अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
2
सन्नुच्छि॑ष्टे॒ असं॑श्चो॒भौ मृ॒त्युर्वाजः॑ प्र॒जाप॑तिः। लौ॒क्या उच्छि॑ष्ट॒ आय॑त्ता॒ व्रश्च॒ द्रश्चापि॒ श्रीर्मयि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसन् । उत्ऽशि॑ष्टे । अस॑न् । च॒ । उ॒भौ । मृ॒त्यु: । वाज॑: । प्र॒जाऽप॑ति: । लौ॒क्या: । उत्ऽशि॑ष्टे । आऽय॑त्ता: । व्र: । च॒ । द्र: । च॒ । अपि॑ । श्री: । मयि॑ ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सन्नुच्छिष्टे असंश्चोभौ मृत्युर्वाजः प्रजापतिः। लौक्या उच्छिष्ट आयत्ता व्रश्च द्रश्चापि श्रीर्मयि ॥
स्वर रहित पद पाठसन् । उत्ऽशिष्टे । असन् । च । उभौ । मृत्यु: । वाज: । प्रजाऽपति: । लौक्या: । उत्ऽशिष्टे । आऽयत्ता: । व्र: । च । द्र: । च । अपि । श्री: । मयि ॥९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(उच्छिष्टे) शेष [मन्त्र १। परमात्मा] में (उभौ) दोनों (सन्) सत्तावाला [दृश्यमान, स्थूल] और (च) (असन्) असत्तावाला [अदृश्यमान परमाणुरूप संसार], (मृत्युः) (वाजः) पराक्रम और (प्रजापतिः) प्रजापालक गुण [हैं]। (उच्छिष्टे) शेष [परमेश्वर] में (लौक्याः) लौकिक पदार्थ (आयत्ताः) वशीभूत हैं, (च) और (व्रः) समूह [समष्टिरूप संसार] (च) और (द्रः) व्यक्ति [पृथक्-पृथक् विशेष पदार्थ] (अपि) भी (मयि) मुझ [प्राणी] में [वर्तमान] (श्रीः) सम्पत्ति [परमात्मा में है] ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा के सामर्थ्य में ही यह सब स्थूल और परमाणुरूप जगत्, मृत्यु आदि और सब प्राणियों की (श्रीः) उत्तम सेवनीय शक्ति वर्तमान है ॥३॥
टिप्पणी
३−(सन्) अस सत्तायाम्-शतृ। सत्तां प्राप्नुवन् दृश्यमानः स्थूलसंसारः (उच्छिष्टे) म० १। शेषे परमात्मनि (असन्) असत्तां प्राप्नुवन्। अदृश्यमानः परमाणुरूपसंसारः (च) (उभौ) सदसतौ (मृत्युः) शरीरत्यागः (वाजः) पराक्रमः (प्रजापतिः) प्रजापालको गुणः (लौक्याः) तत्र भवः। पा० ४।३।५३। संसारे विद्यमानाः पदार्थाः (उच्छिष्टे) (आयत्ताः) आङ्+यती प्रयत्ने-क्त। अधीनाः (व्रः) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। व्रज गतौ-ड। व्रजः समूहः। समष्टिरूपः (च) (द्रः) द्रु गतौ-ड प्रत्ययः पूर्ववत्। व्यक्तिः। व्यष्टिरूपः संसारः (च) (अपि) (श्रीः) सेवनीया संपत् (मयि) प्राणिनि वर्तमाना ॥
विषय
सन् उच्छिष्टे असन् च
पदार्थ
१. (सन्) = सत्तावाला प्रतीत होता हुआ यह कार्यजगत् (असन् च) = अव्यक्त सा-अभावात्मक सा लगता हुआ कारणजगत् (उभौ) = दोनों (उच्छिष्टे) = उस उच्छिष्ट में आश्रित हैं। (मृत्यु:) = प्रपञ्च का मारक मृत्यु, (वाज:) = प्रपञ्च का बल, (प्रजापति:) = अनोत्पादन द्वारा प्रजा का रक्षक मेघ, (लौक्या:) = लोकसम्बन्धिनी सब प्रजाएँ (उच्छिष्टे) = उस उच्छिष्यमाण प्रभु में ही (आयत्ता:) = अधीन होकर रह रहे हैं। (वः च) = सबको अपने में आवृत करनेवाला आकाश (द्रः च) = और गतिरूप काल तथा (मयि श्री:) = मुझमें जो श्री है, वह सब उस उच्छिष्ट प्रभु में ही आश्रित हैं।
भावार्थ
'सन्, असन, मृत्यु, वाज, प्रजापति, लौक्य, व्र, द, और श्री सब प्रभु में आश्रित है।'
भाषार्थ
(सन्) अभिव्यक्त (च) और (असन्) अनभिव्यक्त (उभौ) ये दोनों, (मृत्युः) मृत्यु, (वाजः) अन्न और बल, (प्रजापतिः) मेघ (उच्छिष्टे) उच्छिष्ट परमेश्वर में आश्रित हैं। (लौक्याः) लौकिक सब पदार्थ (व्रः च) वरण करने योग्य, (द्रश्च) तथा “द्र" अर्थात् कुत्सित त्यागने योग्य पदार्थ, (अपि) तथा (मयि) मुझ में वर्तमान (श्रीः) शोभा सम्पत् (उच्छिष्टे) उच्छिष्ट परमेश्वर में (आयत्ताः) आश्रित हैं।
टिप्पणी
[प्रजापति = यह मध्यस्थानी देवता है। वर्षाप्रदान तथा अन्नोत्पादन द्वारा प्रजाओं का पालन तथा रक्षा करता है। अतः मेघ है। व्रः= व्री वरणे। द्रः= द्रा कुत्सने]।
