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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्रयवसाना षट्पदा विराडष्टिः सूक्तम् - भूमि सूक्त
    7

    गि॒रय॑स्ते॒ पर्व॑ता हि॒मव॒न्तोऽर॑ण्यं ते पृथिवि स्यो॒नम॑स्तु। ब॒भ्रुं कृ॒ष्णां रोहि॑णीं वि॒श्वरू॑पां ध्रु॒वां भूमिं॑ पृथि॒वीमिन्द्र॑गुप्ताम्। अजी॒तोऽह॑तो॒ अक्ष॒तोऽध्य॑ष्ठां पृथि॒वीमह॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रय॑: । ते॒ । पर्व॑ता: । हि॒मऽव॑न्त: । अर॑ण्यम् । ते॒ । पृ॒थि॒व‍ि॒ । स्यो॒नम् । अ॒स्तु॒ । ब॒भ्रुम् । कृ॒ष्णाम् । रोहि॑णीम् । वि॒श्वऽरू॑पाम् । ध्रु॒वाम् । भूमि॑म् । पृ॒थि॒वीम् । इन्द्र॑ऽगुप्ताम् । अजी॑त: । अह॑त: । अक्ष॑त: । अधि॑ । अ॒स्था॒म् । पृ॒थि॒वीम् । अ॒हम् ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु। बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्। अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरय: । ते । पर्वता: । हिमऽवन्त: । अरण्यम् । ते । पृथिव‍ि । स्योनम् । अस्तु । बभ्रुम् । कृष्णाम् । रोहिणीम् । विश्वऽरूपाम् । ध्रुवाम् । भूमिम् । पृथिवीम् । इन्द्रऽगुप्ताम् । अजीत: । अहत: । अक्षत: । अधि । अस्थाम् । पृथिवीम् । अहम् ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (पृथिवी) हे पृथिवि ! [हमारे लिये] (ते) तेरी (गिरयः) पहाड़ियाँ और (हिमवन्तः) हिमवाले (पर्वताः) पहाड़, और (ते) तेरा (अरण्यम्) वन भी (स्योनम्) मनभावना (अस्तु) होवे। (बभ्रुम्) पोषण करनेवाली, (कृष्णाम्) जोतने योग्य, (रोहिणीम्) उपजाऊ, (विश्वरूपाम्) अनेक [सुनैले, रुपैले आदि] रूपवाली, (ध्रुवाम्) दृढ़ स्वभाववाली, (भूमिम्) आश्रय स्थान, (पृथिवीम्) फैली हुई, (इन्द्रगुप्ताम्) इन्द्रों [ऐश्वर्यशाली वीर पुरुषों] से रक्षा कियी गई (पृथिवीम्) पृथिवी का (अजीतः) बिना जीर्ण हुए, (अहतः) बिना मारे गये और (अक्षतः) बिना घायल हुए (अहम्) मैं (अधि अस्थाम्) अधिष्ठाता बना हूँ ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य कला, यन्त्र, यान, विमान आदि से दुर्गम्य स्थानों में निर्विघ्न पहुँचकर पृथिवी को उपजाऊ बनावें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(गिरयः) क्षुद्रपर्वताः (ते) तव (पर्वताः) विशालशैलाः (हिमवन्तः) प्रचुरहिमयुक्ताः (अरण्यम्) वनम् (ते) तव (पृथिवी) हे भूमे (स्योनम्) सुखदम् (अस्तु) (बभ्रुम्) भरणशीलाम्। पोषयित्रीम् (कृष्णाम्) कर्षणयोग्याम् (रोहिणीम्) रुहेश्च। उ० २।५५। रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च−इनन्, ङीष्। उत्पादनशीलाम् (विश्वरूपाम्) अनेकरूपयुक्ताम् (ध्रुवाम्) दृढाम् (भूमिम्) आश्रयभूताम् (पृथिवीम्) विस्तृताम् (इन्द्रगुप्ताम्) इन्द्रैः परमैश्वर्यवद्भिः शूरैः पालिताम् (अजीतः) ज्या वयोहानौ−क्त, नत्वादेशाभावः। अजीनः। अजीर्णः। जराहीनः (अहतः) अमारितः (अक्षतः) क्षतरहितः। व्रणादिशून्यः (अध्यष्ठाम्) अधिकृतवानस्मि (पृथिवीम्) वसुधाम् (अहम्) मनुष्यः ॥

