अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
अ॒ग्निर्दि॒व आ त॑पत्य॒ग्नेर्दे॒वस्यो॒र्वन्तरि॑क्षम्। अ॒ग्निं मर्ता॑स इन्धते हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । दि॒व: । आ । त॒प॒ति॒ । अ॒ग्ने: । दे॒वस्य॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ग्निम् । मर्ता॑स: । इ॒न्ध॒ते॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । ह॒व्य॒ ऽवाह॑म् । घृ॒त॒ऽप्रिय॑म् ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वन्तरिक्षम्। अग्निं मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । दिव: । आ । तपति । अग्ने: । देवस्य । उरु । अन्तरिक्षम् । अग्निम् । मर्तास: । इन्धते । हव्यऽवाहम् । हव्य ऽवाहम् । घृतऽप्रियम् ॥१.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) अग्नि [ताप] (दिवः) सूर्य से (आ तपति) आकर तपता है, (देवस्य) कामनायोग्य (अग्नेः) अग्नि का (उरु) चौड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [अवकाश] है। (हव्यवाहम्) हव्य [आहुति के द्रव्य अथवा नाड़ियों में अन्न के रस] को ले चलनेवाले, (घृतप्रियम्) घृत के चाहनेवाले (अग्निम्) अग्नि को (मर्तासः) मनुष्य लोग (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं ॥२०॥
भावार्थ
वह अग्नि ताप भूमि में [म० १९] सूर्य से आता है, तथा आकाश के पदार्थों में प्रवेश करके उन्हें बलयुक्त करता है। उस अग्नि को मनुष्य आदि प्राणी भोजन आदि से शरीर में बढ़ा कर पुष्ट और बलवान् होते हैं। तथा उसी अग्नि को हव्यद्रव्यों से प्रज्वलित करके मनुष्य वायु, जल और अन्न को शुद्ध निर्दोष करते हैं ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(अग्निः) तापः (दिवः) सूर्यात् (आ) आगत्य (तपति) दहति (अग्नेः) तापस्य (देवस्य) कमनीयस्य (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) अवकाशः (अग्निम्) (मर्तासः) मनुष्याः (इन्धते) दीपयन्ति (हव्यवाहम्) होमद्रव्यस्य अन्नरसस्य वा वाहकम् (घृतप्रियम्) घृतेच्छुकम् ॥
विषय
त्रिलोकी में 'अग्नि'
पदार्थ
१. (दिवः) = लोक से यह (अग्निः आतपति) = सूर्यरूप अग्नि समन्तात् दोस हो रहा है। (देवस्य अग्नेः) = प्रकाशमय विद्युद्प अग्नि का ही यह (उरु अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्ष है। (मास:) = इस पृथिवी पर स्थित मनुष्य उस (अग्निं इन्धते) = अग्नि को दीस करते हैं, जोकि (हव्यवाहम) = हव्य पदार्थों का वहन करता है और (घृतप्रियम्) = घृत के द्वारा प्रीणित होनेवाला है, अर्थात् मनुष्य यहाँ यज्ञाग्नि को दीप्त करते हैं।
भावार्थ
यह अग्नि द्युलोक में सूर्यरूप से है, अन्तरिक्ष में विधुदूप से तथा इस पृथिवी पर यज्ञाग्नि के रूप में मनुष्यों से दीप्त किया जाता है।
भाषार्थ
(अग्निः, दिवः, आ तपति) अग्नि अर्थात् सौराग्नि द्युलोक से आ कर ताप देती है, (उरु, अन्तरिक्षम्) विस्तृत अन्तरिक्ष (देवस्य अग्नेः) द्योतमान अग्नि अर्थात् विद्युत् का स्थान है, (हव्यवाहम्) हवियों को वहन करने वाली, (घृतप्रियम्) घृत की प्यारी अग्नि को (मर्तासः) मनुष्य (इन्धते) यज्ञों में प्रदीप्त करते हैं ॥२०॥ (पृथिवी अग्निवासाः) पृथिवी में अग्नि बसी हुई है, (असितज्ञूः) यह पृथिवी बन्धन को नहीं जानती, पृथिवी (मा) मुझ प्रत्येक पृथिवी वासी के (त्विषीमन्तम्) दीप्तिमान् तथा (संशितम्) सम्यक् उग्ररूप (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[मन्त्र १९ - २१; भूम्याम्= पार्थिव अग्नि ज्वालामुखी पर्वतों में प्रायः प्रकट होती है। ओषधियों में निहित अग्नि ओषधियों के जलाने पर प्रकट होती है। आपः अर्थात् जल में अग्नि रहती है, यथा "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्" (अथर्व० १।