अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 25
ऋषिः - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
1
प्रा॑णापा॒नौ चक्षुः॒ श्रोत्र॒मक्षि॑तिश्च॒ क्षिति॑श्च॒ या। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णा॒पा॒नौ । चक्षु॑: । श्रोत्र॑म् । अक्षि॑ति: । च॒ । क्षिति॑: । च॒ । या । उत्ऽशि॑ष्टात् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । सर्वे॑ । दि॒वि । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽश्रित॑: ॥९.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणापानौ चक्षुः श्रोत्रमक्षितिश्च क्षितिश्च या। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणापानौ । चक्षु: । श्रोत्रम् । अक्षिति: । च । क्षिति: । च । या । उत्ऽशिष्टात् । जज्ञिरे । सर्वे । दिवि । देवा: । दिविऽश्रित: ॥९.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान [भीतर और बाहिर जानेवाले श्वास], (चक्षुः) नेत्र, (श्रोत्रम्) कान (च) और (या) जो (अक्षितिः) [तत्त्वों की] निर्हानि [बढ़ती] (च) और (क्षितिः) [तत्त्वों की] हानि। [यह सब और] (दिवि) आकाश में [वर्तमान] (दिविश्रितः) सूर्य [के आकर्षण] में ठहरे हुए (सर्वे) सब (देवाः) गतिमान् लोक (उच्छिष्टात्) शेष [म० १। परमात्मा] से (जज्ञिरे) उत्पन्न हुए हैं ॥२५॥
भावार्थ
परमात्मा ने शरीर में पृथिवी आदि तत्त्वों के बढ़ाव-घटाव से मनुष्य को जीवधारण, देखने और सुनने आदि के साधन देकर और सृष्टि के पदार्थों का साक्षात् कराकर सुख बढ़ाने का उपदेश किया है ॥२५॥
टिप्पणी
२५−(प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (चक्षुः) नेत्रम् (श्रोत्रम्) करणम् (अक्षितिः) तत्त्वानां निर्हानिः (च) (क्षितिः) तत्त्वानां हानिः (च) (या)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सर्वाधार प्रभु
पदार्थ
१. (यत् च) = जो भी प्राणिसमूह (प्राणेन प्राणति) = प्राणवायु से प्राणन-व्यापार करता है अथवा घ्राणेन्द्रिय से गन्धों को सँघता है, (यत् च) = और जो प्राणिसमूह (चक्षुषा पश्यति) = आँख से रूप को देखता है (सर्वे) = वे सब प्राणी (उच्छिष्टात् जजिरे) = उच्छिष्यमाण प्रभु से प्रादुर्भूत हुए हैं तथा (दिवि) = द्युलोक में स्थित (दिविश्रित:) = प्रकाशमय सूर्य के आकर्षण में श्रित (देवा:) = [दिव् गतौ] गतिमय लोक उस उच्छिष्ट प्रभु में ही आश्रित हैं। २. (ऋचः) = पादबद्ध मन्त्र, (सामानि) = गीतिविशिष्टमन्त्र, (छन्दांसि) = गायत्री आदि सातों छन्द, (यजुषा सह) = यज्ञ प्रतिपादक मन्त्रों के साथ (पुराणम्) = सृष्टि-निर्माण व प्रलयादि के प्रतिपादक मन्त्र ये सब उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित हैं। २. (प्राणापानौ) = प्राण और अपान, (चक्षुः श्रोत्रम्) = आँख व कान, (अक्षिति: च) = क्षय का अभाव (या च क्षिति:) = और जो क्षय है, वह सब उच्छिष्ट प्रभु में आश्रित है। इसी प्रकार (आनन्दाः) = विषयोप भोगजनित सुख, (मोदा:) = विषयदर्शनजन्य हर्ष, (प्रमुदा:) = प्रकृष्ट विषयलाभजन्य हर्ष, (ये च) = और जो (अभीमोदमुद:) = [अभिमोदेन मोदयन्ति] संनिहित सुख हेतु पदार्थ हैं-ये सब उस प्रभु में आश्रित हैं। ३. (देवा:) = आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति नामक तेतीस देव, (पितर:) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त रक्षक वर्ग, (मनुष्या:) = प्रभुमननपूर्वक धनार्जन करनेवाले मनुष्य, (गन्धर्व-अप्सरसः च ये) = जो वेदवाणी का धारण [गा धारयन्ति] और यज्ञादि कर्मों को करनेवाले [अप्सु सरन्ति] लोग हैं-ये सब उस प्रभु के आधार से ही रह रहे हैं।
