अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
नि॒धिं बिभ्र॑ती बहु॒धा गुहा॒ वसु॑ म॒णिं हिर॑ण्यं पृथि॒वी द॑दातु मे। वसू॑नि नो वसु॒दा रास॑माना दे॒वी द॑धातु सुमन॒स्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽधिम् । बिभ्र॑ती । ब॒हु॒ऽधा । गुहा॑ । वसु॑ । म॒णिम् । हिर॑ण्यम् । पृ॒थि॒वी । द॒दा॒तु॒ । मे॒ । वसू॑नि । न॒: । व॒सु॒ऽदा: । रास॑माना । दे॒वी । द॒धा॒तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥१.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु मे। वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽधिम् । बिभ्रती । बहुऽधा । गुहा । वसु । मणिम् । हिरण्यम् । पृथिवी । ददातु । मे । वसूनि । न: । वसुऽदा: । रासमाना । देवी । दधातु । सुऽमनस्यमाना ॥१.४४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(गुहा) अपनी गुहा [गढ़े] में (निधिम्) निधि [धन का कोश] (बहुधा) अनेक प्रकार (बिभ्रती) रखती हुई (पृथिवी) पृथिवी (मे) मुझे (वसु) धन (मणिम्) मणि और (हिरण्यम्) सुवर्ण (ददातु) देवे। (वसुदाः) धन देनेवाली, (वसूनि) धनों को (रासमाना) देती हुई (देवी) वह देवी [उत्तम गुणवाली पृथिवी] (सुमनस्यमाना) प्रसन्न मन होकर (नः दधातु) हमारा पोषण करे ॥४४॥
भावार्थ
जो विद्वान् मनुष्य पृथिवी को खोजते हैं, वे खानों में से अनेक रत्न और सुवर्ण आदि पाकर प्रसन्नचित्त होते हैं ॥४४॥
टिप्पणी
४४−(निधिम्) धनसञ्चयम् (बिभ्रती) धरन्ती (बहुधा) अनेकप्रकारेण (गुहा) गुहायाम्। मर्ते (वसु) धनम् (मणिम्) (हिरण्यम्) सुवर्णम् (पृथिवी) (ददातु) (मे) मह्यम् (वसूनि) धनानि (नः) अस्मभ्यम् (वसुदाः) धनदात्री (रासमाना) रासतिर्दानकर्मा−निघ० ३।२०। ददती (देवी) दिव्यगुणा (दधातु) पोषतु (सुमनस्यमाना) अ० १।३५।१। शोभनमनस्का सती ॥
विषय
वसुदा, वसुधा
पदार्थ
१. (गुहा) = अपनी गुहाओं में (बहुधा निधिं बिभ्रती) = विविध कोशों को धारण करती हुई (पृथिवी) = यह भूमि (मे) = मेरे लिए (वसु) = धन को (मणिम्) = वैदूर्य आदि मणियों को तथा (हिरण्यम्) = सुवर्ण को (ददातु) = दे। २. यह (वसुदा:) = धनों को देनेवाली (देवी) = दिव्यगुणयुक्त पृथिवी (रासमाना) = वसुओं को देती हुई, (सुमनस्यामाना) = हमारे मन का उत्तम साधन बनती हुई (वसूनि दधातु) = वसुओं को हमारे लिए दे। यह भूमिमाता हमारे लिए वसुओं का धारण करे।
भावार्थ
यह पृथिवी वसुधा है। यह हमारे लिए वसुदा हो। वसुओं को प्राप्त करके हम सौमनस्यवाले हों।
भाषार्थ
(गुहा) खानों में (बहुधा) बहुत प्रकार की (निधिम्) निधियों को (बिभ्रती) धारण करती हुई (पृथिवी) पृथिवी, (मे) मुझ (वसु) धन, (मणिम्) रत्न, (हिरण्यम्) सुवर्ण (ददातु) प्रदान करे। (वसुदा) धन देने वाली (वसूनि) धनों को (रासमाना) देती हुई, (सुमनस्यमाना) प्रसन्नमन हुई, (देवी) दिव्यगुणों वाली पृथिवी (नः) हमारा (दधातु) धारण-पोषण करें।
टिप्पणी
