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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदोष्णिगनुष्टुब्गर्भा शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त
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    यस्ते॑ ग॒न्धः पुरु॑षेषु स्त्री॒षु पुं॒सु भगो॒ रुचिः॑। यो अश्वे॑षु वी॒रेषु॒ यो मृ॒गेषू॒त ह॒स्तिषु॑। क॒न्यायां॒ वर्चो॒ यद्भू॑मे॒ तेना॒स्माँ अपि॒ सं सृ॑ज॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । ग॒न्ध: । पुरु॑षेषु । स्त्री॒षु । पु॒म्ऽसु । भग॑: । रुचि॑: । य: । अश्वे॑षु । वी॒रेषु॑ । य: । मृ॒गेषु॑ । उ॒त । ह॒स्तिषु॑ । क॒न्या᳡याम् । वर्च॑: । यत् । भू॒मे॒ । तेन॑ । अ॒स्मान् । अपि । सम् । सृ॒ज॒ । मा । न॒: । द्वि॒क्ष॒त॒ । क: । च॒न ॥२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसु भगो रुचिः। यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु। कन्यायां वर्चो यद्भूमे तेनास्माँ अपि सं सृज मा नो द्विक्षत कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । गन्ध: । पुरुषेषु । स्त्रीषु । पुम्ऽसु । भग: । रुचि: । य: । अश्वेषु । वीरेषु । य: । मृगेषु । उत । हस्तिषु । कन्यायाम् । वर्च: । यत् । भूमे । तेन । अस्मान् । अपि । सम् । सृज । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध [अंश] (पुरुषेषु) अग्रगामी (पुंसु) रक्षक मनुष्यों में और (स्त्रीषु) स्त्रियों में (भगः) सेवनीय ऐश्वर्य और (रुचिः) कान्ति है। (यः) जो [गन्ध] (वीरेषु) वेगवान् (अश्वेषु) घोड़ों में (उत) और (यः) जो (मृगेषु) हरिणों में और (हस्तिषु) हाथियों में है और (यत्) जो (वर्चः) तेज (कन्यायाम्) चमकती हुई कन्या [कन्या आदि राशि ज्योतिश्चक्र] में है, (भूमे) हे भूमि ! (तेन) उस [तेज] के साथ (अस्मान् अपि) हमें भी (सं सृज) मिला, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (मा) मुझ से (मा द्विक्षत) वैर न करे ॥२५॥

    भावार्थ

    पृथिवी का आश्रय लेकर संसार के देहधारी मनुष्य आदि सब प्राणी और अन्तरिक्ष के तारागण आदि सब लोक स्थित हैं, वैसे ही मनुष्य सब प्रकार उपकारी और तेजस्वी होकर विघ्नों का नाश करें ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(यः) (ते) (गन्धः) (पुरुषेषु) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगतौ−कुषन्। अग्रगामिषु (स्त्रीषु) (पुंसु) पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। पा रक्षणे डुमसुन्। रक्षकेषु मनुष्येषु (भगः) सेवनीयमैश्वर्यम् (रुचिः) कान्तिः (यः) (अश्वेषु) तुरङ्गेषु (वीरेषु) वि+ईर गतौ−अच्। वेगवत्सु (यः) (मृगेषु) हरिणेषु (हस्तिषु) गजेषु (कन्यायाम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। कन प्रीतौ द्युतौ गतौ−यक्, टाप् च। कन्या कमनीया भवति क्वेयं नेतव्येति वा कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः−निरु० ४।१५। मेषादितः षष्ठे राशौ। ज्योतिश्चक्रे (वर्चः) तेजः (यत्) (भूमे) (तेन) वर्चसा (अस्मान्) (अपि) (संसृज) संजनय। संयोजय। अन्यत् पूर्ववत्−म० २४ ॥

