यो यस्मिन्पचन्ति स दक्षिणाग्निः ॥" (अथर्व ९।६ पर्याय २ मन्त्र १२)। इस में अतिथिनिष्ठ जाठराग्नि को "आहवनीय" कहा है, और अन्न पकाने के लिये चुल्ले की अग्नि को दक्षिणाग्नि कहा है। ये समाजसेवार्थ अग्नियां हैं। कामप्रः= काम + प्रा (पूरणे) कामनाओं को पूर्ण करने वाला यज्ञ। कामनाएं वेदानुकूल भी होती हैं, प्रतिकूल भी। "कामप्रद-यज्ञ" छन्दों अर्थात् मन्त्रों के उच्चारण के साथ होने चाहिये। इस से ज्ञात हो जायगा कि की गई कामना वेदानुकूल है या नहीं। सुरापान, मांसभक्षण, पशुहिंसा, द्यूतकर्म आदि वेद-विरुद्ध है। परन्तु याज्ञिक सम्प्रदायानुसार यज्ञों में ये कर्म किये जाते हैं। इन के निषेध के लिये "छन्दसा सह"= यह कथन हुआ है। उत्सन्नाः यज्ञाः = "लुप्तप्राया यज्ञा उत्सन्नयज्ञा इत्युच्यन्ते" (सायण), अर्थात् जो यज्ञ लुप्त प्राय हो गए हैं वे उत्सन्न यज्ञ हैं। इस अर्थ में नित्यवेद की दृष्टि में वेदाविर्भाव से पूर्व उन यज्ञों की सत्ता माननी पड़ेगी, जो कि वेदाविर्भाव काल से भी पूर्व विद्यमान तो थे, परन्तु वेदाविर्भाव से पूर्व ही लुप्त हो चुके थे। वेदों को नित्य मानने वाले सायणाचार्य की दृष्टि से यह व्याख्या उस के मन्तव्य की विरोधिनी है। "उत्सन्न" का अर्थ केवल उच्छिन्न ही नहीं होता। उत्सन्न= उद्+ सद् + क्त; “उत्कर्षत्वेन स्थिताः; उद्गतिका वा", ये अर्थ भी "उत्सन्न" के सम्भव हैं। "सत्त्राणि" बहुकाल साध्य हैं, ये काल की दृष्टि से उत्कर्ष अर्थात् बहुत काल की अपेक्षा करते हैं; तथा ये "उद्गति" वाले हैं, सत्त्र यज्ञों द्वारा ऊंची-गति प्राप्त होती है। सत्त्र यज्ञ १३ दिनों से १०० दिनों में साध्य हैं (आप्टे)। याज्ञिक दृष्टि में "सत्त्र", १७ से २४ यजमानों वाले होते हैं]।
विषय
सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ
(अग्न्याधेयम्) अग्नि आधान करने योग्य यज्ञ कर्म (अथो) और (दीक्षा) दीक्षा, (कामप्रः) सर्व कामना के पूर्ण करने वाले काम्य कर्म (छन्दसा सह) ‘छन्दस्’ गायत्री आदि अथवा अथर्व-वेद सहित (उत्सन्नाः यज्ञाः) वे ब्रह्म-यज्ञ जिनसे जीव मुक्त होकर उत्तम लोक, मोक्ष में निर्बन्ध होकर गति करते हैं अथवा वे यज्ञकर्म या प्रजापति के रूप जो काल क्रम से लुप्त हो जाते हैं और (सत्राणि) सोम याग आदिक बृहद याग नामक सत्र ये सब (उच्छिष्टे अधि समाहिताः) ‘उच्छिष्ट’ उस सर्वोत्कृष्ट परम मोक्षमय ब्रह्म में ही (समाहिताः) आश्रित हैं।
टिप्पणी
‘उत्सन्न यज्ञाः’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma
Meaning
The kindling of fire in yajna, initiation with Diksha, the yajna for the fulfilment of specific projects with the hymns of Veda, yajnas for advancement in life, yajna sessions lasting for various periods of time, all abide and subsist in Brahma which remains when all else is gone, sucked in, withdrawn.
Translation
The establishing of a fire, also, the consecration, the desirefulfiller, together with the meter (chanda); the removed (? utsanna) sacrifices, the sacrificial sessions (sattra), are set together in the remnant.
Translation
The Yajnas named as Rajsuya, Vajpeya, Agnistom; Other Yajnas in which there is no act of any violence, Arka, Ashvamedha and the Yajna which gives happiness, pleasures etc. to jivas...............are taking refuge in Uchchhista.
Translation
The ceremony of setting the fire on the sacrificial fire-place, the initiatory rite, the Yajna which fulfils the wish of the sacrificer when performed with Vedic verses, the Yajnas which lead the soul to salvation, Yajnas with long sessions: all these rest in God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(अग्न्याधेयम्) अग्नि+आ+दधातेः-यत्। वाजपेयवत् सिद्धिः-म० ७। अग्न्याधानम् (अथो) अपि च (दीक्षा) अ० ८।५।१५। नियमपालनव्रतम् (कामप्रः) आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। काम+प्रा पूरणे-क। कामनापूरको व्यवहारः (छन्दसा) वेदेन (सह) साकम् (उत्सन्नाः) उत्+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-क्त। ऊर्ध्वं गताः। उन्नताः (यज्ञाः) पूजनीया व्यवहाराः (सत्राणि) गुधृपचिवचियमिसदि०। उ० ४।१६७। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-त्र। सदनानि। सभास्थानानि (उच्छिष्टे) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (समाश्रिताः) राशीकृताः ॥
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