Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 16

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    4

    अ॒सौ योऽव॒सर्प॑ति॒ नील॑ग्रीवो॒ विलो॑हितः। उ॒तैनं॑ गो॒पाऽअ॑दृश्र॒न्नदृ॑श्रन्नुदहा॒र्य्यः स दृ॒ष्टो मृ॑डयाति नः॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ। यः। अ॒व॒सर्प्प॒तीत्य॑व॒ऽसर्प्प॒ति। नील॑ग्रीव॒ इति॒ नील॑ऽग्रीवः। विलो॑हित॒ इति॒ विऽलो॑हितः। उ॒त। ए॒न॒म्। गो॒पाः। अ॒दृ॒श्र॒न्। अदृ॑श्रन्। उ॒द॒हा॒र्य्य᳕ इत्यु॑दऽहा॒र्य्यः᳕। सः। दृ॒ष्टः। मृ॒ड॒या॒ति॒। नः॒ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ योवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः । उतैनङ्गोपाऽअदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्तो मृडयाति नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असौ। यः। अवसर्प्पतीत्यवऽसर्प्पति। नीलग्रीव इति नीलऽग्रीवः। विलोहित इति विऽलोहितः। उत। एनम्। गोपाः। अदृश्रन्। अदृश्रन्। उदहार्य्य इत्युदऽहार्य्यः। सः। दृष्टः। मृडयाति। नः॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    योऽसौ नीलग्रीवो विलोहितो रुद्रः सेनेशोऽवसर्पति यमेनं गोपा अदृश्रन्नुताप्युदहार्य्योऽदृश्रन् स दृष्टः सन् नोऽस्मान् मृडयाति॥७॥

    पदार्थः

    (असौ) (यः) (अवसर्पति) दुष्टेभ्यो विरुद्धं गच्छति (नीलग्रीवः) नीलमणियुक्ता ग्रीवा यस्य सः (विलोहितः) विविधैः शुभगुणकर्मस्वभावै रोहितो वृद्धः (उत) (एनम्) (गोपाः) रक्षका भृत्याः (अदृश्रन्) समीक्षेरन् (अदृश्रन्) पश्येयुः (उदहार्य्यः) या उदकं हरन्ति ताः (सः) (दृष्टः) समीक्षितः (मृडयाति) सुखयतु (नः) अस्मान् सज्जनान्॥७॥

    भावार्थः

    यो दुष्टानां विरोधी श्रेष्ठप्रियो दर्शनीयः सेनापतिः सर्वाः सेना रञ्जयेत्, स शत्रून् विजेतुं शक्नुयात्॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यः) जो (असौ) वह (नीलग्रीवः) नीलमणियों की माला पहिने (विलोहितः) विविध प्रकार के शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त श्रेष्ठ (रुद्रः) शत्रुओं का हिंसक सेनापति (अवसर्पति) दुष्टों से विरुद्ध चलता है। जिस (एनम्) इसको (गोपाः) रक्षक भृत्य (अदृश्रन्) देखें (उत) और (उदहार्य्यः) जल लाने वाली कहारी स्त्रियां (अदृश्रन्) देखें (सः) वह सेनापति (दृष्टः) देखा हुआ (नः) हम सब धार्मिकों को (मृडयाति) सुखी करे॥७॥

