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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
    1

    समृ॑द्धि॒रोज॒ आकू॑तिः क्ष॒त्रं रा॒ष्ट्रं षडु॒र्व्यः। सं॑वत्स॒रोऽध्युच्छि॑ष्ट॒ इडा॑ प्रै॒षा ग्रहा॑ ह॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽऋ॑ध्दि: । ओज॑: । आऽकू॑ति: । क्ष॒त्रम् । रा॒ष्ट्रम् । षट् । उ॒र्व्य᳡: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । अधि॑ । उत्ऽशि॑ष्टे । इडा॑ । प्र॒ऽए॒षा: । ग्रहा॑: । ह॒वि: ॥९.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समृद्धिरोज आकूतिः क्षत्रं राष्ट्रं षडुर्व्यः। संवत्सरोऽध्युच्छिष्ट इडा प्रैषा ग्रहा हविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽऋध्दि: । ओज: । आऽकूति: । क्षत्रम् । राष्ट्रम् । षट् । उर्व्य: । सम्ऽवत्सर: । अधि । उत्ऽशिष्टे । इडा । प्रऽएषा: । ग्रहा: । हवि: ॥९.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (समृद्धिः) समृद्धि [सर्वथा वृद्धि] (ओजः) पराक्रम (आकूतिः) संकल्प [मन में विचार] (क्षत्रम्) हानि से रक्षक [क्षत्रियपन] (राष्ट्रम्) राज्य और (षट्) छह (उर्व्यः) फैली [दिशाएँ]। (संवत्सरः) वर्ष (इडा) वाणी, (प्रैषाः) प्रेरणाएँ, (ग्रहाः) अनेक प्रयत्न और (हविः) ग्राह्य वस्तु (उच्छिष्टे) शेष [म० १। परमात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर में पूर्ण विश्वास से मनुष्य दिशाओं अर्थात् देश और संवत्सर अर्थात् काल का विचार करके सदा प्रयत्न के साथ राज्य आदि व्यवहार करें ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(समृद्धिः) अभिवृद्धिः (ओजः) बलम् (आकूतिः) संकल्पः (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षत्+त्रैङ् पालने-क। क्षतो हाने रक्षकं क्षत्रियधर्मः (राष्ट्रम्) राज्यम् (षट्) (उर्व्यः) विस्तृता दिशः (संवत्सरः) वर्षकालः (अधि) (उच्छिष्टे) (इडा) अ० ३।१०।६। इल गतौ-क, टाप्। वाणी-निघ० ३।११। (प्रैषाः) प्र+इष गतौ-घञ्। प्रादूहोढोढ्येषैष्येषु। वा० पा० ६।१।८९। इति वृद्धिः। प्रैषणव्यवहाराः। प्रेरणाः (ग्रहाः) ग्राह्याः प्रयत्नाः। उद्यमाः (हविः) ग्राह्यं वस्तु ॥

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    विषय

    समृद्धि ओज

    पदार्थ

    १. (समृद्धिः) = इष्टफल की अभिवृद्धि, (ओजः) = शरीरबल, (आकूति:) = इष्टफलविषयक संकल्प (क्षत्रम्) = क्षात्र तेज, (राष्ट्रम) = राज्य, (षट् उळ:) = छह उर्वियाँ-द्युलोक, पृथिवीलोक, दिन, रात, जल, ओषधियाँ [आप० श्री० १।२।१] (संवत्सरः) = द्वादशमासात्मक काल, (इडा) = वेदवाणी, (प्रैषा:) = प्रेरकमन्त्र, (ग्रहा:) = गृह्यमाण सोम, (हविः) = चरु, पुरोडाशादि (हविर्द्रव्य) = ये सब (उच्छिष्टे अधि) = उच्छिष्यमाण प्रभु के आधार से हैं।

    भावार्थ

    समृद्धि, ओज व आकूति आदि का आधार वे प्रभु ही है।

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    भाषार्थ

    (समृद्धिः) सफलता, (ओजः) शारीरिक वल, (आकृतिः) संकल्प (क्षत्रम) क्षात्रतेज, (राष्ट्रम्) राज्य, (षट्उर्व्यः) ६ विस्तार वाली पृथिवियां, (संवत्सरः) अर्थात् पृथिवी द्वारा सूर्य की प्रदक्षिणा, (इडा) वेदवाणी, (प्रैषाः) प्रेरणाएँ, (ग्रहाः) विषयों का ग्रहण करने वाली इन्द्रियां, (हविः) तथा दानादान के व्यवहार (उच्छिष्टे अधि) प्रलय में भी अवशिष्ट रहने वाले परमेश्वर में आश्रित हैं।

