यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 64
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - निचृद्धृतिः
स्वरः - ऋषभः
2
नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये दि॒वि येषां॑ व॒र्षमिष॑वः। तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥६४॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। अ॒स्तु॒। रु॒द्रेभ्यः॑। ये। दि॒वि। येषा॑म्। व॒र्षम्। इष॑वः। तेभ्यः॑। दश॑। प्राचीः॑। दश॑। द॒क्षि॒णाः। दश॑। प्र॒तीचीः॑। दश॑। उदी॑चीः। दश॑। ऊ॒र्ध्वाः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥६४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोस्तु रुद्रेभ्यो ये दिवि येषाँवर्षमिषवः । तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः । तेभ्यो नमोअस्तु ते नो वन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। अस्तु। रुद्रेभ्यः। ये। दिवि। येषाम्। वर्षम्। इषवः। तेभ्यः। दश। प्राचीः। दश। दक्षिणाः। दश। प्रतीचीः। दश। उदीचीः। दश। ऊर्ध्वाः। तेभ्यः। नमः। अस्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। मृडयन्तु। ते। यम्। द्विष्मः। यः। च। नः। द्वेष्टि। तम्। एषाम्। जम्भे। दध्मः॥६४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह॥
अन्वयः
ये रुद्रा दिवि वर्त्तन्ते येषां वर्षमिषवस्तेभ्यो रुद्रेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, ये दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः प्राप्नुवन्ति तेभ्यो रुद्रेभ्योस्माकं नमोऽस्तु, य एवंभूतास्ते नोऽवन्तु, ते नो मृडयन्तु, ते वयं यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः॥६४॥
पदार्थः
(नमः) सत्क्रिया (अस्तु) भवतु (रुद्रेभ्यः) प्राणेभ्य इव वर्त्तमानेभ्यः (ये) (दिवि) सूर्यप्रकाशादाविव विद्याविनये वर्त्तमाना वीराः (येषाम्) (वर्षम्) वृष्टिरिव (इषवः) बाणाः (तेभ्यः) (दश) (प्राचीः) पूर्वा दिशः (दश) (दक्षिणाः) (दश) (प्रतीचीः) पश्चिमाः (दश) (उदीचीः) उत्तराः (दश) (ऊर्ध्वाः) उपरिस्थाः (तेभ्यः) (नमः) अन्नादिकम् (अस्तु) (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) रक्षन्तु (ते) (नः) अस्मान् (मृडयन्तु) सुखयन्तु (ते) (यम्) (द्विष्मः) अप्रीतिं कुर्याम् (यः) (च) (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) न प्रीणयति (तम्) (एषाम्) वायूनाम् (जम्भे) मार्जारमुखे मूषक इव पीडायाम् (दध्मः) निक्षिपाम॥६४॥
भावार्थः
यथा वायूनां सकाशाद् वर्षा जायन्ते, तथा ये सर्वत्राधिष्ठातारः स्युस्ते वीराः पूर्वादिषु दिक्ष्वस्माकं रक्षकाः सन्तु, वयं यं विरोधिनं जानीमस्तं सर्वत आवृत्य वायुवद् बन्धयेमेति॥६४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(ये) जो सर्वहितकारी (दिवि) सूर्यप्रकाशादि के तुल्य विद्या और विनय में वर्त्तमान हैं (येषाम्) जिनके (वर्षम्) वृष्टि के समान (इषवः) बाण हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को प्राप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) अप्रीति करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाव के मुख में मूषे के समान पीड़ा में (दध्मः) डालें॥६४॥
भावार्थ
