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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
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    उ॒दीरा॑णा उ॒तासी॑ना॒स्तिष्ठ॑न्तः प्र॒क्राम॑न्तः। प॒द्भ्यां द॑क्षिणस॒व्याभ्यां॒ मा व्य॑थिष्महि॒ भूम्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽईरा॑णा: । उ॒त । आसी॑ना: । तिष्ठ॑न्त: । प्र॒ऽक्राम॑न्त: । प॒त्ऽभ्याम् । द॒क्षि॒ण॒ऽस॒व्याभ्या॑म् । मा । व्य॒थि॒ष्म॒हि॒ । भूम्या॑म् ॥१.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः। पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽईराणा: । उत । आसीना: । तिष्ठन्त: । प्रऽक्रामन्त: । पत्ऽभ्याम् । दक्षिणऽसव्याभ्याम् । मा । व्यथिष्महि । भूम्याम् ॥१.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (उदीराणाः) उठते हुए (उत) और (आसीनाः) बैठे हुए (तिष्ठन्तः) खड़े होते हुए और (प्रक्रामन्तः) चलते-फिरते हुए हम (दक्षिणसव्याभ्याम्) दोनों सीधे और डेरे (पद्भ्याम्) पाँवों से (भूम्याम्) भूमि पर (मा व्यथिष्महि) न डगमगावें ॥२८॥

    भावार्थ

    मनुष्य पृथिवी पर सावधान और स्वस्थ रहकर सदा सब को सुख देवें ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(उदीराणाः) ईर गतौ−शानच्। उद्गच्छन्तः (उत) अपि च (आसीनाः) उपविष्टाः (तिष्ठन्तः) गतिनिवृत्तिं कुर्वन्तः (प्रक्रामन्तः) प्रकर्षेण पादविक्षेपं कुर्वन्तः (पद्भ्याम्) चरणाभ्याम् (दक्षिणसव्याभ्याम्) दक्षिणवामाभ्याम् (मा व्यथिष्महि) व्यथ भयसंचलनयोः−लुङ्। न संचलेम (भूम्याम्) ॥

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    विषय

    पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां [प्रकामन्तः]

    पदार्थ

    १. (उत ईराणा:) = ऊपर पर्वतों पर चढ़ते हुए (उत) = और (आसीना:) = घरों में बैठे हुए, (तिष्ठन्त:) = कार्यवश किसी स्थान में स्थित हुए-हुए अथवा (दक्षिणसव्याभ्याम्) = दाहिने व बायें (पद्भ्याम्) = पैरों से (प्रक्रामन्तः) = गति करते हुए हम (भूम्याम्) = इसी पृथिवी पर (मा व्यथिष्महि) = पीड़ित न हों।

    भावार्थ

    हम इस पृथिवी पर विविध कार्यों में गति करते हुए किसी भी प्रकार से पीड़ित न हों। कार्य में लगे रहना ही पीड़ित न होने का साधन है।

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    भाषार्थ

    (उदीराणाः) उठते हुए, (उत) और (आसीनाः) बैठते हुए, (तिष्ठन्तः) खड़े होते हुए, या (दक्षिणसव्याभ्याम् पद्भ्याम्) दाहिने और बाएँ पैरों द्वारा (प्रक्रामन्तः) चलते हुए, (भूम्याम्) भूमि में, (मा व्यथिष्महि) हम व्यथा अर्थात् कष्ट न पाएँ।

    टिप्पणी

    [पृथिवी पर ऐसा राज्य होना चाहिये कि किसी अवस्था में भी, किसी से, हमें व्यथा न प्राप्त हो।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हम लोग (उदीराणाः) चलते हुए (उत आसीनाः) और बैठे हुए, (तिष्ठन्तः प्रकामन्तः) खड़े हुए और चलते फिरते (दक्षिण सव्याभ्यां पद्भ्यां) दायें और बायें पैरों में (भूम्याम्) भूमि पर (मा व्यथिष्महि) कभी पीड़ा अनुभव न करें, पैरों में कभी ठोकर आदि न खावें।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘विमर्ग्वाय’ (द्वि०) ‘वावृधानः’ (तृ०) ‘पुष्टिम्’ (च०) ‘भौमे’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूम्याम्) पृथिवी पर (उदीराणा:) उद्गमन करते हुए उठते हुए "इर गतौ” (अदादि०) (उत) और (आसीना:) बैठते हुए (तिष्ठन्त:) ठहरे हुए एक स्थान पर खड़े हुए (दक्षिणसव्याभ्यां पद्भ्यां प्रक्रामन्तः) दक्षिण वाम पैरों से प्रक्रमण करते हुए चलते फिरते दौडते हुए (मा व्यथिष्महि)-व्यथा-पीडा को हम न प्राप्त हों ॥२८॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Sitting or standing, moving around or walking forward on both legs right and left, let us never fall, never waver, nor fail ever.

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    Translation

    Arising, also sitting, standing, striding forth, with right and left feet, let us not stagger upon the earth.

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    Translation

    Whether rising up, or seated or standing or going may we not stagger on this motherland of ours either on the right foot or the left.

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    Translation

    Sitting at ease or rising up, standing or going on our way, with our right foot and with our left we will not reel on the earth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(उदीराणाः) ईर गतौ−शानच्। उद्गच्छन्तः (उत) अपि च (आसीनाः) उपविष्टाः (तिष्ठन्तः) गतिनिवृत्तिं कुर्वन्तः (प्रक्रामन्तः) प्रकर्षेण पादविक्षेपं कुर्वन्तः (पद्भ्याम्) चरणाभ्याम् (दक्षिणसव्याभ्याम्) दक्षिणवामाभ्याम् (मा व्यथिष्महि) व्यथ भयसंचलनयोः−लुङ्। न संचलेम (भूम्याम्) ॥

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