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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
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    दृ॒ढो दृं॑हस्थि॒रो न्यो ब्रह्म॑ विश्व॒सृजो॒ दश॑। नाभि॑मिव स॒र्वत॑श्च॒क्रमुच्छि॑ष्टे दे॒वताः॑ श्रि॒ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒ढ: । दृं॒ह॒ऽस्थि॒र: । न्य: । ब्रह्म॑ । वि॒श्व॒ऽसृज॑: । दश॑ । नाभि॑म्ऽइव । स॒र्वत॑: । च॒क्रम् । उत्ऽशि॑ष्टे । दे॒वता॑: । श्रि॒ता: ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृढो दृंहस्थिरो न्यो ब्रह्म विश्वसृजो दश। नाभिमिव सर्वतश्चक्रमुच्छिष्टे देवताः श्रिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दृढ: । दृंहऽस्थिर: । न्य: । ब्रह्म । विश्वऽसृज: । दश । नाभिम्ऽइव । सर्वत: । चक्रम् । उत्ऽशिष्टे । देवता: । श्रिता: ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (दृढः) दृढ़, (दृंहस्थिरः) वृद्धि के साथ स्थिर और (न्यः) नायक [गुण] (ब्रह्म) वेदज्ञान और (दश) दस [आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी यह पाँच भूत, और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच तन्मात्राएँ] (विश्वसृजः) संसार बनानेवाले (देवताः) दिव्य पदार्थ (उच्छिष्टे) शेष [म० १ परमात्मा] में (आश्रिताः) आश्रित हैं, (इव) जैसे (नाभिम् सर्वतः) नाभि के सब ओर (चक्रम्) पहिया [पहिये का प्रत्येक अरा लगा होता है] ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा की शक्ति में संसार के उत्तम-उत्तम अचल नियम और पञ्चभूत और पञ्चतन्मात्रा आदि वर्तमान हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(दृढः) प्रगाढः। कठिनः (दृंहस्थिरः) दृहि वृद्धौ घञ्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ किरच्। वृद्ध्या दृढीकृतः (न्यः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। णीञ् प्रापणे-क। छान्दसो यणादेशः। नियः। नायको गुणः (ब्रह्म) (वेदज्ञानम्) (विश्वसृजः) जगतः स्रष्टारः (दश) आकाशवायुतेजोजलपृथिव्यः-इति, पञ्चभूतानि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः-इति पञ्चतन्मात्राणि च दशसंख्याकाः (नाभिम्) चक्रावयवभेदम् (इव) यथा (सर्वतः) उभसर्वतसोः कार्या०। वा० पा० २।३।२। इति सर्वतसो योगे द्वितीया। सर्वं व्याप्य (चक्रम्) रथचक्रम् (उच्छिष्टे) म० १ परमात्मनि (देवताः) देवाः दिव्यपदार्थाः (श्रिताः) स्थिताः ॥

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    विषय

    उच्छिष्टे देवताः श्रिताः

    पदार्थ

    १. (दृढः) = दृढ़ अंगोंवाला-प्रवृद्ध शरीरवाला देव, (दृंहस्थिर:) = दूंहण के द्वारा स्थिर किया हुआ यह लोक, (न्य:) = [नेतारस्तत्रत्याः प्राणिन:-सा०] उन लोकों में रहनेवाले प्राणी, (ब्रह्म) = बढ़ा हुआ जगत् का कारण अव्यक्तात्मक [महत्तत्त्व], (दश विश्वसृज:) = नौ प्राणों के साथ मुख्य प्राण ये प्राण तो विश्व के स्रष्टा है-तथा (देवता:) = सब देव (उच्छिष्टे) = उस उच्छिष्ट प्रभु में इसप्रकार (श्रिता:) = आश्रित है, (इव) = जैसे (नाभिम्) = नाभि को (सर्वत:) = सब ओर से आवेष्टित करके (चक्रम्) = रथचक्र स्थित होता है।

    भावार्थ

    सब दृढ देव, दृढ़ता से स्थिर किया हुआ लोक, उन लोकों में गति करनेवाले प्राणी, दश प्राण व सब देव प्रभु में इसप्रकार आश्रित हैं, जैसे नाभि में रथचक्र।

     