विषय
सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ
(उच्छिष्टं) ‘उच्छिष्ट’ नाम सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि विराजमान, उस परब्रह्म में (सत्) ‘सत्’ या सत्ता के अन्तर्गत समस्त भाव रूप जगत् और (असत्) अभाव रूप या अव्यक्त रूप प्रकृति (उभौ) वे दोनों और (मृत्युः) मृत्यु जो सब प्राणियों को जीवित दशा से शरीर रहित करता है (वातः) अन्न और बल (प्रजापतिः) प्रजा का पालक मेघ सब उसी में विद्यमान हैं। (उच्छिष्टे) उस सर्वोत्कृष्ट पर ब्रह्म में (लौक्याः) समस्त लोकों में विद्यमान प्रजाएं (व्रः च) सबका आवरण करने वाला यह महान् आकाश (द्रः च) और सबका ‘द्र’ अर्थात् द्वावक या गति देने वाला काल भी (उच्छिष्टे आयत्ताः) उसी उत्कृष्ट पर ब्रह्म में बंधे हैं। इसी प्रकार (मयि) मुझ आत्मा में विद्यमान (श्रीः) जो चेतनास्वरूप शोभा है वह भी उसी की है।
टिप्पणी
(च०) ‘वृश्च दृश्च वृश्चिीर्ययि’ [ ? ]इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma
Meaning
Being and Non-Being both, death, food, energy and speed of motion, Prajapati, the sustaining power of created forms, all subsist in Brahma. All things of this world, lovables and rejectables, the beauty and grace that is in you and me, all is collected and concentrated in Brahma, That remains after all.
Translation
In the remnant (are) the being one and the non-being one, both, death, vigor, Prajapati; they of the world (laukya) are supported (a-yat) on the remnant, both vra, and dra; also fortune (Sri) in me.
Translation
In this Uchchhist remain both the world—the manifest and unmanifest and without affecting remain therein death, grains and the sun. All the subjects of the worldly creation the space overcast with clouds etc. and the most fleeting, time depend on it. Whatever glory and beauty is me, the soul is also from it.
Translation
The physical world, and Matter in its atomic state both exist in God. Death, strength and cloud all are subservient to Him. All human beings, atmosphere, Time and the spiritual force of my soul are under His control.
Footnote
Griffith remarks, Dra and Vra: these words are absolutely meaningless, and probably corrupt. It is extremely regrettable that Griffith failing to understand the true significance of these words, passes unpleasant, unscholarly strictures. Vra means atmosphere (आकाश) in which move men and birds, वज्र गतौ ! Dra means Time, which sets in motion all objects, द्रु गतौ!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(सन्) अस सत्तायाम्-शतृ। सत्तां प्राप्नुवन् दृश्यमानः स्थूलसंसारः (उच्छिष्टे) म० १। शेषे परमात्मनि (असन्) असत्तां प्राप्नुवन्। अदृश्यमानः परमाणुरूपसंसारः (च) (उभौ) सदसतौ (मृत्युः) शरीरत्यागः (वाजः) पराक्रमः (प्रजापतिः) प्रजापालको गुणः (लौक्याः) तत्र भवः। पा० ४।३।५३। संसारे विद्यमानाः पदार्थाः (उच्छिष्टे) (आयत्ताः) आङ्+यती प्रयत्ने-क्त। अधीनाः (व्रः) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। व्रज गतौ-ड। व्रजः समूहः। समष्टिरूपः (च) (द्रः) द्रु गतौ-ड प्रत्ययः पूर्ववत्। व्यक्तिः। व्यष्टिरूपः संसारः (च) (अपि) (श्रीः) सेवनीया संपत् (मयि) प्राणिनि वर्तमाना ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal