अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
याम॒न्वैच्छ॑द्ध॒विषा॑ वि॒श्वक॑र्मा॒न्तर॑र्ण॒वे रज॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम्। भु॑जि॒ष्यं पात्रं॒ निहि॑तं॒ गुहा॒ यदा॒विर्भोगे॑ अभवन्मातृ॒मद्भ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । अ॒नु॒ऽऐच्छ॑त् । ह॒विषा॑ । वि॒श्वऽक॑र्मा । अ॒न्त: । अ॒र्ण॒वे । रज॑सि । प्रऽवि॑ष्टाम् । भु॒मि॒ष्य᳡म् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । गुहा॑ । यत् । आ॒वि: । भोगे॑ । अ॒भ॒व॒त् । मा॒तृ॒मत्ऽभ्य॑: ॥१.६०॥
स्वर रहित मन्त्र
यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम्। भुजिष्यं पात्रं निहितं गुहा यदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठयाम् । अनुऽऐच्छत् । हविषा । विश्वऽकर्मा । अन्त: । अर्णवे । रजसि । प्रऽविष्टाम् । भुमिष्यम् । पात्रम् । निऽहितम् । गुहा । यत् । आवि: । भोगे । अभवत् । मातृमत्ऽभ्य: ॥१.६०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(विश्वकर्मा) विश्वकर्मा [सब कर्मों में चतुर मनुष्य] ने (हविषा) देने लेने योग्य गुण के साथ [वर्तमान], (अर्णवे) जलवाले (रजसि अन्तः) अन्तरिक्ष के भीतर (प्रविष्टाम्) प्रवेश की हुई (याम्) जिस [पृथिवी] को (अन्वैच्छत्) खोजा। (भुजिष्यम्) भोजनयोग्य (पात्रम्) पात्र [रक्षासाधन] (गुहा) [पृथिवी के] गढ़े में (यत्) जो (निहितम्) रक्खा था [वह] (मातृमद्भ्यः) माताओंवाले [प्राणियों] के लिये (भोगे) आहार [वा पालन] में (आविः अभवत्) प्रकट हुआ है ॥६०॥
भावार्थ
जैसे-जैसे मनुष्य मेघमण्डल से घिरी पृथिवी को खोजते जाते हैं, उसमें अधिक-अधिक पालनशक्तियों को पाते हैं, जैसे माताओं में प्राणियों के पालन के लिये दुग्ध प्रकट होता है ॥६०॥
टिप्पणी
६०−(याम्) पृथिवीम् (अन्वैच्छत्) अन्वेषणेन प्राप्तवान् (हविषा) दातव्याग्राह्यगुणेन सह वर्तमानाम् (विश्वकर्मा) सर्वकर्मसु कुशलः पुरुषः (अन्तः) मध्ये (अर्णवे) जलवति (रजसि) अन्तरिक्षे (प्रविष्टाम्) (भुजिष्यम्) भुवः कित्। उ० २।१२२। भुज पालनाभ्यव्यवहारयोः−इसिन् कित्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। भुजिषे भोजनाय हितम् (पात्रम्) रक्षासाधनम्। अमत्रम् (निहितम्) स्थापितम् (गुहा) गर्ते (यत्) (आविः) प्रकटम् (भोगे) आहारे। पालने (अभवत्) (मातृमद्भ्यः) जननीयुक्तेभ्यः प्राणिभ्यः ॥
विषय
'भुजिष्यं पात्रम्
पदार्थ
१. (अर्णवे अन्त:) = महान् प्रभु के अन्दर, (रजसि प्रविष्टाम्) = अन्तरिक्ष में प्रविष्ट [स्थित] (याम्) = जिस पृथिवी को विश्वकर्मा समस्त संसार का निर्माता प्रभु (हविषा) = हवि के हेतु से (अन्वैच्छत्) = चाहता है। प्रभु की कामना से ही सृष्टि होती है 'सोऽकामयत०'। प्रभु वस्तुतः इस पृथिवी को इसलिए बनाते हैं कि इसपर रहनेवाले मनुष्य इस पृथिवी पर यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों-इसे 'देवयजनी' बना दें। यह पृथिवी अपने कारणभूत अणुसमुद्र में निहित है अन्तरिक्ष में यह स्थित है। २. (भुजिष्य पात्रम्) = भोग्य सन्तानादि से सुसज्जित पात्र के समान यह पृथिवी है। यह पृथिवी (निहितं गुहायाम्) = अपने कारणभूत अणुसमुद्रों की गुफा में निहित है। यह वह पात्र है (यत्) = जोकि (भोगे) = भोग के अवसर आने पर (मातृमद्भ्यः) = पृथिवी को अपनी माता जाननेवाले इन जीवों के लिए (आविः अभवन्) = प्रकट हो जाती है।