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    भाषार्थ

    (दृढः) दृढ पार्थिव लोक, (दृंहस्थिर) दृढ़ रूप से स्थिर नक्षत्र आदि (न्यः) नेतृवर्ग तथा नेयवर्ग, (ब्रह्म) महत्-प्रकृति जन्य तत्त्व, (विश्वसृजः दश) विश्व का सर्जन करने वाले दस अर्थात् पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश और ये ५ भूत, और पञ्च तन्मात्राएं-ये दस (देवाः) दिव्य पदार्थ, (उच्छिष्टे) उत्कृष्ट = अवशिष्ट परमेश्वर में (श्रिताः) आश्रय पाए हुए हैं, (इव) जैसे कि (चक्रम्) रथ का चक्र (नाभिम् सर्वतः) रथ की नाभि के सब ओर आश्रय पाता है।

    टिप्पणी

    [दृढ़ः = पृथिवी लोक। यथा “येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा" (यजु० ३२।६)। दृंहस्थिरः- नक्षत्रादि, जोकि दृढ़तया अपने-अपने सापेक्ष स्थानों में स्थिर हैं। न्यः = प्रत्येक सौरमण्डल में सूर्य नेता होता है। और उस के ग्रह उपग्रह नेय होते हैं। ब्रह्म= बृहत्-प्रकृति तत्त्व। यथा "मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्" (गीता १४।३)]

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    विषय

    सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।

    भावार्थ

    (दृढ़) सब से अधिक बलवान् सब से बड़ा (दृंहस्थिरः) बल से सर्वत्र स्थिर यह लोक, (न्यः) उसके भीतर गति देने वाला (ब्रह्म) ब्रह्म वेद और (विश्वसृजः) समस्त संसार के बनाने वाले (दश) दशों प्राण और पंचभूत आदि तत्व, स्थूल और सूक्ष्म तत्व और समस्त (देवताः) देव, सूर्यादि लोक (नाभिम् सर्वतः चक्रम् इव) नाभि के चारों ओर चक्र के समान (उच्छिष्टे श्रिताः) उस ‘उच्छिष्ट’ में ही आश्रित हैं। ‘ण्य’ का स्वरूप छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित है।

    टिप्पणी

    ‘दृंहः। स्थिरः’ इति बहुत पदपाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    The strong and firm, the firm and established, the mover and the moved as thinker and the thought, the creations of Prakrti and the food for creation, and ten subtle and gross elements, ten pranas that contribute to the created world, all are wholly held and sustained in Brahma as the wheel is held and sustained in the nave. Indeed, all divine forces of existence are held and sustained in Brahma, the Ultimate over and after all.

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    Translation

    Being fixed, fix thou, being stanch, nya, the brahman, the ten all creators; as the wheel on all sides of the nave, the divinities (are) set (Srita) in the remnant.

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    Translation

    The firm the firmly established, knowledge, the ten elements creating all the worldly objects and all the forces working in the universe are dependent on the Uchchhista like a wheel about its nave.

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    Translation

    The powerful world that stands through its innate strength, the motivating force of the Ved, the All-creating Ten, and the forces of Nature like the Sun, Moon etc., are fixed round God, like a wheel about the nave.

    Footnote

    Muir suggests, ten refers to the ten Maharshis or Great Rishis mentioned by Manu 1.34. This explanation is quite unacceptable, as it refers to history in the Vedas which are absolutely free from it. Ten refers to (1) Atmosphere (2) Air (3) Fire (4) Water (5) Earth (6) Hearing (7) Touch (8) Sight (9) Taste (10) Smell. Ten may also refer to ten breaths: Prana, Apana, Vyana, Udans, Samana. Näga. Kurma, Krikal, Dev Dutt, Dhananjaya.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(दृढः) प्रगाढः। कठिनः (दृंहस्थिरः) दृहि वृद्धौ घञ्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ किरच्। वृद्ध्या दृढीकृतः (न्यः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। णीञ् प्रापणे-क। छान्दसो यणादेशः। नियः। नायको गुणः (ब्रह्म) (वेदज्ञानम्) (विश्वसृजः) जगतः स्रष्टारः (दश) आकाशवायुतेजोजलपृथिव्यः-इति, पञ्चभूतानि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः-इति पञ्चतन्मात्राणि च दशसंख्याकाः (नाभिम्) चक्रावयवभेदम् (इव) यथा (सर्वतः) उभसर्वतसोः कार्या०। वा० पा० २।३।२। इति सर्वतसो योगे द्वितीया। सर्वं व्याप्य (चक्रम्) रथचक्रम् (उच्छिष्टे) म० १ परमात्मनि (देवताः) देवाः दिव्यपदार्थाः (श्रिताः) स्थिताः ॥

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