    भावार्थ

    जो दुष्टों का विरोधी श्रेष्ठों का प्रिय दर्शनीय सेनापति सब सेनाओं को प्रसन्न करे, वह शत्रुओं को जीत सके॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सेनापति का स्वरूप । पक्षान्तर में आत्मा और ईश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( असौ ) वह ( नीलग्रीवः) गले में नीलमणि बाँधे और ( विलोहितः ) विष रूप से लाल पोशाक पहने अथवा विविधा गुणों और अधिकारों से उच्च पद को प्राप्त कर ( अवसर्पति ) निरन्तर आगे बढ़ा चला जाता है ( एन ) उसको तो ( गोपाः ) गौवों के पालक गोपाल और ( उदहार्यः ) जल लाने वाली कहारियों तक भी ( अदृश्रन् ) देख लेती हैं और पहचानती हैं । सः ) वे ( दृष्टः ) आखों से देखा जाकर ( नः मृडयाति ) हम प्रजाजनों को सुखी करें । ( ६,७ ) - अध्यात्म में समाधि के अवसर के पूर्व ताम्र, अरुण, बभ्रु, नील, व रक्त आदि वर्णों का साक्षात् होता है। उस आत्मा के ही आधार पर ( रुदा ) रोदन शील सहस्रों प्राणि अश्रित हैं। हम उनका अनादर न करें। क्योंकि उनमें वही चेतनांश हैं जो हम में हैं । उसी अत्मा को नीलमणि के समान, स्वच्छ कान्तिमान् अथवा लालमणि के समान विशुद्ध रोहित से( गोपाः )जो इन्द्रिय-विजयी अभ्यासी जन और ( उदहार्यः) ब्रह्ममृत् रस को स्वादन करनेवाली चित्त भूमियें साक्षात् करती हैं वह हमें सुखी करें। ईश्वर-पक्ष में वह पापियों को पीड़ित करने से 'ताम्र', शरण देने से 'ग्रहण', पालन पोषण करने से 'बभ्रु, सुखमय रूप से व्यापक होने से 'सुमङ्गल' है । समस्त ( रुदाः) बढ़ी शक्तियां, उसी पर आश्रित हैं । हम उनका अनादर न करें। वह प्रलयकाल में या भूतकाल में जगत् को लीन करने वाला होने से 'नीलग्रीव' है, भविष्य में विविध पदार्थों का निरन्तर उत्पादक होने से 'विलोहित' है । उसको सयंमी जन और ब्रह्मरसपायिनी ऋतंभरा आदि चित्त वृत्तियां साक्षात् करती हैं। वह ईश्वर हमें सुखी करें । नीलग्रीवाः = नीलास्याः - यथा चूलिकोपनिषदि नीलास्याः ब्रह्म शायिने । अत्र दीपिका - लीनमास्यम् मुखं प्रवृत्ति द्वारं रांगादि येषां तथोक्ता । तत्र नलयो वर्णविपर्ययश्छान्दसः यस्मिन् सर्वमिदं प्रोतं ब्रह्म स्थावरजंगमम् । तस्मिन्नेव लयं यान्ति बुदबुदाः सागरे यथा ॥ १७ ॥ चू० ॥आ० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विराड् आर्षी पंक्ति: । पञ्चमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नीलग्रीवो विलोहित

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के राजा का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि (असौ) = वह (यः) = जो सबकी शिकायतों को दूर करके उन्हें सुखी करता है। (अवसर्पति) = अपने उच्च सिंहासन से नीचे [अव] आता है, आसन पर ही नहीं जमा बैठा रहता, अपितु [अव= away ] राष्ट्र में नियत किये हुए अध्यक्षों के कार्यों को देखने के लिए दूर-दूर तक गति करनेवाला होता है। इसके इस निरीक्षण कार्य के कारण ही अध्यक्ष प्रमत्त व रिश्वत लेनेवाले नहीं होते। २. (नीलग्रीवः = कल्माषग्रीवः) = विविध विद्याओं से सुभूषित कण्ठवाला यह राजा है। 'शुद्धकण्ठस्वराय' [द० १६।८] बड़े शुद्ध कण्ठ स्वर से यह युक्त है। इसकी वाणी स्पष्ट व मधुर है। यह अपने शासनों को बड़ी स्पष्टता से देता है । ३. (विलोहितः) = [विविधैः शुद्धगुणकर्मस्वभावै रोहितो वृद्धः - द०] विविध शुद्ध गुण-कर्म व स्वभावों से यह खूब बढ़ा हुआ व उन्नत है। अथवा [विशिष्टं लोहितं यस्य] विशिष्ट रुधिरवाला है। शुद्ध क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुआ है। ४. ऐसा होता हुआ भी यह प्रजाओं के लिए अनभिगम्य नहीं और तो और (एनं गोपाः उत) = इसको तो ग्वाले भी (अदृश्रन्) = देख पाते हैं- (उदहार्य:) = पानी ढोनेवाली कहारिन की भी (अदृश्रन्) = इस तक पहुँच हो सकती हैं। वे भी अपनी शिकायत को इस तक पहुँचाने के लिए इससे मिल सकती हैं। यह राजा राष्ट्र में छोटे-से-छोटे व्यक्ति की भी शिकायत सुनता है। ५. सुनकर अनसुना नहीं कर देता अपितु (दृष्टः सः) = देखा हुआ वह राजा जिसको मिलकर हमने अपनी दुःख की गाथा सुनाई है (नः मृडयाति) = हमारी शिकायतों को दूर करने की व्यवस्था करके हमें सुखी बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा प्रजा में विचरता है, खूब ज्ञानी व मधुर स्वरवाला है, खूब उन्नत व विशिष्ट रुधिरवाला तथा तेजस्वी है। छोटे-से-छोटे व्यक्ति के लिए अभिगम्य है। वह