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    विषय

    भग-रुचि-वर्चस्

    पदार्थ

    १. हे (भूमे) = भूमिमातः ! (यः ते गन्धः) = जो तेरा गन्ध (पुरुषेषु) = पौरुषयुक्त मनुष्यों में स्त्रीषु-स्त्रियों में तथा पुंसु-[पु] पवित्र जीवनवाले पुरुषों में है, य: जो मृगेषु-हरिणों में उत-और हस्तिषु-हाथियों में है और यत्-जो कन्यायाम्-युवति कन्या में वर्च: वर्चस् [तेजोदीसि] के रूप में है, तेन-उस गन्ध से- ऐश्वर्य दीप्ति व बर्चस्' [भगः रुचिः वर्चः] से अस्मान् अपि मा संसज-हमें भी संसृष्ट कर । हमारा जीवन ऐसा हो कि न:-हमें कश्चन-कोई भी मा द्विक्षत-द्वेष न करे। हमारे साथ सबकी प्रीति हो।

    भावार्थ

    इस पृथिवी के सम्पर्क से उस-उस स्थान पर 'भग, रुचि व वर्चस्' दिखता है। हमारा जीवन भी 'ऐश्वर्य, दीप्ति व तेजस्विता' वाला हो। हमारा सभी से प्रेम हो।

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    भाषार्थ

    (यः ते गन्धः) जो तेरा गन्ध (पुरुषेषु) पौरुषशक्ति सम्पन्न मनुष्यों में, (स्त्रीषु) स्त्रियों में, (पुंसु) तथा बुद्धिशील मनुष्यों में है, तथा जो (भगः) तेरा भग और (रुचिः) दीप्ति या रोचकता है, (यः) जो (अश्वेषु) अश्वों में (वीरेषु) वीर योद्धाओं में, (यः) जो (मृगेषु) मृगों में (उत) और (हस्तिषु) हाथियों में है, (यद्) जो (वर्चः) दीप्ति (कन्यायाम्) कन्या में है, (भूमे) हे उत्पादिका पृथिवी ! (तेन) उसके साथ (अस्मान् अपि) हमारा भी (संसृज) संसर्ग कर, ताकि (नः) हमारे साथ (कश्चन) कोई भी (मा दिक्षत) न द्वेष करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में गन्ध पद, घ्राणेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य "पृथिवी के गन्ध गुणमात्र" का निर्देश नहीं करता, अपितु सामान्य रूप से उस के "अंश" का निर्देश करता है इस लिये भगः, रुचिः, तथा वर्चः-इन का समन्वय सम्भव हो सकता है। "पुरुषेषु" आदि में भिन्न-भिन्न पार्थिव अंशो का सम्बन्ध है, इन अंशों के सम्बन्ध से पुरुष आदि में भिन्न-भिन्न शक्तियां प्रकट होती है। जैसे कि एक ही माता से उत्पन्न सन्तानों में, माता के भिन्न-भिन्न अंशों के समावेश द्वारा, सन्तानों में भिन्न-भिन्न आकृतियां तथा गुण प्रकट होते हैं। पुरुषों, स्त्रियों, वृद्धिशील मनुष्यों, अश्वों, वीरों, मृगों, हस्तियों तथा कन्या में, पृथक्-पृथक् पार्थिव अंशों के होने से, उन में भय, रुचि तथा वर्चस् आदि गुणों का भी पार्थक्य है। किसी भी एक पुरुष में इन भिन्न-भिन्न गुणों तथा शक्तियों का एकत्रीकरण सम्भव नहीं। अतः मन्त्र में इन गुणों और शक्तियों के संसर्ग की जो इच्छा प्रकट की गई है उस का यह अभिप्राय है कि हमारे सामाजिक जीवनों में इन भिन्न-भिन्न गुणों वाले व्यक्ति हों, ताकि ऐसे व्यक्तियों की सत्ता होने पर, किसी को हमारे साथ राजनैतिक द्वेष करने का साहस न हो। पुंसु= पुंस् अभिवर्धने। भगः = ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा। रुचिः= रुच् दीप्तौ। वर्चस्= वर्च् दीप्तौ। रुचि में रोचकता, तथा वर्चस् में कान्ति की विशेष भावना है]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे (भूमे) सबके उत्पत्ति स्थान ! पृथिवि ! (ते यः गन्धः) तेरा जो गन्ध (पुरुषेषु स्त्रीषु) पुरुषों और स्त्रियों में विद्यमान है। और (पुंसु भगः रुचिः) जो तेरा गन्ध पुरुषों में, नरों में सौभाग्यमय कान्ति रूप से विद्यमान है। (वः अश्वेषु) जो अश्वों में, (वीरेषु) वीर्यवान् पुरुषों में (यः) जो (मृगेषु) मृगों में (उत) और जो (हस्तिषु) हाथियों में है। (यद् वर्चः) जो वर्चस, कान्तिमय भाग (कन्यायाम्) कन्या कुमारी में विद्यमान है (तेन) उस गन्ध और कान्ति से (अस्मान् अपि) हमें भी (सं सृज) युक्त कर। (नः कश्चन मा द्विक्षत) हमसे कोई द्वेष न करे।