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    विषय

    अजीत: अहत: अक्षतः

    पदार्थ

    १. हे (पृथिवि) = भूमिमातः! (ते गिरयः) = तेरे ये छोटे-छोटे पहाड़, (हिमवन्तः पर्वता:) = हिमाच्छादित पर्वत और (ते अरण्यम्) = तेरा यह जंगल (स्योनम् अस्तु) = हमारे लिए सुखकर हो। तेरे गिरि हमारे लिए विविध ओषधियों को प्राप्त कराएँ, हिमाच्छादित पर्वत नदियों के उद्गम स्थान हों तथा अरण्य हमें सब काष्ठों को प्राप्त करानेवाले व हमारी गौवों के लिए चारागाहों के रूप में हों। २. मैं (पृथिवीम्) = अतिशयेन विस्तारवाली, (भूमिम्) = [भवन्ति भूतानि यस्यां सा] प्राणियों की निवासस्थानभूत (पृथिवीम्) = पृथिवी पर (अजीत:) = अपराजित हुआ-हुआ (अक्षत:) = चोट न खाया हुआ (अहतः) = अहिंसित रूप में (अध्यष्ठाम्) = अधिष्ठित होऊँ। उस पृथिवी पर मैं अधिष्ठित होऊँ, जोकि (बभ्रुम्) = हम सबका भरण करनेवाली हैं, (कृष्णाम्) = जो कृषकों द्वारा कृष्ट हुई है, (रोहिणीम) = सब बनस्पतियों को उत्पन्न करनेवाली है, (विश्वरूपाम्) = नाना प्रकार के प्राणियों से युक्त है, (ध्रुवाम्) = अपनी मर्यादा में स्थित है तथा (इन्द्रगुप्ताम्) = प्रभु द्वारा अथवा प्रभु के प्रतिनिधिरूप राजा द्वारा सुरक्षित हुई है।

    भावार्थ

    प्रथिवी के 'गिरि, हिमाच्छादित पर्वत व अरण्य' हमारे लिए सुखकर हों। यह हमारा भरण करती है, कृषि द्वारा अन्नों को देती है, सब वनस्पतियों की उगमस्थली है। मैं अपराजित व अक्षत हुआ-हुआ इसपर स्थित होऊँ।

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    भाषार्थ

    (पृथिवि) हे पृथिवी ! (ते) तेरे (गिरयः) पहाड़, तथा (हिमवन्तः पर्वताः) हिमाच्छादित पर्वत, (ते) तेरे (अरण्यम्) वन-जङ्गल, (स्योनम् अस्तु) सुखकारी हों।(बभ्रुम्) भरण-पोषण करने वाली या भूरे रंगवाली, (कृष्णाम्) कृषियोग्य या काले रंगवाली, (रोहिणीम्) ओषधियों वनस्पतियों के रोहण अर्थात् उत्पत्ति के योग्य या लालरंगवाली, (विश्वरूपाम्) इस प्रकार विविधरूपों वाली, (धुवाम्) ध्रुव, निश्चल (भूमिम्) उत्पादिका, तथा (इन्द्रगुप्ताम्) सम्राटों द्वारा सुरक्षित (पृथिवीम्) पृथिवी का,– (अजीतः) हानि रहित, (अहत) हननरहित, (अक्षतः) घावरहित मैं, (पृथिवीम्) उक्त गुणों वाली पृथिवी का, - (अध्यष्ठाम्) अधिष्ठाता हुआ हूँ।

