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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराडतिजगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
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    भूम्यां॑ दे॒वेभ्यो॑ ददति य॒ज्ञं ह॒व्यमरं॑कृतम्। भूम्यां॑ मनु॒ष्या॑ जीवन्ति स्व॒धयान्ने॑न॒ मर्त्याः॑। सा नो॒ भूमिः॑ प्रा॒णमायु॑र्दधातु ज॒रद॑ष्टिं मा पृथि॒वी कृ॑णोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूम्या॑म् । दे॒वेभ्य॑: । द॒द॒ति॒ । य॒ज्ञम् । ह॒व्यम् । अर॑म्ऽकृतम् । भूम्या॑म् । म॒नु॒ष्या᳡: । जी॒व॒न्ति॒ । स्व॒धया॑ । अन्ने॑न । मर्त्या॑: । सा । न॒: । भूमि॑: । प्रा॒णम् । आयु॑: । द॒धा॒तु॒ । ज॒रत्ऽअ॑ष्टिम् । मा॒ । पृ॒थि॒वी । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम्। भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः। सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूम्याम् । देवेभ्य: । ददति । यज्ञम् । हव्यम् । अरम्ऽकृतम् । भूम्याम् । मनुष्या: । जीवन्ति । स्वधया । अन्नेन । मर्त्या: । सा । न: । भूमि: । प्राणम् । आयु: । दधातु । जरत्ऽअष्टिम् । मा । पृथिवी । कृणोतु ॥१.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूम्याम्) भूमि पर (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के लिये (मनुष्याः) मनुष्य (हव्यम्) देने-लेने योग्य, (अरंकृतम्) शोभित करनेवाले वा शक्तिमान् करनेवाले (यज्ञम्) संगतिकरण व्यवहार को (ददति) दान करते हैं। (भूम्याम्) भूमि पर (मर्त्याः) मनुष्य (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (अन्नेन) अन्न द्वारा (जीवन्ति) जीवते हैं। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हम को (प्राणम्) प्राण [आत्मबल] और (आयुः) आयु [जीवन] (दधातु) देवे, और [वही] (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ को (जरदष्टिम्) स्तुति के साथ प्रवृत्ति वा भोजनवाला (कृणोतु) करे ॥२२॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार मनुष्य उत्तम पुरुषों से मिलकर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ गुण प्राप्त करते और दूसरों को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार हम उत्तम गुण प्राप्त करके अपना जीवन श्रेष्ठ बनावें ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(भूम्याम्) (देवेभ्यः) कमनीयगुणानां प्राप्तये (ददति) प्रयच्छन्ति (यज्ञम्) संगतिव्यवहारम् (हव्यम्) दानादानयोग्यम् (अरंकृतम्) अलम्+करोतेः−क्विप्। शोभितं शक्तिमन्तं वा करोतीति तम् (भूम्याम्) (मनुष्याः) (जीवन्ति) प्राणान् धारयन्ति (स्वधया) स्व+दधातेः क्विप्। आत्मधारणशक्त्या (अन्नेन) जीवनसाधनेन (मर्त्याः) (सा) (नः) अस्मभ्यम् (प्राणम्) आत्मबलम् (आयुः) जीवनम् (दधातु) ददातु (जरदष्टिम्) अ० २।२८।५। जीर्यतेरतृन् पा० ३।२।१०४। जॄ स्तुतौ−अतृन्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। अशू व्याप्तौ अश भोजने च−क्तिन्। जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य तम् (मा) माम् (पृथिवी) भूमिः (कृणोतु) करोतु ॥

