Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त
    0

    म॒हत्स॒धस्थं॑ मह॒ती ब॒भूवि॑थ म॒हान्वेग॑ ए॒जथु॑र्वे॒पथु॑ष्टे। म॒हांस्त्वेन्द्रो॑ रक्ष॒त्यप्र॑मादम्। सा नो॑ भूमे॒ प्र रो॑चय॒ हिर॑ण्यस्येव सं॒दृशि॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । स॒धऽस्थ॑म् । म॒ह॒ती । ब॒भू॒वि॒थ॒ । म॒हान् । वेग॑: । ए॒जथु॑: । वे॒पथु॑: । ते॒ । म॒हान् । त्वा॒ । इन्द्र॑: । र॒क्ष॒ति॒ । अप्र॑ऽमादम् । सा । न॒: ।भू॒मे॒ । प्र । रो॒च॒य॒ । हिर॑ण्यस्यऽइव । स॒म्ऽदृशि॑ । मा । न॒: । द्वि॒क्ष॒त॒ । क: । चन ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महत्सधस्थं महती बभूविथ महान्वेग एजथुर्वेपथुष्टे। महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्। सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत् । सधऽस्थम् । महती । बभूविथ । महान् । वेग: । एजथु: । वेपथु: । ते । महान् । त्वा । इन्द्र: । रक्षति । अप्रऽमादम् । सा । न: ।भूमे । प्र । रोचय । हिरण्यस्यऽइव । सम्ऽदृशि । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (महती) बड़ी होकर तू (महत्) बड़ा (सधस्थम्) सहवास (बभूविथ) हुई है, (ते) तेरा (वेगः) वेग, (एजथुः) चलना और (वेपथुः) हिलना (महान्) बड़ा है। (महान्) बड़ा (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (अप्रमादम्) बिना चूक (त्वा रक्षति) तेरी रक्षा करता है। (सा) सो तू, (भूमे) हे भूमि ! (नः) हमें (हिरण्यस्य इव) सुवर्ण के जैसे (संदृशि) रूप में (प्र रोचय) प्रकाशमान कर दे, (कश्चन) कोई भी (नः) हम से (मा द्विक्षत्) न द्वेष करे ॥१८॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी पुरुष अनेक प्रयत्नों के साथ पृथिवी पर सब से मिलकर विद्या द्वारा सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके तेजस्वी होते हैं ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(महत्) बृहत् (सधस्थम्) सहस्थानम् (महती) विशाला (बभूविथ) (महान्) विपुलः (वेगः) जवः (एजथुः) ट्वितोऽथुच्। पा० ३।३।८९। एजृ कम्पने−अथुच्, बाहुलकात्। चेष्टाव्यवहारः (वेपथुः) टुवेपृ कम्पने−अथुच्। कम्पः (ते) तव (महान्) पूजनीयः (त्वा) त्वाम् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (रक्षति) पालयति (अप्रमादम्) सावधानम् (सा) सा त्वम् (नः) अस्मान् (भूमेः) (प्र) प्रकर्षेण (रोचय) प्रकाशय (हिरण्यस्य इव) सुवर्णस्य यथा (संदृशि) संदर्शने स्वरूपे (नः) अस्मान् (मा द्विक्षत) न द्विष्यात् (कश्चन) कोऽपि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    महत् सधस्थम्

    पदार्थ

    १. हे (भूमे) = भूमिमातः ! तू (महत् सधस्थम्) = मिलकर रहने का महान् स्थान है, (महती बभूविथ) = तू सचमुच विशाल है। (महान् ते वेग:) = तेरा वेग महान् है-तू तीव्र गतिवाली है। (एजथुः वेपथु:) = तेरा हिलना-डुलना भी महान् =  है-कम्प [भूकम्प] अति प्रबल है। (महान् इन्द्रः) = पूजनीय परमैश्वर्यशाली प्रभु (अप्रमादं त्वा रक्षति) = प्रमादरहित होकर तेरा रक्षण कर रहे हैं। २. हे भूमे! (सा) = वह तू (न: प्ररोचय:) = हमें दीप्त जीवनवाला बना। (हिरण्यस्य इव) = स्वर्ण की तरह (संदृशि) = दिखनेवाली-चमकती हुई दीप्त भूमे ! तू ऐसी कृपा कर कि (कश्चन) = कोई भी (न:) = हमसे (मा द्विक्षत) = द्वेष न करे।

    भावार्थ

    यह विशाल प्रथिवी हम सबके लिए मिलकर रहने की भूमि है। इसका वेग व कम्प महान् है-प्रभु इसके रक्षक हैं। यह हमें द्वेषशून्य व दीत जीवनवाला बनाए।

