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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा परातिशक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त
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    ये ते॒ पन्था॑नो ब॒हवो॑ ज॒नाय॑ना॒ रथ॑स्य॒ वर्त्मान॑सश्च॒ यात॑वे। यैः सं॒चर॑न्त्यु॒भये॑ भद्रपा॒पास्तं पन्था॑नं जयेमानमि॒त्रम॑तस्क॒रं यच्छि॒वं तेन॑ नो मृड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । पन्था॑न: । ब॒हव॑: । ज॒न॒ऽअय॑ना: । रथ॑स्य । वर्त्म॑ । अन॑स: । च॒ । यात॑वे । यै: । स॒म्ऽच॑रन्ति । उ॒भये॑ । भ॒द्र॒ऽपा॒पा: । तम् । पन्था॑नम् । ज॒ये॒म॒ । अ॒न॒मि॒त्रम् । अ॒त॒स्क॒रम् । यत् । शि॒वम् । तेन॑ । न॒: । मृ॒ड॒ ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे। यैः संचरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्करं यच्छिवं तेन नो मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पन्थान: । बहव: । जनऽअयना: । रथस्य । वर्त्म । अनस: । च । यातवे । यै: । सम्ऽचरन्ति । उभये । भद्रऽपापा: । तम् । पन्थानम् । जयेम । अनमित्रम् । अतस्करम् । यत् । शिवम् । तेन । न: । मृड ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 47
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (ते) तेरे (बहवः) बहुत से (पन्थानः) मार्ग (जनायनाः) मनुष्यों के चलने योग्य हैं, [और जो] (रथस्य) रथ के (च) और (अनसः) छकड़े [वा अन्न] के (यातवे) चलने के लिये (वर्त्म) मार्ग है। (यैः) जिनसे (उभये) दोनों (भद्रपापाः) भले और बुरे [प्राणी] (संचरन्ति) चले चलते हैं, (तम्) उस (अनमित्रम्) शत्रुरहित और (अतस्करम्) तस्करशून्य (पन्थानम्) मार्ग को (जयेम) हम जीतें, (यत्) जो कुछ (शिवम्) मङ्गल है, (तेन) उससे (नः) हमें (मृड) सुखी कर ॥४७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे-नीचे, भले-बुरे मार्गो का विचार करके सुमार्ग पर चलते हैं, वे कुमार्गियों से बचकर सदा सुखी रहते हैं ॥४७॥

    टिप्पणी

    ४७−(ये) (ते) तव (पन्थानः) मार्गाः (बहवः) नानाप्रकाराः (जनायनाः) जन+अयनाः। मनुष्यैर्गन्तुं योग्याः (रथस्य) रमणीययानस्य (वर्त्म) मार्गः (अनसः) अन जीवने−असुन्। शकटस्य। अन्नस्य। (च) (यातवे) यातुम् (यैः) मार्गैः (संचरन्ति) विचरन्ति (उभये) द्वित्वविशिष्टाः (भद्रपापाः) साध्वसाधवः (तम्) पन्थानम् (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम (अनमित्रम्) अशत्रुम् (अतस्करम्) अचौरम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ४६ ॥

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    विषय

    जनायन-शकटवर्त्म-'रथवर्त्म'-शकटवर्त्म-जनायन

    पदार्थ

    १. हे पृथिवि ! (ये) = जो (ते-बहवः) = बहुत-से (जनायना:) = [जन+अयन्] मनुष्यों के जाने के मार्ग हैं, (रथस्य वर्त्म) = [मध्य में जो] रथ का मार्ग है, (च) = और (अनसः यातवे) = बैलगाड़ियों के जाने के लिए जो मार्ग है एवं, सड़क किनारों पर जनमार्ग हैं, मध्य में रथमार्ग हैं, इनके बीच में दोनों ओर गाड़ियों के मार्ग हैं। २. (यै:) = जिनसे (भद्रपापा:) = परोपकारी व स्वार्थी [अच्छे व बुरे] (उभये) = दोनों प्रकार के लोग (संचरन्ति) = बराबर चला करते हैं, हम (तं पन्थानम्) = उस मार्ग को (जयेम) = विजय करें-प्राप्त करें, जोकि (अनमित्रम्) = शत्रुरहित है, तथा (अतस्करम्) = चोर-डाकू से रहित है। हे पृथिवि ! (यत्) = जो (शिवम्) = कल्याणकर पदार्थ है, (तेन नः मृड) = उससे हमें सुखी कर।

    भावार्थ

    हमारे राष्ट्र में मार्ग सुव्यवस्थित हों-'पैदलमार्ग, शकटमार्ग व रथमार्ग' इसप्रकार मार्ग सुविभक्त हों।

    सबके लिए आने-जाने की सुविधा हो। मागों में शत्रुओं का भय न हो। हमें पृथिवी सुखकर पदार्थों को प्राप्त कराए।

