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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - भूमि सूक्त
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    शु॒द्धा न॒ आप॑स्त॒न्वे क्षरन्तु॒ यो नः॒ सेदु॒रप्रि॑ये॒ तं नि द॑ध्मः। प॒वित्रे॑ण पृथिवि॒ मोत्पु॑नामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ध्दा: । न॒: । आप॑: । त॒न्वे᳡ । क्ष॒र॒न्तु॒ । य: । न॒: । सेदु॑: । अप्रि॑ये । तम् । नि । द॒ध्म॒: । प॒वित्रे॑ण । पृ॒थि॒वि॒ । मा॒ । उत् । पु॒ना॒मि॒ ॥१.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं नि दध्मः। पवित्रेण पृथिवि मोत्पुनामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुध्दा: । न: । आप: । तन्वे । क्षरन्तु । य: । न: । सेदु: । अप्रिये । तम् । नि । दध्म: । पवित्रेण । पृथिवि । मा । उत् । पुनामि ॥१.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुद्धाः) शुद्ध (आपः) जल (नः) हमारे (तन्वे) शरीर के लिये (क्षरन्तु) बहें, (यः) जो (नः) हमारा (सेदुः) नाश करने का व्यवहार है, (तम्) उस [व्यवहार] को (अप्रिये) [अपने] अप्रिय [शत्रु] पर (नि दध्मः) हम डालते हैं। (पृथिवि) हे पृथिवी ! (पवित्रेण) शुद्ध व्यवहार से (मा) अपने को (उत् पुनामि) सर्वथा शुद्ध करता हूँ ॥३०॥

    भावार्थ

    जैसे निर्मल जल से शरीर शुद्ध करके मल का नाश करते हैं, वैसे ही मनुष्य अन्तःकरण का मल दूर करके पृथिवी पर धार्मिक व्यवहार से आत्मा की शुद्धि करें ॥३०॥

    टिप्पणी

    ३०−(शुद्धाः) निर्मलाः (नः) अस्माकम् (आपः) जलानि (तन्वे) शरीराय (क्षरन्तु) वहन्तु (यः) (नः) अस्माकम् (सेदुः) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−कु, अकारस्य एकारः पृषोदरादित्वात्। अवसादनस्य नाशनस्य व्यवहारः (अप्रिये) शत्रौ (तम्) सेदुम् (नि दध्मः) नितरां धारयामः (पवित्रेण) शुद्धकर्मणा (पृथिवी) (मा) माम् (उत्) उत्कर्षेण (पुनामि) शोधयामि ॥

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    विषय

    शुद्धा आपः

    पदार्थ

    १. (शुद्धाः आपः) = शुद्ध जल नः तन्वे हमारे शरीर के लिए व शक्ति-विस्तार के लिए (क्षरन्तु) = क्षरित हों-बहें। (यः नः सेदः) = जो भी हमारा विनाशक तत्त्व है, (तम) = उसको (अप्रिये निदध्मः) = सबके अप्रीति के कारणभूत शत्रु में स्थापित करते हैं। विनाशक तत्व हमसे दूर हों। ये उनको प्राप्त हों जो सारे समाज के विद्विष्ट हैं। २. (पृथिवि) = विस्तृत भूमे ! मैं (पवित्रेण) = तेरे इस पवित्र जल से (मा उत्पुनामि) = अपने को शुद्ध करता हूँ।

    भावार्थ

    पृथिवी से उद्भूत ये जल-कूप आदि से प्राप्त जल हमारे विनाशक तत्त्वों को नष्ट करके हमें पवित्र करते हैं।

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    भाषार्थ

    (शुद्धाः आपः) शुद्ध जल (नः तन्वे) हमारे शरीर के लिये (क्षरन्तु) बहें, (नः) हमारा (यः) जो (सेदुः) अपवित्र विनाशकारी कर्म है उसे (अप्रिये) अप्रियपक्ष में (नि दध्मः) हम स्थापित करते हैं, (पृथिवि) हे पृथिवी! (पवित्रेण) पवित्र कर्म द्वारा (मा) अपने-आप को (उत्पुनामि) मैं पवित्र करता हूं, और उत्कृष्ट बनता हूं।

    टिप्पणी

    [तन्वे = स्नान तथा पीने के लिये। अप्रिये = अपवित्र कर्मों के साथ अनुराग न करें, उन के प्रति उपेक्षा करनी चाहिए। सेदुः= षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (नः तन्वे) हमारे शरीर के लिये (शुद्धाः आपः क्षरन्तु) शुद्ध जल बहें। (यः) जो (नः) हमारा (सेदुः) कष्ट है (ते) उसको (अप्रिये) अपने प्रिय न लगने वाले पर (नि दध्मः) डालें। हे (पृथिवि) पृथिवि ! (मा) मैं अपने आपको (पवित्रेण) पवित्र, शुद्ध आचरण से (उत्पुनामि) पवित्र करूं।

    टिप्पणी

    ‘शुद्धा मा आप’ इति पैप्प० सं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (शुद्धाः-आपः-नः-तन्वे क्षरन्तु) शुद्ध जल हमारे शरीर के लिये बहें (यः-नः सेदुः तम्-अप्रिये निदध्मः) जो हमारा पीडक मल आदि पदार्थ या व्यवहार है उसे हम अप्रिय जहाँ प्रिय पदार्थ नहीं डालते ऐसे गड्ड-दुर्द्रव्यस्थान में कूडेदान में या त्याज्य क्षेत्र में डालें (पृथिवि) हे पृथिवी (मा-उत्पुनामि) अपने को ऊंचेरूप में पवित्र करता हूं ॥३०॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Mother Earth, let pure showers and streams of water flow for our body’s health. Whatever negative, bad or evil be ours, we assign to our dislike and rejection. O Motherland, I initiate and consecrate myself with the purity and sanctity of your presence, inspiration and holy action.

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    Translation

    Let cleansed waters flow for our body; what mucus is ours, that we deposit on him we love not; with a purifier, O earth, do I purify myself.

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    Translation

    May the mother earth, let flow pure waters for clearing our bodies. All evil and ruinous practices we shift on to the internal foe (aversion ect) and I sanctify my self by good and virtuous dealing.

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    Translation

    O Motherland ! let pure waters flow for our bodies. We treat him as our foe who would attack us. I cleanse myself through righteous conduct.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(शुद्धाः) निर्मलाः (नः) अस्माकम् (आपः) जलानि (तन्वे) शरीराय (क्षरन्तु) वहन्तु (यः) (नः) अस्माकम् (सेदुः) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−कु, अकारस्य एकारः पृषोदरादित्वात्। अवसादनस्य नाशनस्य व्यवहारः (अप्रिये) शत्रौ (तम्) सेदुम् (नि दध्मः) नितरां धारयामः (पवित्रेण) शुद्धकर्मणा (पृथिवी) (मा) माम् (उत्) उत्कर्षेण (पुनामि) शोधयामि ॥

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