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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
    1

    उ॑प॒हव्यं॑ विषू॒वन्तं॒ ये च॑ य॒ज्ञा गुहा॑ हि॒ताः। बिभ॑र्ति भ॒र्ता विश्व॒स्योच्छि॑ष्टो जनि॒तुः पि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽहव्य॑म् । वि॒षु॒ऽवन्त॑म् । ये । च॒ । य॒ज्ञा: । गुहा॑ । हि॒ता: । बिभ॑र्ति । भ॒र्ता । विश्व॑स्य । उत्ऽशि॑ष्ट: । ज॒नि॒तु: । पि॒ता ॥९.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपहव्यं विषूवन्तं ये च यज्ञा गुहा हिताः। बिभर्ति भर्ता विश्वस्योच्छिष्टो जनितुः पिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽहव्यम् । विषुऽवन्तम् । ये । च । यज्ञा: । गुहा । हिता: । बिभर्ति । भर्ता । विश्वस्य । उत्ऽशिष्ट: । जनितु: । पिता ॥९.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (उपहव्यम्) प्राप्तियोग्य (विषुवन्तम्) व्याप्तिवाले [बाहिरी उत्तम गुण] को (च) और (ये) जो (यज्ञाः) श्रेष्ठ गुण (गुहा) बुद्धि के भीतर (हिताः) रक्खे हैं, [उनको भी] (विश्वस्य) सबका (भर्त्ता) पोषक (जनितुः) जनक [हमारे उत्पन्न करनेवाले] का (पिता) पिता [पालक] (उच्छिष्टः) शेष [म० १। परमात्मा] (बिभर्ति) धारण करता है ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्य अनादि सर्वपोषक परमेश्वर के ज्ञान द्वारा अपने बाहिरी और भीतरी गुणों का ज्ञान प्राप्त करें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(उपहव्यम्) हु दानादानयोः-यत्। ग्नाह्यं गुणम् (विषुवन्तम्) व्याप्तिमन्तं विस्तारवन्तं गुणम् (ये) (च) (यज्ञाः) श्रेष्ठगुणाः (गुहा) गुहायाम्। बुद्धौ (हिताः) धृताः (बिभर्ति) धरति (भर्ता) पोषकः (विश्वस्य) सर्वस्य (उच्छिष्टः) म० १। शेषः (जनितुः) जनयितुः। जनकस्य (पिता) पालकः। जनकः ॥

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    विषय

    सब यज्ञों का धारक'प्रभु'

    पदार्थ

    १. (उपहव्यम्) = उपहव्य नामक सोमयाग को, (विषूवन्तम्) = गवामयन नामक संवत्सर सत्र के मासषट्कात्मक पूर्वोत्तर पक्षों के मध्य में एकविंशस्तोमक अनुष्ठेय सोमयाग को, (ये च) = और जो अन्य (यज्ञाः गुहा हिता:) = यज्ञ गुहा में निगूढ हैं-अज्ञायमान से है-विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में हैं-उन सब यज्ञों को यह (उच्छिष्ट:) = उच्छिष्यमाण परमात्मा (बिभर्ति) = धारण करता है। जो प्रभु (विश्वस्य भर्ताः) = सम्पूर्ण जगत् का भरण करनेवाले हैं, (जनितुः पिता) = जनयिता पिताओं के भी पिता हैं। सब जनयिता प्रभु से उत्पन्न होकर ही जनक बनते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ही सब यज्ञों के धारक हैं। प्रभु विश्व के भर्ती हैं, जनकों के भी जनक हैं।

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    भाषार्थ

    (उपहव्यम्) उपहव्य [सोमयाग ?], (विषूवन्तम्) संवत्सर के उत्तरायण और दक्षिणायन के मध्यवर्ती दिन में किया जाने वाला सोमयाग, (ये च) और जो (यज्ञाः) यज्ञ (गुहाः हिताः) हृद्गुहा में (हिताः) निहित हैं, – (विश्वस्य भर्ता) विश्व का भरण-पोषण करने वाला (जनितुः पिता) पिता का भी पिता, (उच्छिष्टः) प्रलय में भी अवशिष्ट रहने वाला परमेश्वर, – उन सव का (बिभर्त्ति) भरण-पोषण करता है।

    टिप्पणी

    ['गुहा यज्ञाः" = गुहायां निगूढ़ा अविज्ञायमानाः (सायणाचार्य)।यज्ञा गुहा= स्तुति, प्रार्थना, उपासना योग, परमेश्वर का ध्यान आदि भी यज्ञकर्म हैं, जिन्हें कि हृदय की यज्ञशाला में किया जाता है। गुहा शब्द का प्रयोग हृदय गुहा के लिये भी होता है।शरीर भी यज्ञशाला है, देखो (अथर्व० ११।८।२९)]।

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    विषय

    सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।

    भावार्थ

    (उपहव्यं) ‘उपहव्य’ नामक सोमयाग और (विषूवन्तं) विषुवान् नामक अर्थात् ‘गवाम्-अयन’ नामक संवत्सर के छः छः मासों के दोनों पूर्व और उत्तर पक्षों के बीच में ‘एक विंशस्तोम’ नामक सोमयाग और (ये च) और भी जो (यज्ञाः) यज्ञ, उस परमात्मा के उपासना के नाना प्रकार हैं जो (गुहा हिताः) विद्वानों के हृदय में और ब्रह्माण्ड की रचना कौशल में अज्ञात रूप से वर्त्तमान हैं उन सबको (विश्वस्य भर्त्ता) विश्व का भरण पोषण करने वाला (जनितुः पिता) उत्पादक कारण का पालक, परम कारण परमपिता (उच्छिष्टः) सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर (बिभर्त्ति) स्वयं धारण करता है। यज्ञ में—‘उपहव्य’ और ‘विषूवत्’ आदि विशेष भाग हैं जो कालात्मक संवत्सर प्रजापति के यज्ञ प्रजापति के शरीर में विशेष भागों के उपलक्षक हैं।

    टिप्पणी

    ‘यज्ञादिवि श्रिताः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    Upahavya Somayaga, Vishuvat Somayaga, and all those yajnas hidden in mystery, all these the Burden Bearer of the universe bears and sustains, the Ultimate Brahma that is father of the father creator, i.e., the Absolute Brahma in transcendence over the Immanent.

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    Translation

    The added oblation (upahavya), the dividing (day) and the sacrifices that are put in secret, the remnant bears, bearer of all, father of the generator.

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    Translation

    Nine places of abodes for jivas, all the Oceans and the vast sky is held in Uchchhista God. The sun shines being held in Uchchhista and day and nights which visit on us are dependent on Uchchhista.

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    Translation

    God, the Father's sire, Who bears this universe, supports Uphavya, Vishuvāna, and all worship offered secretly.

    Footnote

    Uphavya and Vishuvana are two Yajnas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(उपहव्यम्) हु दानादानयोः-यत्। ग्नाह्यं गुणम् (विषुवन्तम्) व्याप्तिमन्तं विस्तारवन्तं गुणम् (ये) (च) (यज्ञाः) श्रेष्ठगुणाः (गुहा) गुहायाम्। बुद्धौ (हिताः) धृताः (बिभर्ति) धरति (भर्ता) पोषकः (विश्वस्य) सर्वस्य (उच्छिष्टः) म० १। शेषः (जनितुः) जनयितुः। जनकस्य (पिता) पालकः। जनकः ॥

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