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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रउषाश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अपो॒षा अन॑सः सर॒त्संपि॑ष्टा॒दह॑ बि॒भ्युषी॑। नि यत्सीं॑ शि॒श्नथ॒द्वृषा॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । उ॒षाः । अन॑सः । सर॑त् । सम्ऽपि॑ष्टात् । अह॑ । बि॒भ्युषी॑ । नि । यत् । सी॒म् । शि॒श्नथ॑त् । वृषा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपोषा अनसः सरत्संपिष्टादह बिभ्युषी। नि यत्सीं शिश्नथद्वृषा ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप। उषाः। अनसः। सरत्। सम्ऽपिष्टात्। अह। बिभ्युषी। नि। यत्। सीम्। शिश्नथत्। वृषा ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यो वृषा यथा बिभ्युषी उषा अनसोऽग्रमिव सम्पिष्टादहाप सरद् यद् या सीं नि शिश्नथत् तथाचरेत् स सूर्य्य इव तेजस्वी भवेत् ॥१०॥

    पदार्थः

    (अप) (उषाः) प्रातर्वेलेव (अनसः) शकटस्याग्रम् (सरत्) सरति (सम्पिष्टात्) सञ्चूर्णितात् (अह) (बिभ्युषी) भयप्रदा (नि) (यत्) या (सीम्) सर्वतः (शिश्नथत्) शिथिलीकरोति (वृषा) बलिष्ठो राजा ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रथस्याग्रं पुरःसरं भवति तथैव सूर्य्यस्याग्र उषा गच्छति यथा सूर्य्यस्तमो हन्ति तथा राजाऽन्यायाऽऽचारं हन्यात् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (वृषा) बलिष्ठ राजा जैसे (बिभ्युषी) भय देनेवाली (उषाः) प्रातर्वेला (अनसः) गाड़ी के अग्रभाग के सदृश आगे चलनेवाली (सम्पिष्टात्) चूर्णित हुए (अह) ही अन्धकार से (अप, सरत्) आगे चलती है (यत्) जो (सीम्) सब प्रकार (नि, शिश्नथत्) शिथिल करती है, वैसा आचरण करे, वह सूर्य्य के सदृश तेजस्वी होवे ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रथ का अग्रभाग आगे होता है, वैसे ही सूर्य्य के आगे प्रातःकाल चलता है और जैसे सूर्य्य अन्धकार का नाश करता है, वैसे राजा अन्याय के आचार का नाश करे ॥१०॥

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    विषय

    रथ का संपेषण

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से (वृषा) = शक्ति का अपने अन्दर सेचन करनेवाला इन्द्र (निशिश्नथद्) = उषा के शकट को हिंसित करता है, अर्थात् शीघ्रता से पूर्ण जागरित स्थिति में आने का यत्न करता है तो (अह) = निश्चय से (उषा) = यह वासनाओं से संतप्त करनेवाला कालक्षण (विभ्युषी) = मानो भयभीत हुए हुए (संपिष्टाद् अनस:) = पिसे हुए शकट से (अप असरत्) = दूर भाग जाता है। [२] अर्धचेतनावस्था को परे फेंककर जाग उठना ही ठीक है। इसी से हम वासनाओं से संतप्त होने से बच पाएँगे। इस प्रकार अर्ध चेतनावस्था को परे फेंकना ही उषा के रथ का संपेषण है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उषा के रथ का संपेषण करके हम पूर्ण चेतनावस्था में आने का प्रयत्न करें। यही वासनाओं से असंतप्त होने का मार्ग है।

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    विषय

    धनैश्वर्य का विजय ।

    भावार्थ

    जब (वृषा) सुखों का वर्षक, बलवान् सूर्य (सीम्) सब प्रकार से, सब ओर से (शिश्नथत्) व्याप लेता है, प्रकाश की किरणें फेंकता है, तब जिस प्रकार (संपिष्टात् अनसः बिभ्युषी अप सरत्) टूटते फूटते रथ से भयभीत वधू निकल भागे उसी प्रकार वह उषा भी (संपिष्टात्) खूब सञ्चूर्णित और सर्वतो व्याप्त (अनसः) जीवनप्रद सूर्य रूप रथ से ही (अप सरत्) निकल भागती है । उसी प्रकार (वृषा) शत्रुओं पर अनवरत वाणों, शस्त्रास्त्रों की वर्षा वाला और सेना और राष्ट्र का उत्तम प्रबन्ध करने हारा बलवान् राजा (यत्) जब (सीम्) सब ओर से (शिश्नथत्) पर सेना को निष्पीड़ित करके शिथिल, लाचार कर देता है तो वह (उषा) दाहकारिणी सेना (सम्पिष्टात् अनसः) अच्छी प्रकार चूर्णित शकर रथादि व्यूह से (विभ्युषी) भय करती हुई (अप सरत्) भाग जाती है । (२) अध्यात्म में—उषा चिति शक्ति, वृषा प्रभु, धर्ममेघ, ‘अनः’ देह । इति विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १–८, १२–२४ इन्द्रः । ९-११ इन्द्र उषाश्च देवते ॥ छन्द:- १, ३, ५, ९, ११, १२, १६, १८, १९, २३ निचृद्गायत्री । २, १०, ७, १३, १४, १५, १७, २१, २२ गायत्री । ४, ६ विराड् गायत्री ।२० पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २४ विराडनुष्टुप् ॥ चतुर्विंशत्पृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा रथाचा अग्रभाग पुढे असतो तसेच सूर्याच्या पुढे प्रातःकाल असतो व जसा सूर्य अंधकाराचा नाश करतो तसे राजाने अन्यायी आचरणाचा नाश करावा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty ruler of heavens, breaks the chariot of the dawn as she waxes, but when the chariot is broken, she withdraws from the broken chariot in fear and awe. (So do the forces of gate-crashing pride withdraw under the blazing power of the ruler.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of statecraft is further dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A powerful ruler is compared here to the dawn of the morning which eradicates the darkness completely with its emergence, prior to its arrival. The same way a ruler powerful like the sun weakens the wickeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is also a simile. As the front portion of a car (chariot) moves ahead of its rear body, similarly the sun and its light appears on the horizon prior to the departure of darkness, A ruler also similarly should dispossess the men of misconduct from the society.

    Foot Notes

    (उषा) प्रातर्वेलेव। = Like the dawn in the morning. (अनसः) शकटस्याग्रम । = The front portion of a car. (सम्पिष्टात्) संचूर्णितात् । = Well crushed. (बिभ्युषी) भयप्रदा । = Dreadful. (शिश्नथत् ) शिथिलीकरोति । = Disengages.

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