ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
यत्रो॒त मर्त्या॑य॒ कमरि॑णा इन्द्र॒ सूर्य॑म्। प्रावः॒ शची॑भि॒रेत॑शम् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । उ॒त । मर्त्या॑य । कम् । अरि॑णाः । इ॒न्द्र॒ । सूर्य॑म् । प्र । आ॒वः॒ । शची॑भिः । एत॑शम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रोत मर्त्याय कमरिणा इन्द्र सूर्यम्। प्रावः शचीभिरेतशम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। उत। मर्त्याय। कम्। अरिणाः। इन्द्र। सूर्यम्। प्र। आवः। शचीभिः। एतशम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं सूर्य्यं वायुरिव शचीभिरेतशं प्रावः। यत्र मर्त्याय कमरिणास्तत्रोत दुष्टान् दुःखं दद्याः ॥६॥
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन् राज्ये (उत) अपि (मर्त्याय) मनुष्याय (कम्) सुखम् (अरिणाः) प्रदद्याः (इन्द्र) सुखप्रदातः (सूर्य्यम्) सवितारं वायुरिव (प्र) (आवः) रक्षेः (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्म्मभिर्वा (एतशम्) प्राप्तविद्यमश्ववद् बलिष्ठम् ॥६॥
भावार्थः
यत्र राजा श्रेष्ठान्त्सत्कृत्य दुष्टान् दण्डयित्वा विद्याविनयौ वर्द्धयति तत्र सर्वाः प्रजाः स्वस्था भवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुख के देनेवाले आप (सूर्य्यम्) सूर्य्य को वायु के सदृश (शचीभिः) बुद्धियों वा कर्म्मों से (एतशम्) विद्या को प्राप्त घोड़े के सदृश बलवान् की (प्र, आवः,) रक्षा करें (यत्र) जिस राज्य में (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (कम्) सुख (अरिणाः) देवें वहाँ (उत) भी दुष्टों को दुःख देवें ॥६॥
भावार्थ
जहाँ राजा श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों को दण्ड देकर विद्या और विनय को बढ़ाता है, वहाँ सम्पूर्ण प्रजा स्वस्थ होती है ॥६॥
विषय
एतश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु विनाशक प्रभो ! (उत यत्र) = और जब (मर्त्याय) = वासनाओं से निरन्तर आक्रान्त होनेवाले इस पुरुष के लिये आप के (सूर्यम्) = सुखप्रद सूर्य को (अरिणा:) = [रिणाति give grant] देते हैं, अर्थात् जब आप सब अज्ञानान्धकार को विनष्ट करने के लिए इसमें 'सहस्रार चक्र' का विकास करते हैं, तो उस समय (शचीभिः) = शक्तियों व प्रज्ञानों के साथ (एतशम्) = [Shining] इस दीप्त ज्ञानवाले को (प्राव:) = सुरक्षित करते हैं । [२] सहस्रार चक्र के उद्बोधन से पूर्व काम-क्रोध के आक्रमण की आशंका बनी ही रहती है। इस चक्र का उद्बोधन होने पर इन शत्रुओं का दहन हो जाता है और मनुष्य 'मर्त्य' न रहकर 'अमर' हो जाता है। इसे प्रभुकृपा से शक्ति व प्रज्ञान प्राप्त होता है। यह दीप्त जीवनवाला 'एतश' [Shining] इस यथार्थ नामवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से सहस्रार चक्र का उद्बोधन होने पर शक्ति व प्रज्ञान की प्राप्ति होती है।
विषय
शत्रुसेना का दमन ।
भावार्थ
(यत्र) जिस संग्राम में हे (इन्द्र) शत्रुनाशक ! तू (मर्त्याय) प्रजा पुरुषों और शत्रु-मारक सैन्य जन के हितार्थ (सूर्यम्) सूर्य के समान तेजस्वी राजचक्र को भी (अरिणाः) सञ्चालित करे वहां (शचीभिः) सेनाओं और आज्ञा वा शासनवाणियों द्वारा (एतशम्) अपने अश्व,सैन्य समृद्ध राष्ट्र को (प्रावः) अच्छी प्रकार रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १–८, १२–२४ इन्द्रः । ९-११ इन्द्र उषाश्च देवते ॥ छन्द:- १, ३, ५, ९, ११, १२, १६, १८, १९, २३ निचृद्गायत्री । २, १०, ७, १३, १४, १५, १७, २१, २२ गायत्री । ४, ६ विराड् गायत्री ।२० पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २४ विराडनुष्टुप् ॥ चतुर्विंशत्पृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा राजा श्रेष्ठांचा सत्कार व दुष्टांना दंड देऊन विद्या व विनयाची वाढ करतो तेव्हा संपूर्ण प्रजा तृप्त असते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Where you set in motion the streams and breezes of comfort and joy for humanity, there also you move and protect the sun orbiting at terrible speed with your actions of omnipotence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The functions of the ruler are compared to the sun.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! let you provide us happiness with your guidance and actions like the sun and air and protect us like a trained horse. In your kingdom, where you give happiness, to a common man, you should not spare the wickeds from punishment.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Where a ruler honors and respects the noble persons and punishes the wickeds and extends the facilities for education, there all his subjects get healthy and happy.
Foot Notes
(अरिणः) प्रदत्वाः | = Impart, give (सूर्य्यम् ) सवितारं वायुरिव । = To the sun, who creates the world. (एतशम्) प्राप्तविद्यमश्ववद्वलिष्ठम् । = To the one who is strong like a horse and has acquired knowledge.
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