ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ए॒तद्घेदु॒त वी॒र्य१॒॑मिन्द्र॑ च॒कर्थ॒ पौंस्य॑म्। स्त्रियं॒ यद्दु॑र्हणा॒युवं॒ वधी॑र्दुहि॒तरं॑ दि॒वः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । घ॒ । इत् । उ॒त । वी॒र्य॑म् । इन्द्र॑ । च॒कर्थ॑ । पौंस्य॑म् । स्त्रिय॑म् । यत् । दुः॒ऽह॒ना॒युव॑म् । वधीः॑ । दु॒हि॒तर॑म् । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्घेदुत वीर्य१मिन्द्र चकर्थ पौंस्यम्। स्त्रियं यद्दुर्हणायुवं वधीर्दुहितरं दिवः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठएतत्। घ। इत्। उत। वीर्यम्। इन्द्र। चकर्थ। पौंस्यम्। स्त्रियम्। यत्। दुःऽहनायुवम्। वधीः। दुहितरम्। दिवः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यथा सूर्य्यो दुर्हणायुवं दिवो दुहितरं हन्ति तथैतत् पौंस्यं वीर्य्यं चकर्थ त्वं शत्रून् घ वधीरिद्यत् स्त्रियमुतापि भृत्यं पालयेः ॥८॥
पदार्थः
(एतत्) कर्म्म (घ) एव (इत्) (उत) (वीर्य्यम्) पराक्रमम् (इन्द्र) दोषविनाशक (चकर्थ) करोषि (पौंस्यम्) पुंभ्यो हितम् (स्त्रियम्) (यत्) (दुर्हणायुवम्) दुःखेन हन्तुं योग्यं कामयते ताम् (वधीः) हंसि (दुहितरम्) दुहितरमिव वर्त्तमानामुषसम् (दिवः) प्रकाशस्य ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो रात्रिं हत्वा दिनं जनयित्वा प्राणिनः सुखयति तथैव दुष्टाचारान् हत्वा श्रेष्ठान्त्सम्पाल्य विद्यां जनयित्वा सर्वाः प्रजाः सुखयेत् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) दोषों के नाश करनेवाले जैसे सूर्य्य (दुर्हणायुवम्) दुःख से नाश करने योग्य की कामना करनेवाले (दिवः) प्रकाश की (दुहितरम्) कन्या के सदृश वर्त्तमान प्रातर्वेला का नाश करता है, वैसे (एतत्) इस कर्म्म और (पौंस्यम्) पुरुषों के लिये हित (वीर्य्यम्) पराक्रम को (चकर्थ) करते हो और आप (घ) शत्रुओं ही का (वधीः, इत्) नाश करते ही हो (यत्) जो (स्त्रियम्) स्त्री (उत) और भृत्य को भी पालिये ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य रात्रि का नाश और दिन की उत्पत्ति करके प्राणियों को सुख देता है, वैसे ही दुष्ट आचरणों का नाश और श्रेष्ठों का पालन कर और विद्या को उत्पन्न करके सम्पूर्ण प्रजाओं को सुख देवें ॥८॥
विषय
उषा का वध
पदार्थ
[१] जीवन में रात्रि का समय स्वप्नावस्था में बीतता है-अचेतन-सी अवस्था में। इसलिए उस समय पाप की सम्भवाना नहीं रहती। दिन में जागरित हो जाने से पुरुष पापों से अपना बचाव कर लेता है। उषाकाल ऐसा है, जो कि न स्वप्न का और नां ही पूर्ण जागरण का है। इस समय ही पापों का होने सम्भव है। उन पापों से बचने का उपाय यही है कि हम पूर्ण जागरण की स्थिति में होने का प्रयत्न करें। इसी को काव्यमय भाषा में इस प्रकार कहेंगे कि उषा के रथ का विदारण करके आगे बढ़ें। उषा तो मानो 'उष दाहे' हमें 'काम' आदि वासनाओं से संतप्त करती है। इसका वध आवश्यक है। [२] सो मन्त्र में कहते हैं कि, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (उत) = और (एतत्) = यह (घा इत्) = निश्चय से तू (पौंस्यम्) = 'पुंसः योग्यम्' [पू+मसुन्] जीवन को पवित्र करनेवाले (वीर्यम्) = शक्तिशाली कर्म को चकर्थ करता है (यत्) = कि (दुर्हणायुवम्) = [दुष्टं हननमिच्छन्तीम् ] हमारे भयंकर नाश को चाहती हुई इस (दिवः दुहितरम्) = [दिव्- स्वप्न] स्वप्न की दुहिता को स्वप्न की पूरिका को स्वप्न की समाप्ति पर आनेवाली (स्त्रियम्) = हमारे संघात की कारणभूत [स्त्यै संघाते] इस उषा को (वधा:) = तुम नष्ट करते हो। उषा को नष्ट करके जीवन में ज्ञान सूर्य का उदय करके पापवृत्ति से ऊपर उठते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वप्न की समाप्ति पर उषा की अर्धजागरित स्थिति को शीघ्र समाप्त करके, जागरित स्थिति में आने का प्रयत्न करें, ताकि पापवासनाओं से आक्रान्त न हों ।
