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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यत्र॑ दे॒वाँ ऋ॑घाय॒तो विश्वाँ॒ अयु॑ध्य॒ एक॒ इत्। त्वमि॑न्द्र व॒नूँरह॑न् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । दे॒वान् । ऋ॒घा॒य॒तः । विश्वा॑न् । अयु॑ध्यः । एकः॑ । इत् । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । व॒नून् । अह॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र देवाँ ऋघायतो विश्वाँ अयुध्य एक इत्। त्वमिन्द्र वनूँरहन् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। देवान्। ऋघायतः। विश्वान्। अयुध्यः। एकः। इत्। त्वम्। इन्द्र। वनून्। अहन् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! एक इदेव त्वं यत्र विश्वान् देवानृघायतो वनूनहंस्तत्र शत्रुभिरयुध्यो भवेः ॥५॥

    पदार्थः

    (यत्र) (देवान्) विदुषः (ऋघायतः) बाधमानान् (विश्वान्) (अयुध्यः) योद्धुमनर्हः (एकः) (इत्) एव (त्वम्) (इन्द्र) (वनून्) अधर्म्मसेविनः (अहन्) हन्याः ॥५॥

    भावार्थः

    यदा यदा दुष्टाः श्रेष्ठान् बाधन्तां तदा तदा त्वं सर्वानधर्मिणो भृशं दण्डय ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) तेजस्वी राजन् (एकः) एक (इत्) ही (त्वम्) आप (यत्र) जहाँ (विश्वान्) सम्पूर्ण (देवान्) विद्वानों को (ऋघायतः) बाधते हुए (वनून्) अधर्म्म के सेवन करनेवालों का (अहन्) नाश करें, वहाँ शत्रुओं से (अयुध्यः) नहीं युद्ध करने योग्य अर्थात् शत्रुजन आप से युद्ध न कर सकें, ऐसे होवें ॥५॥

    भावार्थ

    जब-जब दुष्टजन श्रेष्ठों को बाधा देवें, तब-तब आप सम्पूर्ण अधर्म्मियों को अत्यन्त दण्ड दीजिये ॥५॥

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    विषय

    हिंसकों की हिंसा

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो ! (यत्र) = जब (देवान्) = दिव्य गुणों को (ऋघायतः) = हिंसित करनेवाले (विश्वान्) = सब आसुरभावों को (एकः इत्) = आप अकेले ही (अयुध्यः) = युद्ध द्वारा परास्त करते हैं। बिना आपके इनका पराभव सम्भव नहीं होता । [२] हे इन्द्र ! (त्वम्) = आप ही (वनून्) = इन हिंसक शत्रुओं को (अहन्) = विनष्ट करते हैं। इनका विनाश होने पर ही दिव्यगुणों का विकास होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना से हिंसक भावों का विनाश होकर दिव्यगुणों का विकास होता है।

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    विषय

    उषा, सेना, और नवबधू का समान वर्णन ।

    भावार्थ

    और (यत्र) जिस संग्राम में (ऋघायतः) हिंसा करने वाले (विश्वान् देवान्) समस्त विजिगीषु वीर पुरुषों को (एकः इत्) तू अकेला ही (अयुध्यः) लड़, लड़ा लेने में समर्थ है वह (त्वम्) तू ही है (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! (वनून्) अधार्मिक शत्रुओं को (अहन्) विनाश कर । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १–८, १२–२४ इन्द्रः । ९-११ इन्द्र उषाश्च देवते ॥ छन्द:- १, ३, ५, ९, ११, १२, १६, १८, १९, २३ निचृद्गायत्री । २, १०, ७, १३, १४, १५, १७, २१, २२ गायत्री । ४, ६ विराड् गायत्री ।२० पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २४ विराडनुष्टुप् ॥ चतुर्विंशत्पृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    (हे राजा) जेव्हा जेव्हा दुष्ट लोक श्रेष्ठांना त्रास देतात तेव्हा तेव्हा तू संपूर्ण अधार्मिक लोकांना दंड दे ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Where in the battle against the evil and the violent oppressing and fighting against all the nobilities of the world you take up arms, you destroy the wicked forces all alone.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of rulers' duties is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (king)! when you slay single- handed the wicked persons who give trouble to all enlightened men, you become unassailable by the enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whenever wicked persons give trouble to good men, the Indra should punish severely all the un-righteous persons.

    Foot Notes

    (ऋघायतः) बाधमानान् । = Giving troubles.(वनून् ) अधर्मसेविन:।-Un-righteous persons.

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