अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
यस्या॒मन्नं॑ व्रीहिय॒वौ यस्या॑ इ॒माः पञ्च॑ कृ॒ष्टयः॑। भूम्यै॑ प॒र्जन्य॑पत्न्यै॒ नमो॑ऽस्तु व॒र्षमे॑दसे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । अन्न॑म् । व्री॒हि॒ऽय॒वौ । यस्या॑: । इ॒मा: । पञ्च॑ । कृ॒ष्टय॑: । भूम्यै॑ । प॒र्जन्य॑ऽपत्न्यै । नम॑: । अ॒स्तु॒ । व॒र्षऽमे॑दसे ॥१.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्च कृष्टयः। भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । अन्नम् । व्रीहिऽयवौ । यस्या: । इमा: । पञ्च । कृष्टय: । भूम्यै । पर्जन्यऽपत्न्यै । नम: । अस्तु । वर्षऽमेदसे ॥१.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (अन्नम्) अन्न, (व्रीहियवौ) चावल और जौ हैं, (यस्याः) जिस के [ऊपर] (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश] से सम्बन्धवाले (इमाः) यह (कृष्टयः) मनुष्य हैं। (वर्षमेदसे) वर्षा से स्नेह रखनेवाली, (पर्जन्यपत्न्यै) मेघ से पालन की गयी (भूम्यै) उस भूमि के लिये (नमः अस्तु) [हमारा] अन्न होवे ॥४२॥
भावार्थ
मनुष्य पृथिवी के हित के लिये पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों से उपकार लेकर अन्न आदि प्राप्त करें ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(यस्याम्) भूम्याम् (अन्नम्) (व्रीहियवौ) (यस्याः) (इमाः) दृश्यमानाः (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतैः संबद्धाः (कृष्टयः) अ० ३।२४।३। मनुष्याः−निघ० २।३। (भूम्यै) (पर्जन्यपत्न्यै) मेघेन पालनीयायै (नमः) अन्नम्−निघ० २।७। (अस्तु) (वर्षमेदसे) ञिमिदा स्नेहने−असुन्। वर्षाभिः स्नेहशीलायै ॥
विषय
व्रीहियवौ
पदार्थ
१. (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (व्रीहियवौ अत्रम्) = चावल व जो मनुष्य के प्रशस्त भोजन हैं। (यस्या:) = जिस पृथिवीमाता के (इमा:) = ये (पञ्च) = पाँच (कृष्टयः) = मनुष्य 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद' पुत्ररूप हैं। २. उस (पर्जन्यपन्यै) = मेघ की पत्नीरूप, (वर्षमेदसे) = वृष्टिजलरूप स्नेह वाली-वृष्टिजल से स्निग्ध (भूम्यै) = भूमि के लिए (नमः अस्तु) = हमारा नमस्कार हो। इस भूमि का हम उचित आदर करें। इसमें अन्नोत्पादन के लिए यत्नशील हों। मेष इस पृथिवी का पति है, वह पृथिवी पर जल का सेचन करता है। इस वृष्टि-जल से स्निग्ध पृथिवी में अन्न का उत्पादन होता है।
भावार्थ
हम वीहि व यव को ही अपना मुख्य भोजन बनाएँ। सभी को अपना भाई समझें। वृष्टि-जल से स्निग्ध होनेवाली भूमि में अन्नोत्पादन के लिए यत्नशील हों।
भाषार्थ
(यस्याम्) जिस भूमि में (अन्नम्, व्रीहियवौ) नानाविध अन्न१, तथा धान और जौं होते हैं, (यस्याः) जिस के (इमाः पञ्च कृष्टयः) विस्तृत ये कृषिकर्म होते हैं। (वर्षमेदसे) वर्षा द्वारा स्निग्ध हुई, (पर्जन्यपत्न्यै) मेघ की पत्नीरूपा (भूम्यै) भूमि के लिये, (नमः अस्तु) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[व्रीहि =धान; जिस के कूटने पर तण्डुल प्राप्त होते हैं। पञ्च= पचि विस्तारे। कृष्टयः; कृष्टि= कृषि; कृष्+क्तिन्। भूमि का पति मेघ कहा है। मेघ जल रूपी वीर्य का सिञ्चन पृथिवी में करता है जिस से अन्न आदि पैदा होते है। भूमि द्वारा संकुचित राष्ट्र का ग्रहण नहीं होता, अपितु समग्र पृथिवी का ग्रहण होता है। समग्र पृथिवी को माता मान कर उस के प्रति नमस्कार का विधान किया है। "पर्जन्यपत्न्यै" कविता रूप में कहा है। कृष्टि= Plouging, cultivating the soil (आप्टे)]।