६।२)। विश्वशम्भुवम्= सब रोगों को शान्त करने वाली अग्नि। अश्मा अर्थात् पत्थर पर पत्थर की चोट मारने पर अग्नि प्रकट होती है, और मेघों में विद्युत् रूप में अग्नि प्रकट होती है। पुरुषों, अश्वों तथा गौओं में जाठराग्नि तथा शारीरिक तापमान के रूप में organic अग्नियां होती हैं (मन्त्र १९)। अग्नेः, देवस्य = अन्तरिक्ष व्यापी Ionic sphere; असितज्ञूः= अ+ षिञ् बन्धने+ज्ञा अव=बोधने। पृथिवी स्वतन्त्रता को जानती है, बन्धन को नहीं। परतन्त्र हुए देश भी समय पा कर स्वतन्त्र हो जाते हैं। संशितम्= स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये उग्रता। अन्तरिक्ष के अल्पस्थान में वायु और जल विद्यमान हैं। शेष विस्तृत अन्तरिक्ष में सूर्य से निकले विद्युत् से आविष्ट सौर-कण व्याप्त हैं, जिन्हें कि आयोनिकस्तर कहते हैं]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(दिवः) द्यौ आकाश से भी (अग्निः) अग्नि-रूप सूर्य (आतपति) तपता है। (अग्नेः देवस्य) देव, प्रकाशमान अग्नि के वश में ही (उरु अन्तरिक्षम्) विशाल अन्तरिक्ष है (मर्त्तासः) मर्त्य, मनुष्य भी (हव्यवाहम्) हव्य चरु को सर्वत्र दिव्य पदार्थों तक पहुंचा देने वाले और (घृतप्रियम्) घृत आदि ज्वलनशील पदार्थों के प्रिय (अग्निम्) अग्नि को ही यज्ञों में (इन्धते) प्रदीप्त करते हैं।
टिप्पणी
‘दिवातपति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(अग्निः-दिवः-आतपति) द्युलोक से अग्नि तपती है सूर्य में रह कर (अग्नेः-देवस्य-उरु-अन्तरिक्षम्) अग्निदेव का महान् अन्तरिक्ष स्थान है जो कि (हव्यवाहं घृतप्रियम्-अग्निम्-मर्तासः-इन्धते) हव्य को वहन करने वाले घृत प्रिय है जिसका ऐसे अग्नि को ऋत्विक जन प्रकाशित करते हैं ॥२०॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Agni burns, shines and radiates from the solar region as the sun. By divine Agni, wind blows and lightning flashes as electrical energy. Humans light the fire which loves to consume ghrta and carries the oblations from earth to heaven.
Translation
Agni sends heat from the sky; the wide atmosphere is god . Agni's; mortals kindle Agni oblation-bearer, ghee-lover.
Translation
Heat (or electricity) proceeds (originally) from the sun and then finds shelter on earth. It occupies the spacious in termdiate region (sky) as well. Men (the mortals ) light it in the form of the Yajna fire which is kept up by greasy and combustible substances and which carries the fragrance of articles burrent in the Yajna fire.
Translation
Fire gives shine and heat to the earth from the Sun, the spacious air is under the control of lustrous fire. Men enkindle fire, the lover of butter, and the bearer of oblation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(अग्निः) तापः (दिवः) सूर्यात् (आ) आगत्य (तपति) दहति (अग्नेः) तापस्य (देवस्य) कमनीयस्य (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) अवकाशः (अग्निम्) (मर्तासः) मनुष्याः (इन्धते) दीपयन्ति (हव्यवाहम्) होमद्रव्यस्य अन्नरसस्य वा वाहकम् (घृतप्रियम्) घृतेच्छुकम् ॥
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