अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
वि॒मृग्व॑रीं पृथि॒वीमा व॑दामि क्ष॒मां भूमिं॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नाम्। ऊर्जं॑ पु॒ष्टं बिभ्र॑तीमन्नभा॒गं घृ॒तं त्वा॑भि॒ नि षी॑देम भूमे ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽमृग्व॑रीम् । पृ॒थि॒वीम् । आ । व॒दा॒मि॒ । क्ष॒माम् । भूमि॑म् । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒धा॒नाम् । ऊर्ज॑म् । पु॒ष्टम् । बिभ्र॑तीम् । अ॒न्न॒ऽभा॒गम् । घृ॒तम् । त्वा॒ । अ॒भि । नि । सी॒दे॒म॒ । भू॒मे॒ ॥१.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमां भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम्। ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ॥
स्वर रहित पद पाठविऽमृग्वरीम् । पृथिवीम् । आ । वदामि । क्षमाम् । भूमिम् । ब्रह्मणा । ववृधानाम् । ऊर्जम् । पुष्टम् । बिभ्रतीम् । अन्नऽभागम् । घृतम् । त्वा । अभि । नि । सीदेम । भूमे ॥१.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(विमृग्वरीम्) विविध खोजने योग्य, (पृथिवीम्) चौड़ी, (क्षमाम्) सहनशील, (ब्रह्मणा) ब्रह्म [वेदज्ञान, अन्न वा धन] द्वारा (वावृधानाम्) बढ़ी हुई (भूमिम्) भूमि को (आ वदामि) मैं आवाहन करता हूँ। “(भूमि) हे भूमि ! (ऊर्जम्) बलकारक पदार्थ, (पुष्टम्) पोषण, (अन्नभागम्) अन्न के विभाग और (घृतम्) घी को (बिभ्रतीम्) धारण करती हुई (त्वा अभि) तुझ पर (निषीदेम) हम बैठें” ॥२९॥
भावार्थ
विज्ञानी लोग भूगर्भविद्या, भूतलविद्या आदि द्वारा भूमि को खोजकर अनेक प्रकार के उपकारी पदार्थ प्राप्त करके स्वस्थ पुष्ट होवें ॥२९॥
टिप्पणी
२९−(विमृग्वरीम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। वि+मृग अन्वेषणे−क्वनिप्। वनो र च पा० ४।१।७। डीब्रेफौ। विविधान्वेषणीयाम् (पृथिवीम्) विस्तृताम् (आवदामि) आह्वयामि (क्षमाम्) सहनशीलाम् (भूमिम्) (ब्रह्मणा) अ० १।८।४। वेदज्ञानेन। अन्नेन−निघ० २।७। धनेन−निघ० २।१०। (वावृधानाम्) वृधु−कानच्, सांहितिको दीर्घः प्रवृद्धाम् (ऊर्जम्) बलकरं पदार्थम् (पुष्टम्) पोषणम् (बिभ्रतीम्) धारयन्तीम् (अन्नभागम्) भोज्यपदार्थविभागम् (घृतम्) (त्वा) (अभि) प्रति (निषीदेम) अधितिष्ठेम (भूमे) ॥
विषय
विमृग्वरी' पृथिवी
पदार्थ
१. (विमग्वरीम्) = विशिष्ट रूप से शोधन करनेवाली [मिट्टी से शोधन होता ही है-यह शरीर के विषों को भी चूस लेती है] (पृथिवीं आवदामि) = पृथिवी का मैं समन्तात् गुणगान करता हूँ। यह (क्षमाम्) = सब आघातों को सहनेवाली, (भूमिम्) = सब प्राणियों का निवास स्थान [भवन्ति भूतानि यस्याम्], (ब्रह्मणा वावृधानाम्) = [ब्रह्म-अनं] अन्नों के द्वारा सबका वर्धन करनेवाली है। २. (ऊर्जम्) = 'बल व प्राणशक्ति'-प्रद, (पुष्टम्) = पुष्टिकारक (अन्नभागं घृतम्) = भजनीय अन्न को तथा घृत को (बिभ्रतीम्) = धारण करती हुई, हे (भूमे) = भूमिमातः ! (त्वा अभिनिषीदेम) = तुझपर हम समन्तात् निषण्ण हों-तेरी गोद में बैठे।
भावार्थ
यह पृथिवी शोधन का कारण बनती है। सहनेवाली, प्राणियों का निवासस्थान, तथा अन्न द्वारा हमारा खूब ही वर्धन करनेवाली है। बलप्रद व पुष्टिकारक भजनीय अन्न व घृत को धारण करती हुई इस पृथिवी पर हम समन्तात् निषण्ण हों।
भाषार्थ
(विमृग्वरीम्) विशुद्ध, शोधयोग्य, या विशिष्टगति में श्रेष्ठ, (क्षमाम्) क्षमावृत्तिवाली अर्थात् सहनशील, (ब्रह्मणा) परमेश्वर या ब्रह्मोपासक तथा वेदज्ञ व्यक्ति द्वारा (अथर्व० १२।१।१) (वावृधानाम्) वृद्धि को प्राप्त होती हुई, (ऊर्जम्) बलप्रद तथा प्राणप्रद (पुष्टम्) तथा पुष्टिदायक (अन्नभागम्) भजनीय अर्थात् सेवनीय अन्न को (घृतम्) तथा घृत को (विभ्रतीम्) धारण करती हुई (भूमिम्) उत्पादिका पृथिवी के प्रति (आवदामि) आदरपूर्वक मैं कहता हूं कि (भूमे) हे भूमि ! (त्वा) तुझ पर (अभि नि षीदेम) हम सब एक-दूसरे के अभिमुख हो कर सदा बैठें।
