ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
उ॒त सिन्धुं॑ विबा॒ल्यं॑ वितस्था॒नामधि॒ क्षमि॑। परि॑ ष्ठा इन्द्र मा॒यया॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । सिन्धु॑म् । वि॒ऽबा॒ल्य॑म् । वि॒ऽत॒स्था॒नाम् । अधि॑ । क्षमि॑ । परि॑ । स्थाः । इ॒न्द्र॒ । मा॒यया॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत सिन्धुं विबाल्यं वितस्थानामधि क्षमि। परि ष्ठा इन्द्र मायया ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठउत। सिन्धुम्। विऽबाल्यम्। विऽतस्थानाम्। अधि। क्षमि। परि। स्थाः। इन्द्र। मायया ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मेघसंबन्धिनदीसंतरणविषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! भवान् मायया अधि क्षमि वितस्थानां नदीमुत विबाल्यं सिन्धुं परि ष्ठाः ॥१२॥
पदार्थः
(उत) अपि (सिन्धुम्) नदम् (विबाल्यम्) विगतं बाल्यं यस्य तम् (वितस्थानाम्) विशेषेण स्थिताम् (अधि) (क्षमि) पृथिव्याम् (परि) सर्वतः (स्थाः) तिष्ठति (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्य (मायया) प्रज्ञया ॥१२॥
भावार्थः
हे मनुष्याः ! समुद्रनदीनदतरणाय प्रज्ञया नौकादिकं निर्माय श्रीमन्तो भवन्तु ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मेघसंबन्धि नदीसंतरण विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त आप (मायया) बुद्धि से (अधि, क्षमि) पृथिवी के बीच (वितस्थानाम्) विशेष करके स्थित नदी (उत) और (विबाल्यम्) बालपन से रहित अर्थात् छोटे नहीं बड़े (सिन्धुम्) नद के (परि) सब ओर से (स्थाः) स्थित होते हैं ॥१२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! समुद्र, नदी, नद के पार होने के लिये बुद्धि से नौका आदि को रच के लक्ष्मीवान् होओ ॥१२॥
विषय
विबाल्य सिन्धु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप काम आदि शत्रुओं का संहार करते हैं, (उत) = और (विबाल्यम्) = बाल्यावस्था से ऊपर उठे हुए अथवा मूर्खता से शून्य (वितस्थानाम्) = [वितिष्ठमानां] विशेषरूप से स्थित (सिन्धुम्) = इस ज्ञाननदी को (अधिक्षमि) = इस पृथिवी रूप शरीर में (मायया) = प्रज्ञान द्वारा (परिष्ठा:) = सर्वतः स्थापित करते हैं। [२] हे प्रभो ! आप हमारी वासना को विनष्ट करते हैं और आपकी कृपा से हमारे जीवन में ज्ञान का प्रवाह प्रवाहित होने लगता है। यह ज्ञान- नदी ज्ञानजल से भरपूर होती है। हमारे इस शरीर में इस ज्ञान का विशिष्ट स्थान होता है। शरीररूप पृथिवी की यह विशिष्ट नदी होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो ! आपकी कृपा से मेरी ज्ञानन का प्रवाह भरपूर रूप से बहनेवाला हो ।
विषय
धनैश्वर्य का विजय ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (मायया) अपने बुद्धि बल से (अधि क्षमि) पृथ्वी पर (वितस्थानाम्) विविध प्रकारों से स्थिति प्राप्त करने वाली प्रजा को (विबाल्यं) विविध बल कार्य करने में समर्थ (सिन्धुं) वेग से युक्त महानद के तुल्य सैन्य समुद्र के (अधि परि स्थाः) ऊपर अध्यक्ष रूप से स्थित हो । और विविध देशों में जाने वाली नदी और बल से जाने वाले नदों पर भी वश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १–८, १२–२४ इन्द्रः । ९-११ इन्द्र उषाश्च देवते ॥ छन्द:- १, ३, ५, ९, ११, १२, १६, १८, १९, २३ निचृद्गायत्री । २, १०, ७, १३, १४, १५, १७, २१, २२ गायत्री । ४, ६ विराड् गायत्री ।२० पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २४ विराडनुष्टुप् ॥ चतुर्विंशत्पृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! समुद्र, नदी, नद पार करण्यासाठी बुद्धिपूर्वक नौका इत्यादी तयार करून श्रीमंत बना. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of the elements, with your inexhaustible force and power, you sustain the flow of full and overflowing turbulent rivers on the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of navigation related to the clouds (floods) is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are equipped with knowledge and prosperity and with your intelligence in planning, build great ships and navigational aids. That way you and your people are able to cross big rivers or oceans with them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! in order to cross the oceans and rivers apply your intelligence and techniques to build big ships and thus become prosperous.
Foot Notes
(सिन्धुम् ) नदम् = The powerful rivers. (विवाल्यम् ) विगतं बाल्यं यस्य तम् । = Not small. (वितस्थानाम् ) विशेषेण स्थिताम् । = Particularly situated. (क्षमि) पर्थिव्याम्। = On the earth.
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