[१. यजुर्वेद १८।१२ में विविध अन्नों का वर्णन हुआ है। वे है "व्रीहयः, यवाः, माषाः, तिलाः, मुद्गाः, खल्वाः, प्रियङ्गवः, अणवः, श्यामाकाः, नीवाराः, गोधूमाः, मसुराः।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्याम्) जिस पर (अन्नं) अन्न, खाने योग्य पदार्थ (व्रीहियवौ) धान्य और जौ जाति के अन्न नाना प्रकार से उत्पन्न होते हैं। और (यस्याः) जिससे (इमाः) ये (पञ्च) पांच प्रकार के (कृष्टयः) मनुष्य, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और पांचवें निषाद = जंगली लोग उत्पन्न होते हैं। उस (पर्जन्यपत्न्यै) ‘पर्जन्य’, प्रजाओं के नेता, राजा और प्रजाओं का जल रस देने वाले मेघ की दोनों पत्नी और (वर्षमेदसे) वर्षा के जल से परिपूर्ण इस (भूम्यै) भूमि को (नमः अस्तु) सदा हमारा नमस्कार हो। अथवा—मेघ की पत्नी स्वरूप भूमि जिसमें वर्षा का जल खूब पड़े उसमें (नमः अस्तु) अन्न भी खूब हो।
टिप्पणी
(द्वि०) यत्रेमाः पञ्च गृष्टयः (च०) ‘वर्षमेधसे’ इति पैप्प० स०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्याम्-अन्नम्-व्रीहियवौ) जिस पृथिवी पर अन्न, अदनीयफल, धन और जौ होते हैं (यस्याः-इमा:-पञ्च कृष्टयः) जिसके ये पञ्च प्रकार के मनुष्य-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा वनवासी प्रजाएं पांच हैं (पर्जन्यपत्नयै वर्षमेदसे नमः अस्तु) उस मेघ की पत्नी प्रजावीज जल सीञ्चने योग्य वर्षा है स्नेह साधन जिसका ऐसी पृथिवी के लिए स्वागत हो ॥४२॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Whereon abound food grains, rice and barley, whereon five classes of people, native and foreign, happily live together, to this Mother Earth blest by showers, beloved of the cloud, honour and salutations !
Translation
On whom is food, rice and barley; whose are these five races to the earth, whose spouse is Parjanya, fattened by the rain, be homage.
Translation
May all praise flow from us for that mother earth on whom rice, barley and such other cereals fit for food abound, to whom belong five kinds of human beings, to whom the rains are dear and who is protected by rain-clouds.
Translation
On whom grow wheat, rice and barley, on whom are born five races of mankind, homage to her, nourished by the cloud, and loved by the rain.
Footnote
Five races: The learned, the warriors, traders, artisans and laborers,.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(यस्याम्) भूम्याम् (अन्नम्) (व्रीहियवौ) (यस्याः) (इमाः) दृश्यमानाः (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतैः संबद्धाः (कृष्टयः) अ० ३।२४।३। मनुष्याः−निघ० २।३। (भूम्यै) (पर्जन्यपत्न्यै) मेघेन पालनीयायै (नमः) अन्नम्−निघ० २।७। (अस्तु) (वर्षमेदसे) ञिमिदा स्नेहने−असुन्। वर्षाभिः स्नेहशीलायै ॥
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