टिप्पणी
[विमृग्वरीम्१ = वि + मृज् (शुद्धौ) + वरीम्; अथवा शोध१ अर्थात् खोजने योग्य, या वि+मृग (मार्ष्टेर्गतिकर्मणः, निरु० १।६।२०), + वरीम् = पृथिवी सूर्य की प्रदक्षिणा करती हुई भी हम में हलचल पैदा नहीं करती अतः यह "वरी" श्रेष्ठ है। अभि = परस्पर के अभिमुख बैठने में पारस्परिक प्रेम सूचित होता है। अच्छाभी आभिमुख्ये]। [१. शोधकार्य = Research । वि + मृग् (अन्वेषणे) + क्वनिप् +र+ङीप् (वनो र च, अष्टा० ४।१।७)।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
मैं (विमृग्वरीम्) नाना प्रकार से पवित्र करने वाली (क्षमाम्) सब कुछ सहन करने वाली, (ब्रह्मणा वावृधानाम्) ब्रह्म अर्थात् वेद ज्ञान, उस के जानने वाले ब्राह्मणों और विद्वानों, ब्रह्म = अन्न से (वावृधानां) निरन्तर बढ़ने हारी (भूमिम्) सर्वोत्पादक, सर्वाश्रय (पृथिवीम्) पृथिवी की (आवदामि) सर्वत्र स्तुति करता हूं। (ऊर्जम्) बलकारी, (पुष्ठम्) पुष्टिकारी (अन्नभागम्) अन्न के अंश को और (घृतम्) घृत, घी दूध आदि पदार्थों को (बिभ्रतीम्) धारण करने वाली (त्वा) तुझ पर हे (भूमे) भूमे ! (अभि निषीदेम) हम सर्वत्र निवास करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(विमृग्वरीं क्षमां ब्रह्मणा वावृधानां पृथिवीं भूमिम्-आ वदामि) विशेषरूप से अन्वेषण करने योग्या "कृतो- बहुल मियपि, कर्मणि कर्तृप्रत्ययः क्वनिप्" सहनशीला सबको आत्मसात् करने में समर्था जल अन्न धन से समय समय पर पुनः पुनः या अधिक प्रवृद्ध होती हुई प्रथिता भूमि को समन्त रूप से कथन करता हूं कि (पुटम् ऊर्जम्-अन्नभागं धृतं बिभ्रतीम् त्वा भूमे अभि निषीदेम) पुष्ट करने वाले रस अन्नभाग घृत को धारण करती हुई लुझ पर हे भूमि ! हम बैठें निवास करें ॥२९॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
To Earth, sacred mother, pure, unhurt, forbearing, growing by divine power and celebrated with Vedic songs of adoration, bearing food, energy, and every body’s share of nourishment and ghrta, I say: O motherland, let us all sit with you together at peace.
Translation
The cleansing earth do I address, the patient earth, increasing by worship; may we sit down, O earth, upon thee, that bearest refreshment, prosperity, food-portion, ghee.
Translation
I invoke-upon that mother earth who is sought after in various ways, who is able to support (all) who is firm, who grows by means of divine power, who bears strengthening, nourishing fatty things fit for food. May we establish our selves at peace on that earth.
Translation
I speak to the vast Motherland, the purifier, patient, who growth strong through the grace of God, O Earth ! may we recline on thee who bearest strength, increase, portioned share of food and butter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(विमृग्वरीम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। वि+मृग अन्वेषणे−क्वनिप्। वनो र च पा० ४।१।७। डीब्रेफौ। विविधान्वेषणीयाम् (पृथिवीम्) विस्तृताम् (आवदामि) आह्वयामि (क्षमाम्) सहनशीलाम् (भूमिम्) (ब्रह्मणा) अ० १।८।४। वेदज्ञानेन। अन्नेन−निघ० २।७। धनेन−निघ० २।१०। (वावृधानाम्) वृधु−कानच्, सांहितिको दीर्घः प्रवृद्धाम् (ऊर्जम्) बलकरं पदार्थम् (पुष्टम्) पोषणम् (बिभ्रतीम्) धारयन्तीम् (अन्नभागम्) भोज्यपदार्थविभागम् (घृतम्) (त्वा) (अभि) प्रति (निषीदेम) अधितिष्ठेम (भूमे) ॥
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