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    भाषार्थ

    हे पृथिवी ! (ये) जो (ते) तेरे (बहवः) बहुत (पन्थानः) मार्ग है, (जनायनाः) जिन पर जन आते जाते या चलते हैं; जो (रथस्य) रथ के (अनसः च) और बैल गाड़ी के (यातवे) जाने के लिये (वर्त्मा) मार्ग हैं, (यैः) जिन द्वारा (भद्रपापाः) भद्र लोग और पापी (उभये) दोनों (संचरन्ति) मिल कर चलते हैं, (तं पन्थानम्) उस मार्ग को (अनमित्रम्) शत्रुरहित (अतस्करम्) और चोरों डाकुओं से रहित (कृधि) कर, (जयेम) उस मार्ग पर हम विजय पा लें, उसे अपने अधीन कर लें। (यत्) जो (शिवम्) कल्याणकारी है (तेन) उस द्वारा (नः) हमें (मृड) सुखी कर।

    टिप्पणी

    [(१) पृथिवी पर बहुत मार्ग होने चाहिये मनुष्यों के जाने आने के लिये। (२) रथों के मार्ग अलग होने चाहियें। (३) बैल गाड़ी के मार्ग भी अलग होने चाहिये। (४) जनायन मार्गों पर भले बुरे दोनों प्रकार के मनुष्य मिल कर चल सकने चाहिये। (५) अपने मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये ताकि शत्रु उन पर स्वामित्व न कर सके, उन पर विजय न पा सके। (६) मार्ग चोरों डाकुओं से रहित होने चाहियें। (७) जीवन के लिये कल्याणकारी मार्ग का अवलम्बन कर सुख प्राप्त करना चाहिये। यह सब प्रबन्ध पृथिवी के राज्याधिकारियों को करना चाहिये। अतस्करम्= देखो मन्त्र ३२ की व्याख्या]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे पृथिवि ! (ये) जो (ते) तेरे (बहवः) बहुत सारें (जनायनाः) मनुष्यों के जाने के रथों के (पन्थानः) रास्ते हैं और (रथस्य) रथों के और (अनसः च यातवे) गाड़ों के जाने के लिये (वर्त्म) रास्ते हैं (यैः) जिनसे (भद्रपापाः) भले और बुरे (उभये) दोनों प्रकार के लोग (संचरन्ति) बराबर चला करते हैं (तं पन्थानं) उस मार्ग को हम लोग (जयेम) विजय करें जिससे वह (अनमित्रं) शत्रु रहित और (अतस्करम्) तस्कर चोर डाकू रहित हो जाय। हे पृथिवि (यत् शिवम्) जो मङ्गल, कल्याणकारी पदार्थ हो (तेन नः मृड) उससे हमें सुखी कर।

    टिप्पणी

    ‘पन्थानो बहुधा’ (तृ०) ‘येभिश्चर’ (च०) ‘पन्थां जयेम’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (ये ते बहवः-जनायनाः पन्थानः) जो वे बहुत से जायमान प्राणियों के चलने योग्य मार्ग हैं (रथस्य-अनसः च वर्त्मा यातवे) रथ और गाडी के-जाने का मार्ग है (यैः-उभये भद्रपापाः सञ्चरन्ति) जिनसे पुण्यात्मा और पापी दोनों चला करते हैं (तं पन्थानम् अनमित्रम्-अतस्करं जयेम) उस मार्ग को भी शत्रुरहित चोर से रहित करके जीतें स्वाधीन करें (यत्शिवं तेन नः-मृड) जो सुख है उससे हमें सुखी कर ॥४७॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Many are the paths and highways for carts and chariots meant for public transport, by which both good people and bad elements of society travel. Pray let us control them and make them free from enemies, thieves, robbers and smugglers. O Mother Earth, bless us with that which is good.

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    Translation

    What many roads thou hast, for people to go upon, a track for the chariot, and for the going of the cart, by which men of both kinds, excellent and evil go about — that road, free from enemies, free from robbers, may we conquer; be thou gracious to us with that which is propitious.

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    Translation

    There are many ways of this mother earth fit for people to travel upon the road for and wagon to journey over by which booth the good and the bad pass together may we conquer these paths rid of the foe and the robber may she bless us with all that is good?

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    Translation

    Thy many paths on which the people travel, the road for car and wain to journey over, upon which walk both the virtuous and the sinners, that pathway may we attain without a foe or thief. With all things gracious bless thou us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४७−(ये) (ते) तव (पन्थानः) मार्गाः (बहवः) नानाप्रकाराः (जनायनाः) जन+अयनाः। मनुष्यैर्गन्तुं योग्याः (रथस्य) रमणीययानस्य (वर्त्म) मार्गः (अनसः) अन जीवने−असुन्। शकटस्य। अन्नस्य। (च) (यातवे) यातुम् (यैः) मार्गैः (संचरन्ति) विचरन्ति (उभये) द्वित्वविशिष्टाः (भद्रपापाः) साध्वसाधवः (तम्) पन्थानम् (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम (अनमित्रम्) अशत्रुम् (अतस्करम्) अचौरम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ४६ ॥

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