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    विषय

    प्राणशक्ति-सम्पन्न दीर्घजीवन

    पदार्थ

    १. (भूम्याम्) = इस पृथिवी पर (देवेभ्य:) = वायु आदि देवो के लिए इनकी शुद्धि के लिए (अरंकृतम्) = सम्यक् सुसंस्कृत की हुई (हव्यम्) = हव्य सामग्री को तथा (यज्ञम्) = अग्नि के साथ घृतादि के सम्पर्क रूप [यज्ञ संगतिकरणे] यज्ञ को (ददति) = देते हैं । इस यज्ञ के द्वारा ही वस्तुत: (भूम्याम्) = इस पृथिवी पर (माः मनुष्या:) = ये मरणधर्मा (स्वधया) = [पितृभ्यः स्वधा] वृद्ध माता-पिताओं के लिए दिये जानेवाले अन्न से तथा अन्न-स्वयं भुज्यमान अन्न से (जीवन्ति) = जीते हैं। यज्ञ ही मनुष्यों को आवश्यक अन्न प्राप्त कराते हैं। २. (सा: भूमिः) = वह भूमि (न:) = हमारे लिए (प्राणम् आयु:) = प्राणशक्ति व दीर्घजीवन को (दधातु) = धारण करे। यह (पृथिवी) = पृथिवी (मा) = मुझे (जरदष्टिम्) = जरावस्थापर्यन्त पूर्ण दीर्घजीवन को व्यास करनेवाला (कृणोतु) = करे, अर्थात् यज्ञवेदि बनी हुई यह पृथिवी हमें प्राणशक्ति व प्रशस्त दीर्घजीवन प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    हम इस पृथिवी पर यज्ञशील बनें। ये यज्ञ हमें स्वधा व अन्न प्राप्त कराएँ। इस प्रकार हम प्राणशक्ति-सम्पन्न दीर्घ जीवनवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (भूम्याम्) भूमि में (देवेभ्यः१) देवों के प्रति (यज्ञम्) यज्ञक्रियाएं (अरंकृतम्, हव्यम्) तथा अलंकृत हवियां (ददति) भेंट में देते हैं। (भूम्याम्) भूमि में (मर्त्याः) मरणधर्मा (मनुष्याः) मनुष्य (स्वधया) निज का धारण तथा पोषण करने वाले (अन्नेन) अन्न द्वारा (जीवन्ति) जीवित होते हैं। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (प्राणम्, आयुः) प्राण शक्ति और दीर्घायु (दधातु) प्रदान करे, (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ प्रत्येक को (जरदष्टिम्) जरावस्था तक पहुंचने वाला (कुणोतु) करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में देवों के प्रति आहुति-प्रदान और उन द्वारा प्राप्त अन्न का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। यथा- अग्नौ प्रास्ताहुतिस्तावदादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिः वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥ गीता में भी इस पारस्परिक सम्बन्ध को निम्नलिखित श्लोक द्वारा दर्शाया है। यथा—देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। (३।११)॥ [भूमिः, पृथिवी = उत्पादन की दृष्टि से पृथिवी भूमि है, और विस्तार की दृष्टि से वह पृथिवी है। आदित्य द्वारा वर्षा होने पर पृथिवी उत्पादिका होती है। स्वधया, अन्नेन= दीर्घजीवन के लिये ऐसे अन्न का सेवन करना चाहिये जिस से शरीर का दीर्घकाल तक धारण हो सके तथा शरीर और मन परिपुष्ट हो सकें, तथा शरीर में प्राणों का ठीक संचार होता रहे; मांस मदिरा आदि का प्रयोग विघातक हैं। स्वधया= स्व +धा (धारणपोषणयोः अन्नेन२ = अन् प्राणने]। [१. तथा "भूमि में अतिथि देवों के प्रति यज्ञ अर्थात् पूजा-संस्कार तथा दान और सुसंस्कृत अन्न प्रदान करते हैं"। अवशिष्ट मन्त्रार्थ दोनों अर्थों में समान है। हव्यम्= हु अदने, खाने योग्य अन्न। २. अनिति जीवयतीति अन्नम् (उणा० ३।१०, महर्षि दयानन्द)। अथवा अन्नम् = अद् (भक्षणे) + क्तः।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    और भी भूमि का माहात्म्य यह है कि मनुष्य (भूम्याम्) भूमि पर (अरंकृतम्) सुन्दर सुशोभित (हव्यम्) हव्य, चरु-और (यज्ञं) पूजा आदि सत्कार (देवेभ्यः) देव, दिव्य पदार्थों और प्रकाशमान, देव सदृश विद्वानों को (ददति) प्रदान करते हैं। और तब (मर्त्याः) मरणधर्मा (मनुष्याः) मनुष्य लोग (भूम्याम्) भूमि पर ही (स्वधया) स्वधारूप (अन्नेन) अन्न से (मर्त्याः) मरणधर्मा (जीवन्ति) प्राण धारण करते हैं। (सा) वह (भूमिः) भूमि (नः) हमें (प्राणम् आयुः) प्राण और आयु (दधातु) प्रदान करे। (मां) मुझे (पृथिवी) पृथिवी (जरदष्टिं) वृद्धावस्था तक दीर्घजीवी (कृणोतु) करे।

