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यजुर्वेद अध्याय - 16

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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 54
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - विराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    असं॑ख्याता स॒हस्रा॑णि॒ ये रु॒द्राऽअधि॒ भूम्या॑म्। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असं॑ख्या॒तेत्यस॑म्ऽख्याता। स॒हस्रा॑णि। ये। रु॒द्राः। अधि॑। भूम्या॑म्। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असङ्ख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम् । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असंख्यातेत्यसम्ऽख्याता। सहस्राणि। ये। रुद्राः। अधि। भूम्याम्। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 54
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कथमुपकारो ग्राह्य इत्युच्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा वयं ये असंख्याता सहस्राणि रुद्रा भूम्यामधि सन्ति, तेषां सकाशात् सहस्रयोजने धन्वान्यव तन्मसि तथा यूयमपि तनुत॥५४॥

    पदार्थः

    (असंख्याता) संख्यारहितानि (सहस्राणि) (ये) (रुद्राः) सजीवाऽजीवाः प्राणादयो वायवः (अधि) उपरिभावे (भूम्याम्) पृथिव्याम् (तेषाम्) (सहस्रयोजने) सहस्राण्यसंख्यानि चतुःक्रोशपरिमितानि यस्मिन् देशे तस्मिन् (अव) अर्वागर्थे (धन्वानि) धनूंषि (तन्मसि) विस्तारयेम॥५४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः प्रतिशरीरं विभक्ता भूमिसम्बन्धिनो जीवा वायवश्च वेद्यास्तैरुपकारो ग्राह्यस्तेषां कर्त्तव्यश्च॥५४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य लोग कैसे उपकार ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (ये) जो (असंख्याता) संख्यारहित (सहस्राणि) हजारों (रुद्राः) जीवों के सम्बन्धी वा पृथक् प्राणादि वायु (भूम्याम्) पृथिवी (अधि) पर हैं (तेषाम्) उनके सम्बन्ध से (सहस्रयोजने) असंख्य चार कोश के योजनों वाले देश में (धन्वानि) धनुषों का (अव, तन्मसि) विस्तार करें, वैसे तुम भी विस्तार करो॥५४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि प्रतिशरीर में विभाग को प्राप्त हुए पृथिवी के सम्बन्धी असंख्य जीवों और वायुओं को जानें, उनसे उपकार लें और उन के कर्त्तव्य को भी ग्रहण करें॥५४॥

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    विषय

    नाना रुद्रों अधिकारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( भूभ्याम् अधि ) भूमि पर अधिष्ठाता रूप से या शासक रूप से ( ये ) जो ( असंख्याताः सहस्राणि ) असख्य हजारों ( रुद्राः ) प्राणियों को रुलाने वाले पदार्थ और प्राणी हैं। ( तेषाम् ) उनके (धन्वानि ) धनुषों को हम ( सहस्त्रयोजने ) हजारों कोसों तक ( अव तन्मसि ) विस्तृते करें या शान्त करे ।

    टिप्पणी

    सतोवतान । सज्ञाः दश मन्त्राः । सर्वा० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विराड् आर्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    अधि भूम्याम्

    पदार्थ

    १. राष्ट्र में राजपुरुषों की नियुक्ति की कोई निश्चित संख्या नहीं है। राष्ट्र छोटा होगा तो राजपुरुषों की संख्या भी थोड़ी होगी। राष्ट्र के बड़े होने पर यह संख्या भी बड़ी हो जाती है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (ये रुद्राः) = [रुत् दुःखं द्रावयन्ति] जो प्रजा के कष्टों को दूर भगाने में नियुक्त राजपुरुष हैं, [क] (असंख्याता) = जिनकी कोई संख्या निश्चित नहीं है जो [ख] (सहस्त्राणि) = हज़ारों ही हैं तथा [ स हस्] प्रसन्न मनोवृत्तिवाले हैं, सड़ियल मिज़ाज़ के नहीं है, [ग] (अधि भूम्याम्) = [भूमि पृथिवी शरीरम् ] शरीर पर पूर्ण आधिपत्य रखते हैं, जिन्होंने शारीरिक उन्नति अधिक की है । २. (तेषाम्) = उन रुद्रों के (धन्वानि) = अस्त्रों को सहस्रयोजने हज़ारों योजनों की दूरी तक (अवतन्मसि) = सुदूर विस्तृत करते हैं । ३. अभिप्राय यह कि राष्ट्र-रक्षा में विनियुक्त राजपुरुषों को शरीर के दृष्टिकोण से पूर्ण होना चाहिए तथा वे शस्त्रास्त्र की विद्या में निपुण बनकर दूर-दूर तक अस्त्रों का प्रयोग करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजपुरुष १. स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से शरीर के पूर्ण प्रभु हों, तथा २. अस्त्र - चालन - विद्या में निपुण हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी असंख्य जीव व वायू यांना जाणावे. त्यांचा उपयोग करून घ्यावा व त्यांच्यासंबंधीच्या कर्तव्याचे भानही ठेवावे.