[मे, नः = प्रत्येक पृथिवीवासी यदि वसु आदि से सम्पन्न होगा तभी समग्र प्रजा प्रसन्नचित्त हो सकती है। कतिपय लोगों के सम्पत्तिशाली होने से, और अवशिष्ट प्रजाजनों के निर्धन होने से पृथिवी पर सौमनस्य नहीं हो सकता, ओर न पृथिवी माता सुप्रसन्नचित्त हो सकती है। पृथिवी यद्यपि जड़ है, अतः इस की प्रसन्नचित्तता असम्भव है। परन्तु यतः इस पृथिवी सूक्त में पृथिवी को माता कहा है (मन्त्र १२), अतः कविता में इस पर प्रसन्नचित्तता का आरोप किया है। जैसे सन्तानों के प्रसन्नचित्त होने पर उन की माता प्रसन्नचित्ता होती है, इसी प्रकार पृथिवीवासियों के प्रसन्नचित होने पर पृथिवी माता प्रसन्नचित्त होती हैं,–यह गौण वर्णन है। गुहा=गुफ़ारूप खानें, mines। रासमाना=रासति दानकर्मा (निघं० ३।२०)]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(गुहा) भीतरी गुहाओं में, छिपी खानों के भीतर (बहुधा) प्रायः बहुत प्रकार के (निधिम्) बहुमूल्य पदार्थों के खजाने को (बिभ्रती) धारण करती हुई (पृथिवी) पृथिवी (मे) मुझे (मणिं) मणि वैदूर्य, वैक्रान्त आदि और (हिरण्यम्) सुवर्ण आदि बहु मूल्य धातु रूप (वसु) धन को (ददातु) प्रदान करे। वह (वसुदा) धनों को देने वाली (देवी) देवी-पृथिवी (वसूनि) नाना प्रकार के धन ऐश्वर्यों को (रासमाना) प्रदान करती हुई (सुमनस्यमाना) शुभ चित्त होकर (नः) हमें (दधातु) पुष्ट करे।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘दधातु नः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(पृथिवी गुहा बहुधा निधि विभ्रती) पृथिवी अपनी गुहा में अपनी भीतरी स्थली में बहु प्रकार के निधि-कोष को धारण करती हुई (मे वसु मणि हिरणयं ददातु) मेरे लिये धन, रत्न, सुवर्ण देवे (वसुदा वसूनि रासमाना सुमनस्यमाना नः दधातु) धन देने वाली धनों को देती हुई सुन्दर मनस्यमाना-उदार भावना वाली सी होती हुई हमें अपने ऊपर धारण करें ॥४४॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Bearing wealth of many forms deep in the mines, I pray, may the Mother Earth give me wealth, jewels and gold. Generous Mother divine, noble at heart, giver of wealth, may bear and continue to give us wealth of all kinds.
Translation
Bearing treasure (and) good in many places hiddenly, let the earth give me jewel, gold; giver of good, betowing good things on us, let the divine one assign (them to us) with favouring mind.
Translation
May our spacious mother earth who store in her interior treasure in various ways, bestow on me riches, precious stones and gold. Giver of munificence, may she who possesses noble qualities distributing various kinds of wealth support us with a kind heart.
Translation
May Earth, who bears her treasure stored up in many a place, grant me gold, gems and riches. May our Motherland the giver of opulence and the bestower of wealth nourish ms with love and favour.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४४−(निधिम्) धनसञ्चयम् (बिभ्रती) धरन्ती (बहुधा) अनेकप्रकारेण (गुहा) गुहायाम्। मर्ते (वसु) धनम् (मणिम्) (हिरण्यम्) सुवर्णम् (पृथिवी) (ददातु) (मे) मह्यम् (वसूनि) धनानि (नः) अस्मभ्यम् (वसुदाः) धनदात्री (रासमाना) रासतिर्दानकर्मा−निघ० ३।२०। ददती (देवी) दिव्यगुणा (दधातु) पोषतु (सुमनस्यमाना) अ० १।३५।१। शोभनमनस्का सती ॥
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