    टिप्पणी

    ‘जुह्वति यज्ञं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूम्यां देवेभ्यः-यज्ञं अरंकृतं हव्यं ददति) भूमि में दिव्य शक्ति वाले वायु आदि पदार्थों के लिए यजनीय शुद्ध पुष्ट समर्थ हव्य-प्रदन-अन्न बीज "हव्यमदनम्" (निरु० ११।३३) । को समर्पित करते हैं कृषक (भूम्यां मनुष्याः स्वधया मर्त्याः अन्नेन जीवन्ति) भूमि पर रहने वाले मनुष्य स्वधा-अपने को धारण करने वाले उत्तम फल आदि और मर्त्य-साधारण जन स्थूल अन्न से जीते हैं (सा भूमिः पृथिवी वः प्राणम्-आयु:-दधातु जरदष्टिं मा कृणेतु) वह उपजाऊ पृथिवी हमारे लिए प्राण और आयु धारण करें मुझे जरा अवस्था तक भोक्ता बनावें ॥२२॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    On earth, people offer homage of the finest and best prepared havi in yajna to the divinities, and they offer service and hospitality to revered sages and scholars. On earth, mortal men live their life on food with their own essential nature, character and energy for survival and growth. May that Mother Earth, giver of food and energy, bring us pranic energy, good health and full long age to live a life of piety and fulfilment.

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    Translation

    On the earth they give to the gods the sacrifice, the oblation, duly prepared; on the earth mortal men live by svadha, by food; let that earth assign us breath, Iife-time; let earth make me one who attains old age.

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    Translation

    In the earth men keep on a mutual refined civil inter-course for their betterment by the acquisition of good qualities, By means of their power of endurance and through food mortal men live on the earth. May that earth give us vitablity and long life and may she help me to live to a good old age.

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    Translation

    On earth they offer sacrifice and dressed oblation to the learned. Mortal men live upon the earth by food and their inherent strength. May that Motherland grant us breath and vital power, O motherland, give me life of long duration!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(भूम्याम्) (देवेभ्यः) कमनीयगुणानां प्राप्तये (ददति) प्रयच्छन्ति (यज्ञम्) संगतिव्यवहारम् (हव्यम्) दानादानयोग्यम् (अरंकृतम्) अलम्+करोतेः−क्विप्। शोभितं शक्तिमन्तं वा करोतीति तम् (भूम्याम्) (मनुष्याः) (जीवन्ति) प्राणान् धारयन्ति (स्वधया) स्व+दधातेः क्विप्। आत्मधारणशक्त्या (अन्नेन) जीवनसाधनेन (मर्त्याः) (सा) (नः) अस्मभ्यम् (प्राणम्) आत्मबलम् (आयुः) जीवनम् (दधातु) ददातु (जरदष्टिम्) अ० २।२८।५। जीर्यतेरतृन् पा० ३।२।१०४। जॄ स्तुतौ−अतृन्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। अशू व्याप्तौ अश भोजने च−क्तिन्। जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य तम् (मा) माम् (पृथिवी) भूमिः (कृणोतु) करोतु ॥

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