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    विषय

    मनुष्यांनी (निसर्गाकडून) कशाप्रकारे लाभ घ्यावेत, पुढील मंत्रात याविषयी :

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सैनिक प्रजाजनांना म्हणत आहेत) लोकहो, ज्याप्रमाणे आम्ही (सैनिक) (ये) ज्या (असंख्याता) अगणित (सहग्राणि) हजारो (रुद्रा:) जीवांसाठी (त्यांच्या रक्षणासाठी) अथवा प्राण (उत्साह, वीरत्व आदी भाव) जागृत करण्यासाठी या (भूम्याम्) पृथ्वी (आधि) वर आहोत, आणि (तेषाम्) त्या जीवांसाठी (सहस्रयोजने) असंख्य चार कोस योजना (आठ मैल) एवढी लांबी-रुंदी असणार्‍या (छोट्या छोट्या राज्यामध्ये) आम्ही सैनिक (धन्वनि) धनुष्य (आमचे अस्त्र-शस्त्रादींचा विस्तार करतो, (त्या राज्यांचे रक्षण करतो) तद्वत तुम्ही प्रजाजनांनी देखील करावे ॥54॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांना उचित आहे की या पृथ्वीवर वेगवेगळ्या प्रकारचे शरीर धारण करणारे जे विविध असंख्य प्राणी आहेत, त्यांना वायूंना जाणावे (त्यांचे गुण व प्रभाव जाणून त्यांपासून लाभ घ्यावेत) आणि त्या पदार्थांविषयी आपले कर्तव्य काय आहेत, हे ही समजून घ्यावे. ॥54॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Innumerable, thousands are the creatures on the face of the earth. In their connection we should send weapons to places a thousand leagues away.

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    Meaning

    Thousands are the Rudras (life-sustaining powers) and countless are the Rudras (pranis, living forms) which are on the earth. We use their powers and properties in a thousand ways and, (in cyclic order) extend their powers and properties a thousand fold over vast areas of space.

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    Translation

    There are innumerable, thousands of terrible punishers on this earth. May we get their bows unbent even a thousands leagues away. (1)

    Notes

    Dhanvāni ava tanmasi, धनूंषि अवतारयाम:, अपज्यानि कृत्वा अस्मत्तो दूरं द्क्षिपाम:, may we get their bows unbent.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈঃ কথমুপকারো গ্রাহ্য ইত্যুচ্যতে ॥
    মনুষ্য লোকেরা কীভাবে উপকার গ্রহণ করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমরা (য়ে) যাহারা (অসংখ্যাতা) সংখ্যারহিত (সহস্রাণি) সহস্র সহস্র (রুদ্রাঃ) জীবদের সম্পর্কীয় বা পৃথক প্রাণাদি বায়ু (ভূম্যাম্) পৃথিবীর (অধি) উপরে আছে (তেষাম্) তাহাদের সম্বন্ধ দ্বারা (সহস্রয়োজনে) অসংখ্য চারি ক্রোশের যোজন যুক্ত দেশে (ধন্বানি) ধনুসমূহের (অবতস্মসি) বিস্তার করি, সেইভাবে তুমিও বিস্তার কর ॥ ৫৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, প্রতি শরীরে বিভাগ-প্রাপ্ত পৃথিবী সম্বন্ধী অসংখ্য জীব ও বায়ুকে জানিবে, তাহাদের হইতে উপকার লইবে এবং তাহাদের কর্ত্তব্য কেও গ্রহণ করিবে ॥ ৫৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অসং॑খ্যাতা স॒হস্রা॑ণি॒ য়ে রু॒দ্রাऽঅধি॒ ভূম্যা॑ম্ ।
    তেষা॑ᳬं সহস্রয়োজ॒নেऽব॒ ধন্বা॑নি তন্মসি ॥ ৫৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অসংখ্যাতেত্যস্য পরমেষ্ঠী প্রজাপতির্বা দেবা ঋষয়ঃ । রুদ্রা দেবতাঃ ।
    বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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