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो दुष्टांचा विरोधी श्रेष्ठांना प्रिय असेल अशा दर्शनीय सेनापतीने सर्व सेनेला प्रसन्न करून सर्व शत्रूंना जिंकून घ्यावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनश्च, तोच विषय (राजधर्म) पुढील मंत्रात कथि आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (य:) जो (असौ) तो (नीलग्रीव:) गळ्यात नीलमणींची माळ घातलेला आणि (विलोहित:) अनेक गुण, कर्म आणि स्वभावांनी युक्त असा (रुद्र:) शत्रूंचा विनाशक हा आमचा सेनापती आहे, तो (अक्सर्पीत) दुष्टांशी व शत्रूंशी युद्ध करतो. (एनम्) या (दर्शनीय) पीर सेनापतीला (गोपा:) त्याचे रक्षक असलेल्या सर्व सैनिकांनी व सेवकांनी (अहश्रन्) पहावे (त्याचे वीरश्रीयुक्त रुप पाहून सर्वांच्या मनात वीरश्री संचारेल) (उत) आणि (उदहार्य्य:) पाणी भरणार्‍या सेविका (भोई वा पाणक्या स्त्रिया) यांनी देखील त्या सेनापतीला (अहश्रन्) पहावे. (स:) तो सेनापती, ज्यास (दृष्ट:) सर्वजन पाहतात व उत्साहित होतात, तो (न:) आम्हा धार्मिकजनांना (मृड्याति) अत्यंत आनंदित करतो (वा करो) ॥7॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो सेनापती दुष्टांचा संहारक आहे सज्जनांना प्रिय आहे, आणि ज्यास सर्व सैनिक पाहू इच्छितात आनंदित होतात, तोच शत्रूंवर विजय मिळवू शकतो. ॥7॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The commander of the army, with a necklace of precious gems round the neck, full of good qualities, actions and disposition, goes against the vicious. The faithful servants and the girls who carry water behold him. May he when seen be kind to us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    And the sun which is descending dark-necked behind the clouds like a peacock and reddish toward the evening is auspicious and efficacious. The cowherds see it, the water-carriers see it, and seen thus it acts as a healing power for us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Whose neck is dark and the body is red, who glides fast, whom the cowherds have seen and whom the watercarrying women have also seen, may he (the snake) be kind, when he comes to be seen by us. (1)

    Notes

    To us this verse appears referring to a snake. But the commentators have interpreted it like the preceding one, as refer ring to rudra, i. e. Śiva, in the form of aditya. Avasarpati, crawls,or glides. Nilagrīvaḥ, whose neck is black. Vilohitaḥ, whose body is red in colour. Gopāḥ, गोपाला:, cowherds. Udaharyaḥ, women who fetch water from the well or the river. कुम्भदास्यः । Mṛḍayati, मृडयतु; be kind to us. With reference to the sun, the commentators point out, it looks azure coloured at the time of sun-set and red at sun-rise. The cow-herds see it in the morning and the water-carrying maids in the evening. Śiva, in legend, is called Nilagrīva, because at the time of churning of the ocean by the gods and the demons, when kälakūta poison came out of the sea, all were confused. No One knew what to do with it. Then, it is said, Śiva drank it, but did not allow it to go below his throat. Thus the strong poison could not kill him, as it did not reach his stomach and was not absorbed in the body, but the throat and the neck of Śiva turned black. So he is called Nilagrīva.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ঃ) যে (অসৌ) সেই (নীলগ্রীবঃ) নীলমণিসকলের মালা পরিহিত (বিলোহিতঃ) বিবিধ প্রকারের শুভ গুণ, কর্ম ও স্বভাবযুক্ত শ্রেষ্ঠ (রুদ্রঃ) শত্রুদিগের হিংসক সেনাপতি (অবসর্পতি) দুষ্টদিগের বিরুদ্ধে গমন করে, যে (এনম্) ইহাকে (গোপাঃ) রক্ষক ভৃত্য (অদৃশ্রন্) দেখিবে (উত) এবং (উদহার্য়্যঃ) জল আনয়নকারী স্ত্রীগণ (অদৃশ্রন) দেখিবে (সঃ) সেই সেনাপতি (দৃষ্টঃ) দৃষ্ট (নঃ) আমদের সব ধার্মিকদিগকে (মৃডয়াতি) সুখী করিবে ॥ ৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা দুষ্টদিগের বিরুদ্ধ শ্রেষ্ঠদিগের প্রিয় দর্শনীয় সেনাপতি সব সেনাদিগকে প্রসন্ন করে তাহারা শত্রুদিগকে জিতিতে সক্ষম হয় ॥ ৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒সৌ য়োऽব॒সর্প॑তি॒ নীল॑গ্রীবো॒ বিলো॑হিতঃ ।
    উ॒তৈনং॑ গো॒পাऽঅ॑দৃশ্র॒ন্নদৃ॑শ্রন্নুদহা॒র্য়্যঃ᳕ স দৃ॒ষ্টো মৃ॑ডয়াতি নঃ ॥ ৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অসৌ য় ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । রুদ্রো দেবতা । বিরাডার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top