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (सधस्थम्) तुझ पर साथ-साथ बैठने का स्थान (महत्) बड़ा है, (महती) तू परिमाण में बड़ी (बभूविथ) हुई है, (ते) तेरा (वेगः) सूर्य की प्रदक्षिणा करने का वेग, (एजथुः१ वेपथुः) कम्पन और वेपन (महान्) महान् है, (महान् इन्द्रः) महान् परमेश्वर या महान् इन्द्रेन्द्र (त्वा) तेरी (रक्षति) रक्षा करता है (अप्रमादम्) सदा सावधान हो कर। (भूमे) हे भूमि ! (सा) वह तू (नः) हमें (पुरोचय) रुचिरूप वाले कर, (इव) जैसे कि (हिरण्यस्य) सुवर्णका (संदृशि) दर्शन रुचिकर होता है, ताकि (कश्चन) कोई भी (नः) हमारे प्रति (मा द्विक्षत्) न द्वेष करे।

    टिप्पणी

    [महान् इन्द्रः= सम्राटों का सम्राद, समग्र भौमशासन का अविष्ठाता। (मंत्र ११) भूमि के निवासियों के पारस्परिक व्यवहार ऐसे होने चाहियें जिन से कि वे परस्पर एक दूसरे के प्रति रुचिकर हो जाएं, और पारस्परिक द्वेषभाव स्वयं समाप्त हो जाएं। "वाचो मधु” (मन्त्र १६) इस भावना का पोषक है।] [१. ये दो पद क्या भूचालों के सूचक है, या इसका कोई अन्य अभिप्राय है,— यह विचारणीय है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे पृथिवि ! (महत् सघस्थम्) एकत्र होने के लिये तू एक बड़ा भारी भवन है। तू (महती बभूविथ) तू बहुत ही बड़ी है। (ते महान् वेगः) तेरा बेग भी बहुत बड़ा है। (ते एजथुः महान्) तेरा कम्पन मी बड़ा भारी होता है (ते वेपथुः महान्) तेरा संचलन भी बहुत बड़ा है। (महान् इन्द्रः) बड़ा भारी राजाधिराज, ऐश्वर्यवान् परमात्मा (त्वां) तेरी (अप्रमादम्) बिना प्रमाद के (रक्षति) रक्षा करता है। हे (भूमे) सर्वोत्पादक पृथिवि ! (सा) वह तू (नः) हमारे लिये (हिरण्यस्य संदृशि) सुवर्ण के रूप में (प्ररोचय) भली प्रतीत हो अर्थात् हमें तू सोने की सी बनी प्रतीत हो। (नः) हमसे (कश्चन) कोई भी (मा द्विक्षत) द्वेष न करे।

    टिप्पणी

    (तृ) ‘रक्षति वीर्येण’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (महत् सधस्थम्) पृथिवी तू सबका महान् सहस्थान है । अतः (महती बभूविथ) तू बडी है (ते वेगः महान्) तेरा महान् वेग-गतिक्रम बडा है (एथुः-वेपथुः) तेरा चलना कम्पना महान् है (महान् इन्द्रः-त्वा-प्रमादरक्षति) महान् इन्द्र परमात्मा प्रमादरहित रक्षा करता है (सा भूमे नः हिरण्यस्य-इव-संदृशि प्ररोचय) वह भूमि ! तू हमें सुनहरेरूप जैसे संरक्षित होकर प्रकृष्ट रुचि करा (कः चन-नः-मा द्विक्षत) कोई भी हमसे द्वेष न करें ॥१८॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Mother Earth, be, indeed you are, the mighty one great hall of residence for humanity. High is your velocity, mighty your motion, terrible your tremor. Mighty Indra, the sun, keeps and protects you in orbit relentlessly, the Ruler maintains you at peace vigilantly. O motherland, let us shine in the golden glory of light and grandeur on earth. Let none hate and malign us. Let us live with love in mutual trust.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Thou hast become great, a great station; great is thy trembling, stirring, quaking; great. Indra defends thee unremittingly. Do thou, O earth, make us to shine forth as in the aspect of gold; let no one soever hate us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Our mother earth is great and great place of shelter does she afford for all. Her velocity, her motion and her tremoy are all immense. The great and All-powerful God protects her without any flaw. May the earth which is of this description make us shine with luster as of gold and may no body bear us any maliae.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    A vast dwelling place art thou for us. Thou art mighty. Great are thy speed, trembling and shaking. Great God guards thee with unceasing care. So make us shine, O motherland with the splendour of gold. Let no man hate us.

    Footnote

    Indra may also mean, a just, truthful, brave king.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(महत्) बृहत् (सधस्थम्) सहस्थानम् (महती) विशाला (बभूविथ) (महान्) विपुलः (वेगः) जवः (एजथुः) ट्वितोऽथुच्। पा० ३।३।८९। एजृ कम्पने−अथुच्, बाहुलकात्। चेष्टाव्यवहारः (वेपथुः) टुवेपृ कम्पने−अथुच्। कम्पः (ते) तव (महान्) पूजनीयः (त्वा) त्वाम् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (रक्षति) पालयति (अप्रमादम्) सावधानम् (सा) सा त्वम् (नः) अस्मान् (भूमेः) (प्र) प्रकर्षेण (रोचय) प्रकाशय (हिरण्यस्य इव) सुवर्णस्य यथा (संदृशि) संदर्शने स्वरूपे (नः) अस्मान् (मा द्विक्षत) न द्विष्यात् (कश्चन) कोऽपि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top