    टिप्पणी

    ‘पुंसुभगो रुचिर्योवधूषु ! योगोष्वश्वेषु योमृगेषूत हस्तिषु यद् भूमेऽसंसृज’ इस पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूमे ते यः-गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसु भगः-रुचिः) हे भूमे ! तेरा जो शक्ति रूप अंश षरुषों में अर्थात् पुंसु-पुरुषत्वशक्तिवालों में भगः-ऐश्वर्यमय और स्त्रियों में रुचि-कान्तिरूप है (यः-वीरेषु-अश्वेषु यः-मृगेषु-उत हस्तिषु ) जो वीर घोड़ों में जो और हाथियों में (कन्यायां वर्चः-यत् तेन-अस्मान् अपि संसृज नः-मा-क:-चन द्विक्षत) कन्या कुमारी में जो वर्चः-कान्तिमय तेज है उससे हमें भी संयुक्त कर, कोई हमें द्वेष न करे ॥२५॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    That fragrance of yours which breathes in men, in women, in males and females, which is in grandeur and excellence, beauty and glamour, which is in horses and brave heroes, which is in beasts of the forest and in elephants, which is in the beauty of innocence and lustre of virginity among maidens, with that fragrance, O Mother Earth, make us fragrant. Let none of us hate any one, let no one hate us.

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    Translation

    What odor of thine is in human beings, in women, in men, portion, pleasure; what in horses, in heroes, what in wild animals and in elephants; what splendor, O earth, in a maiden — with that do thou unite us also; let no one soever hate us.

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    Translation

    May the earth, the abode of all,by her special characteristic distinguished by fragrance which appears in leaders of men, in male and female creatures as their enjoyable qualities and luster, in fast running horses, the deer and elephant as agility and greatness, in the constellation Virgo as its luster, bestow on us also that virtue of herbs. May no body bear us any ill will.

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    Translation

    Thy scent in women and in men, the luck and light that is in males, the swiftness that is in heroes and in steeds, in sylvans beasts and elephants, the splendid energy of maids, therewith do thou unite us, O Motherland ! Let no man look on us with hate.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(यः) (ते) (गन्धः) (पुरुषेषु) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगतौ−कुषन्। अग्रगामिषु (स्त्रीषु) (पुंसु) पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। पा रक्षणे डुमसुन्। रक्षकेषु मनुष्येषु (भगः) सेवनीयमैश्वर्यम् (रुचिः) कान्तिः (यः) (अश्वेषु) तुरङ्गेषु (वीरेषु) वि+ईर गतौ−अच्। वेगवत्सु (यः) (मृगेषु) हरिणेषु (हस्तिषु) गजेषु (कन्यायाम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। कन प्रीतौ द्युतौ गतौ−यक्, टाप् च। कन्या कमनीया भवति क्वेयं नेतव्येति वा कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः−निरु० ४।१५। मेषादितः षष्ठे राशौ। ज्योतिश्चक्रे (वर्चः) तेजः (यत्) (भूमे) (तेन) वर्चसा (अस्मान्) (अपि) (संसृज) संजनय। संयोजय। अन्यत् पूर्ववत्−म० २४ ॥

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