    टिप्पणी

    [मन्त्रोक्तगुणों वाली पृथिवी, कोई एकराष्ट्र या एकसंयुक्तराष्ट्र नहीं हो सकता, इन गुणों वाली समग्र पृथिवी ही हो सकती है। ऐन्द्रराज्य, ऐन्द्रन्द्रराज्य, अधिष्ठातृराज्य, वारुणराज्य,—इन के परिज्ञान के लिये मन्त्र १० और ११ की टिप्पणी देखो। रोहिणाम् = तथा लोहिनीम्]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे (पृथिवि) पृथिवि ! भूमे ! (ते) तेरे (गिरयः) पहाड़ और (हिमवन्तः पर्वताः) हिमों से ढके हुए बड़े बड़े पर्वत और (ते) तेरा (अरण्यम्) जंगल (स्योनम् अस्तु) सुखकारी हो। (अहम्) मैं स्वयं (अजीतः) किसी से पराजित न होकर, (अहतः) किसी से भी न मारा जाकर, (अक्षतः) किसी से भी जख़मी न होकर, स्वस्थ रह कर (बभ्रुम्) सदा सब को भरण पोषण करने वाली (कृष्णाम्) किसानों से जोती गयी, (रोहिणीम्) नाना अन्न वनस्पतियों से सम्पन्न, (विश्वरूपाम्) नाना प्रकार के समस्त प्राणियों से सम्पन्न, (इन्द्रगुप्ताम्) राजा से सुरक्षित अथवा इन्द्र, मेघ से सुरक्षित, (ध्रुवाम्) स्थिर (भूमिम्) सर्वोत्पादक (पृथिवीम्) पृथिवी पर (अधि-अष्ठाम्) अधिष्ठाता होकर शासन करूं, उस पर सुख से रहूं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘स्पोनमस्तुनः’ (तृ०) ‘लाहिनी’ (प०) ‘अधिष्ठाम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (पृथिवि भूमि) हे प्रथनस्वरूप भूमि! (ते गिरयः पर्वताः हिमवन्तः) तेरे गिरि उद्गीर्ण स्थल-भूमि से ऊपर उठे हुए टीले पर्वत-पर्व वाले ऊँचे नीचे होते हुए और हिमवान् हिमालय (ते-अरण्यं स्योनम्-अस्तु) तेरा-तेरे ऊपर जङ्गल सुखरूप हों (बभ्रु कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपाम्-इन्द्रगुप्तां ध्रुवां पृथिवीम्) बभ्रु-भूरे रंग वाली या ओषधियों से भरी हुई, कृष्ण रंग वाली या कृषियुक्त हुई, रोहिणी लाल रंग वाली या उगी हुई वनस्पतियों वाली, सब रंगों वाली, विद्युदेव द्वारा यथावत् वृष्टि से सुरक्षित, ध्रुवा अचल तुझ पृथिवी को (अहम् अजीतः-अहतः-अक्षतः-अध्यष्ठाम्) मैं अजीत-जरारहित, अहत, क्षतरहित हुआ विष्ठित रहूँ ॥११॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Earth Mother, may your hills and mountains capped with snow, and your woodlands be good and grand and pleasant, and, on this land, brown and productive, dark green and fertile, red and luxuriant, vast and varied in form and hue, firm and unshakable seat of settlement guarded by mighty heroes of Indra, may we live safe and secure with pride and confidence, unconquered free, unbroken and unviolated.

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    Translation

    Let thy hills, snowy mountains, let thy forest-land, O earth, be pleasant; upon the brown, black, red, all-formed, fixed earth, the earth guarded by Indra —I, unharassed, unsmitten, unwounded, have stood upon the earth.

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    Translation

    May the hills, the snow clad mountains and wood-lands of our motherland be pleasant to us. She the spacious earth who supports all creatures fit for agriculture, yielding various kinds of agricultural products, and having innumerable forms of metals, who affords firm ground for our residence, and is protected by great and powerful men. May I reside in her unconquered, unslain, un-wounded.

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    Translation

    O motherland, auspicious be thy woodlands, auspicious be thy hills and snow-clad mountains. Unslain, unwounded, unsubdued, I rule over the Earth, on earth, the nourisher of all, cultivated by the peasants, full of various kinds of cereals and plants, inhabited by men of different complexions, on the firm, vast earth, well-guarded by the king against danger.

    Footnote

    A brave general.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(गिरयः) क्षुद्रपर्वताः (ते) तव (पर्वताः) विशालशैलाः (हिमवन्तः) प्रचुरहिमयुक्ताः (अरण्यम्) वनम् (ते) तव (पृथिवी) हे भूमे (स्योनम्) सुखदम् (अस्तु) (बभ्रुम्) भरणशीलाम्। पोषयित्रीम् (कृष्णाम्) कर्षणयोग्याम् (रोहिणीम्) रुहेश्च। उ० २।५५। रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च−इनन्, ङीष्। उत्पादनशीलाम् (विश्वरूपाम्) अनेकरूपयुक्ताम् (ध्रुवाम्) दृढाम् (भूमिम्) आश्रयभूताम् (पृथिवीम्) विस्तृताम् (इन्द्रगुप्ताम्) इन्द्रैः परमैश्वर्यवद्भिः शूरैः पालिताम् (अजीतः) ज्या वयोहानौ−क्त, नत्वादेशाभावः। अजीनः। अजीर्णः। जराहीनः (अहतः) अमारितः (अक्षतः) क्षतरहितः। व्रणादिशून्यः (अध्यष्ठाम्) अधिकृतवानस्मि (पृथिवीम्) वसुधाम् (अहम्) मनुष्यः ॥

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