भावार्थ
प्राणिमात्र व पदार्थमात्र के आधार वे प्रभु ही है, सब ज्ञानों व आनन्दों का आधार भी वही हैं।
सर्वाधार प्रभु का स्मरण करता हुआ यह साधक अपने कर्तव्यमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता है। कर्त्तव्य कर्म करने को ही अपना मार्ग समझनेवाला यह 'कौरुपथि' ही अगले सूक्त का ऋषि है। इस सूक्त का देवता 'अध्यात्मम् है, इसमें शरीर की रचना आदि का काव्यमय वर्णन है -
भाषार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान, (चक्षुः क्षोत्रम्) आंख, कान, (अक्षितिः) न क्षीण होने वाला मन, (क्षितिः) और क्षय होने वाला शरीर, तथा (सर्वे देवाः) सब देव (दिवि) जोकि द्युलोक में हैं, (दिविश्रितः) और द्युलोक में जिन का आश्रय है,― (उच्छिष्टात्) प्रलय में भी अवशिष्ट परमेश्वर से (जज्ञिरे) पैदा हुए हैं।
टिप्पणी
[उत्पन्न-मन तब तक स्थिर रहता है, विनष्ट नहीं होता, जब तक कि जीवात्मा का मोक्ष नहीं होता। अतः मन को अक्षिति कहा है, और इसे वेदों में अमृत भी कहा है। मन्त्र में प्राणापान आदि की उत्पत्ति कही है, इसलिये ११।८।४ के मन्त्र में, और इस मन्त्र में प्रतिपादित, अक्षिति और क्षिति के अर्थों में कुछ भेद हुआ है]।
विषय
सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान (चक्षुः) यह आंख, दर्शनशक्ति (श्रोत्रम्) कान, श्रवणशक्ति (क्षितिः च) क्षिति यह पृथिवी अथवा पदार्थों का क्षीण होना अथवा नाशवान् देहादि पदार्थ और (अक्षितिः) पृथिवी से अतिरिक्त वायु अग्नि प्रकाश जल आत्मा और मन आदि अथवा अविनश्वर पदार्थ आत्मा, आकाश, काल आदि अथवा पदार्थों का नित्य भाव और (दिविश्रितः सर्वे देवाः) द्यौलोक में और गगनचारी सूर्यादि प्रकाशमान लोक, सब (उच्छिष्टात् जज्ञिरे) उस सर्वोत्कृष्ट परमात्मा से उत्पन्न होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma
Meaning
Prana and apana, eye, ear, the undiminishing mind and diminishing body, and all the divinities abiding and sustained in the light of heaven are born of the Ultimate Brahma.
Translation
Breath and expiration, sight, hearing, indestructibleness and destruction: from the remnant etc. etc.
Translation
In-breath and out-breath, eye and ear, the earth and those regions which are besides earth were created by God (Uchchhista). Rest is like previous one.
Translation
Inbreath and outbreath, eye and ear, decay and freedom from decay. all the luminous objects in heaven, and all emancipated souls spring from God.
Footnote
Decay: objects that are mortal and liable to decay e.g., bodies. Freedom from decay: Deathless objects like Time, Space etc. God grants salvation to the souls.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (चक्षुः) नेत्रम् (श्रोत्रम्) करणम् (अक्षितिः) तत्त्वानां निर्हानिः (च) (क्षितिः) तत्त्वानां हानिः (च) (या)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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