विषय
धनैश्वर्य का विजय ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) सूर्यवत् तेजस्विन् ! (एतत् घ इत् उत) और यह भी तू ही (पौंस्यम्) पुरुषोचित (वीर्यम्) बल वीर्य पराक्रम (चकर्थ) कर (यत्) कि जिस प्रकार सूर्य (दिवः दुहितरं) प्रकाश से उत्पन्न उषा को प्राप्त होता वा उसका नाश करता है उसी प्रकार तू भी (दुर्हणायुवं) बड़ी कठिनता से नाश करने योग्य प्रबल शत्रुनायक की कामना करने वाली (स्त्रियं) संघात बना कर आक्रमण करने वाली शत्रु सेना को (वधीः) विनाश कर और (दिवः) शत्रु विजिगीषा को (दुहितरं) पूर्ण करने वाली (दुर्हणायुवं) कठिनता से वध योग्य, प्रबल नायक को चाहने वाली (स्त्रियं) प्रबल संघात वाली स्वसेना को (दिवः दुहितरं) कामना को पूर्ण करने वाली स्त्री के समान ही प्रिय जानकर पति के तुल्य (वधीः) तू प्राप्त कर ।
टिप्पणी
हन हिंसागत्योः । अत्र श्लेषमुखेना-र्थद्वयमप्युपयुज्यते ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १–८, १२–२४ इन्द्रः । ९-११ इन्द्र उषाश्च देवते ॥ छन्द:- १, ३, ५, ९, ११, १२, १६, १८, १९, २३ निचृद्गायत्री । २, १०, ७, १३, १४, १५, १७, २१, २२ गायत्री । ४, ६ विराड् गायत्री ।२० पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २४ विराडनुष्टुप् ॥ चतुर्विंशत्पृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य रात्रीचा नाश व दिवसाची उत्पत्ती करून प्राण्यांना सुख देतो, तसेच (राजाने) दुष्ट आचरणाचा नाश व श्रेष्ठांचे पालन करून विद्या उत्पन्न करून संपूर्ण प्रजेला सुखी करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This truly is the manly valour you display in action. In addition, this too is your wonder that you dispel and ward off the rays of the malevolent star which, though, is the daughter of heaven like the dawn, the light of which, too, you overcome.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Statecraft is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you eradicate the vices and the same way the sun thrashes the darkness. In order to remove unhappiness, the sun brings in the light after darkness disappears like a girl. The Indra also likewise extends its velour to activate the persons and smashes the enemies. He also protects the women and attendants.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun terminates a night with its light and brings forward a day in order to make people hoppy, the same way the State officers should smash the rogues and their conduct and should give protection to the noble persons. Thus creating more avenues of knowledge they make all the people happy.
Foot Notes
(वीर्य्यम् ) पराक्रमम् । = Power or strength. (इन्द्र) दोषविनाशक । = Remover or eradicator of vices. (पौंस्यम् ) पुभ्योहितम् । = Useful vices for the man. (दुर्हणायुवम्) दुःखेन हन्तुं योग्यं कामयते ताम् । = One who is fond of removing unhappiness.
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