    टिप्पणी

    [षड् उर्व्यः= पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ध्रुवा तथा ऊर्ध्वा दिशाएं या पृथिवी से लेकर नेपच्यून तक के ६ ग्रह। ये ६ अतिविस्तृत हैं, बुध, शुक्र परिणाम में अत्यल्प है, चन्द्रमा ग्रह नहीं, और परिणाम में भी अत्यल्प है। पृथिवी यह नाम दर्शा रहा है कि बुध, शुक्र की अपेक्षा यह अधिक विस्तृत है।पृथिवी= प्रथ विस्तारे। संवत्सरः= सूर्य के चारों ओर पृथिवी की एक प्रदक्षिणा का काल। इडा= वाङ्नाम (निघं० १।७)। प्रैषः= गुरु द्वारा शिष्य को, स्वामी द्वारा भृत्य को, मातापिता द्वारा सन्तानों को, राजा द्वारा प्रजा को प्रेरणाएं। ग्रहाः = इन्द्रियाणि organs (आप्टे)। हविः =हु दाने, आदाने, अदने। याज्ञिक पक्ष में:- इडा= देवता के लिये यज्ञशेष में से भाग दिया जाता है। प्रैषाः = ऋत्विजों को प्रेरित करने वाले मन्त्र भाग। ग्रहाः-सोम को ग्रहण करने के ऊर्ध्वाकार पात्र]।

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    विषय

    सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।

    भावार्थ

    (समृद्धिः) समस्त सम्पत्तियां, (ओजः) तेज, वीर्य (आकूतिः) संकल्प (क्षत्रं) क्षात्रबल (राष्ट्रं) राष्ट्र (षड् उर्व्यः) छहों महान् पदार्थ द्यौः, पृथिवी, दिन, रात्रि, आपः ओषधि, ये छहों (संवत्सरः) वर्ष (इडा) अन्न, (प्रैषाः) मन्त्र या मानस संकल्प, (ग्रहाः) यज्ञ के देवताओं के नाम पर दिये सोमांश अथवा इन्द्रियगण (हविः) चरु पुरोडाश आदि अथवा अन्न ये सब (अधि उच्छिष्टे) उसी ईश्वर में आश्रित, उसीके बल पर और उसीके द्वारा उत्पन्न और प्राप्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    Prosperity, lustre and splendour, thought and resolution, governance and the Dominion, six quarters of the world in space, the year and year-cycle, Ida, the ultimate Word, inspiration and advancement, all transactions and everything involved in life’s transactions, all is comprehended in the Ultimate Brahma.

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    Translation

    Success, force, design, dominion, kingship, the six wide (quarters), the year (is) in the remnant, ida,. the orders (praisa), the dips (graha), the oblation.

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    Translation

    Welfare, energy, resolve, defence, kingdom six directions (expanses), year, grain, the Praisha verses, Yajna—grahas and oblation have their existence in Uchchhista.

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    Translation

    Welfare, energy, resolve, martial spirit, kingship, the six expanses, the year, prayer, direction, planets, oblation: all rest in God.

    Footnote

    Six expanses: North, East, South, West, Nadir and Zenith. They may also mean. (1) Heaven (2) Earth (3) Day (4) Night (3) Waters (6) Herbs, as stated in Ashvalayan shrout Sutra 1-2-1. Direction: A liturgical order given during the performance of a sacrifice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(समृद्धिः) अभिवृद्धिः (ओजः) बलम् (आकूतिः) संकल्पः (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षत्+त्रैङ् पालने-क। क्षतो हाने रक्षकं क्षत्रियधर्मः (राष्ट्रम्) राज्यम् (षट्) (उर्व्यः) विस्तृता दिशः (संवत्सरः) वर्षकालः (अधि) (उच्छिष्टे) (इडा) अ० ३।१०।६। इल गतौ-क, टाप्। वाणी-निघ० ३।११। (प्रैषाः) प्र+इष गतौ-घञ्। प्रादूहोढोढ्येषैष्येषु। वा० पा० ६।१।८९। इति वृद्धिः। प्रैषणव्यवहाराः। प्रेरणाः (ग्रहाः) ग्राह्याः प्रयत्नाः। उद्यमाः (हविः) ग्राह्यं वस्तु ॥

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