भावार्थ
पृथिवी पहले अणुसमुद्र के रूप में अन्तरिक्ष में प्रविष्ट हुई-हुई होती है। प्रभु इसका निर्माण करते हैं, ताकि जीव इसपर यज्ञों को कर सकें। यह पृथिवी एक 'भुजिष्य पात्र' के रूप में हैं। यह पात्र भोग का अवसर आने पर प्रभु के द्वारा प्रकट कर दिया जाता है। जो पृथिवी को माता के रूप में देखते हैं, उन्हें सब आवश्यक पोषण-सामग्नी इस भूमिमाता से प्राप्त होती है।
भाषार्थ
(अर्णवे अन्तः) जलीय समुद्र के अन्दर (रजसि) जल में (प्रविष्टाम्) प्रविष्ट अर्थात् डुबी हुई (याम्) जिस पृथिवी को, (विश्वकर्मा) विश्व के कर्ता ने, (हविषा) प्रजाजनों के अन्न और जल की दृष्टि से, (अन्वैच्छत्) ढूंड निकाला और (यत्) जो (भुजिष्यम्) भोजन योग्य तथा (पात्रम्) पीने और त्राण योग्य पदार्थ (गुहा) पृथिवी की गुफा में छिपा हुआ (निहितम्) रखा हुआ है, वह (मातृमदभ्यः) पृथिवी माता से उत्पन्न सभी प्राणियों के (भोगे) भोग के निमित्त (आविः अभवत्) आविर्भूत हुआ है।
टिप्पणी
[अर्णवे = अर्णः उदकनाम (निघं० १।१२) + वः (उणा० ४।१९।८)। रजसि; "उदकं रज उच्यते" (निरुक्त ४।३।१९)। पात्रम्= पा (पाने+त्रैङ (पालने)। पृथिवी जब सूर्य से पृथक हुई तब यह चमकती वायुरूपा थी, शनैः-शनैः द्रवावस्था में तथा दृढ़ावस्था में आई। तब भी अतितप्तावस्था में थी, वनस्पतियों-ओषधियों की उत्पत्ति के योग्य न थी। इस पर लगातार वर्षा होती रही। इस से समुद्रमयी पृथिवी होती गई। “ततः समुद्रो अर्णवः” (ऋ० १०।१९०।१)। इस अवस्था को "अन्तरर्णवे रजसि प्रविष्ठाम्" द्वारा सूचित किया है। समुद्र में प्रवेश द्वारा पृथिवी ठण्डी होती गई, और तब विश्वकर्मा ने इसे जल से अनावृत किया, और अन्न पैदा हुआ, और अन्न का भोग करने वाले प्राणी उत्पन्न हुए। वेद के समाजशास्त्र के अनुसार, पृथिवी सब प्राणियों की माता है, अतः मातृसम्पत्ति पर, इस माता की सब सन्तानों का,- भोजन, पालन-पोषण तथा त्राण की वस्तुओं पर समान अधिकार है।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(अन्तः अर्णवे) अर्णव महान् समुद्र के भीतर और (रजसि प्रविष्टाम्) रजस, धूलि या मट्टी में या अन्तरिक्ष में प्रविष्ट हुई, उससे बनी या उसमें स्थित (याम्) जिस पृथिवी को (विश्वकर्मा) समस्त जगत् को बनाने वाला परमेश्वर सृष्टि के निमित्त (ऐच्छत्) अपने सृष्टि उत्पन्न करने के लिये उपयुक्त जानकर उसे सृष्टि के लिये चुनता है। वह भूमि (गुहा) गुहा, इस महान् आकाश में वस्तुतः (भुजिष्यम्) भोग करने योग्य अन्नादि से सुसज्जित (पात्रम्) थाली के समान (निहितम्) रक्खी है (यत्) जो (मातृमद्द्भ्यः) पृथिवी को अपनी माता के समान मानने वाली उसके पुत्रों के लिये (भोगे) उन पदार्थों के भोग के अवसर पर (आविः अभवत्) साक्षात् रूप से प्रकट होती है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘यस्यामासन्नुग्रयोऽप्स्वन्तः’ (तृ० च०) ‘गुहाशैरा विरभोरभवन् मातृमद्भिः’, इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(विश्वकर्मा-अर्णवे-रजसि-अन्तः प्रविष्टां मां हविषा अन्वैच्छत्) विश्व को उत्पन्न करने वाले परमात्मा ने जलवा अन्तरिक्ष तथा रजस्वल-धूलराशि के अन्दर प्रविष्ट जिस पृथिवी को अपनी आदान शक्ति से प्रादुर्भूत करना चाहा प्रादुर्भूत करने को यत्न किया है-प्रादुर्भूत किया ! (गुहाभुजिष्यं पात्रं निहितम्) उस पृथिवी की गुहा में भोगसम्बन्धी पात्र-साधन-भोग का बीज भाव रखा है । (यत्-मातृमद्भ्यः भोगे-विः-अभवत्) जो माता का आश्रय लेने वाले जीवों के लिये भोग के निमित्त भोग देने लिये प्रकट हुआ ॥६०॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
When Vishvakarma, maker of the universe, wished to evolve and form the earth which was then contained in the spatial ocean of waters, and, further, when he wished to vest it with all the materials favourable to the emergence and support of life in the course of natural evolution, then all the nutriments of food and drink implicit in the mysterious cave of Mother Nature meant for all forms of life were born of Mother Earth, grew up and came into existence. (For the natural evolution of life from Divine Will and the existential mutation of Nature refer to Taittiriya Upanishad 2, 1.)
Translation
Whom Viśvakarmān sought after with oblation within the ocean, when she was entered into the mist; an enjoyable vessel that was deposited in secret became manifest in enjoyment for them that have mothers.
Translation
It is that mother earth in whose cavity all sorts of enjoyable things in the form of food and juice find place and these are for those young ones who have their mothers, who enters in the primitive stage in the ocean of vapors in the middle region and the man of sound knowledge and action searches her out.
Translation
When God, the Doer of all deeds, desires to fill with corn, the Earth, set in the ocean of Mid air, all eatable objects hidden in the earth, appear for the devotees of their motherland.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६०−(याम्) पृथिवीम् (अन्वैच्छत्) अन्वेषणेन प्राप्तवान् (हविषा) दातव्याग्राह्यगुणेन सह वर्तमानाम् (विश्वकर्मा) सर्वकर्मसु कुशलः पुरुषः (अन्तः) मध्ये (अर्णवे) जलवति (रजसि) अन्तरिक्षे (प्रविष्टाम्) (भुजिष्यम्) भुवः कित्। उ० २।१२२। भुज पालनाभ्यव्यवहारयोः−इसिन् कित्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। भुजिषे भोजनाय हितम् (पात्रम्) रक्षासाधनम्। अमत्रम् (निहितम्) स्थापितम् (गुहा) गर्ते (यत्) (आविः) प्रकटम् (भोगे) आहारे। पालने (अभवत्) (मातृमद्भ्यः) जननीयुक्तेभ्यः प्राणिभ्यः ॥
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