जैसे वायुओं के सम्बन्ध से वर्षा होती है, वैसे जो सर्वत्र अधिष्ठित हों, वे वीर पुरुष पूर्वादि दिशाओं में हमारे रक्षक हों, हम लोग जिस को विरोधी जानें, उसको सब ओर से घेर के वायु के समान बांधें॥६४॥
विषय
नाना रूद्रो का अधिकार मान, आदर।
भावार्थ
( ये ) जो ( दिवि ) सूर्य के आश्रित या द्यौलोक में विद्यमान सूर्यादि के समान ( दिवि ) तेजस्वी राजा के आश्रित ( रुद्राः ) रुद्र गण हैं ( येषाम् ) जिनका ( वर्षम् ) जल-वर्षण के समान शस्त्र-वर्षण हीं ( इषवः ) बाण हैं उन ( रुद्रेभ्यः ) दुष्टों को रुलाने हारों के लिये ( नमः अस्तु ) आदर प्राप्त हो ।( तेभ्यः ) उनको ( दश प्राची: दश प्रतीची: दश दक्षिणाः दश उदीची: दश ऊर्ध्वाः ) दश दश प्रकार की पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण और ऊर्ध्व दिशाएं प्राप्त हो । अर्थात् सब दिशाओं में उनको दशों दिशाओं के सुख प्राप्त हो । अथवा दशों दिशों में उनको दोनों हाथों को जोड़ कर दश अगुलिये आदरार्थ दर्शाता हूं ।( तेभ्यः नमः अस्तु ) उनको हमारा आदरपूर्वक नमस्कार हो । ( ते नः अवन्तु ) वे हमारी रक्षा करें । ( ते नः मृडयन्तु) वे हमें सुखी करें । ( ते ) वे और हम ( यं द्विष्मः ) जिसको द्वेष करते हैं ( यः च नः द्वेष्टि ) और जो हमसे द्वेष करता है ( तम् ) उसको हम लोग मिलकर ( एषाम् ) उनके ( जम्भे ) बिल्ली के मुख में जिस प्रकार मूसा पीड़ा पाता है उसी प्रकार कष्ट पाने के लिये उनकी अधीनता में ( दध्मः ) धर दें। वे उनको दण्ड दें॥ शत० ९ । १ । ३५-३९ ॥
टिप्पणी
त्रयोऽपि अवरोह संज्ञा : मन्त्राः । सर्वा० । 'तेनो मृळयन्तु'० इति काण्व ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
धृतिः । ऋषभः ॥
विषय
ये दिवि येषां वर्षम् इषवः
पदार्थ
१. (रुद्रेभ्यः नमः अस्तु) = रुद्रों के लिए, राजा की ओर से नियुक्त [रुत्-ज्ञानं राति ददति] ज्ञान देनेवाले पुरुषों के लिए नमस्कार हो । उन रुद्रों के लिए (ये) = जो (दिवि) = [दिव- प्रकाश] प्रकाश फैलाने के कार्य में नियुक्त हैं, जिन्होंने दिवि प्रकाश के क्षेत्र में द्युलोक व मस्तिष्क पर पूर्ण आधिपत्य प्राप्त किया है। २ (वर्षम्) = ज्ञान की वर्षा ही (येषाम्) = जिनके (इषवः) = बाण हैं, अर्थात् जो ज्ञान की वर्षा के द्वारा लोगों के दुःखों को दूर करने में लगे हैं । ३. (तेभ्य:) = इन ज्ञानवर्षणरूप बाणोंवाले रुद्रों के लिए (दश) = दस (प्राची:) = पूर्वाभिमुख. पूर्व की ओर अंगुलियों को करता हूँ, अर्थात् बद्धाञ्जलि होकर प्रणाम करता हूँ। (दश दक्षिणा:) = इसी प्रकार से दक्षिणाभिमुख दस अंगुलियों को करता हूँ। (दश प्रतीची:) = पश्चिमाभिमुख दस अंगुलियों को करता हूँ। (दश उदीची:) = उत्तराभिमुख दस अंगुलियों को करता हूँ (दश ऊर्ध्वा:) = और ऊपर की ओर दस अंगुलियों को करता हूँ, अर्थात् इन ज्ञानप्रसारक रुद्रों के लिए सब दिशाओं में नमस्कार करता हूँ। ४. (तेभ्यः नमः अस्तु) = इन रुद्रों के लिए अञ्जलिपूर्वक हमारा नमस्कार हो। 'दश वा अञ्जलेरंगुलयो, दिशि दिश्येवैभ्यः एतदञ्जलिं करोति' - श० ९।१।१ । ३९ । (ते नः अवन्तु) = ये रुद्र ज्ञान देकर हमारी रक्षा करें। (ते नो मृडयन्तु) = इस ज्ञान-प्रदान द्वारा वे रुद्र हमारे जीवन को सुखी करें। ५. (ते) = वे रुद्र तथा हम सभी (यं द्विष्मः) = जिस ज्ञान में रुचि न रखनेवाले मूर्ख व्यक्ति को प्रीति के अयोग्य समझते हैं [द्विष अप्रीतौ] (यः च) = और जो (नः द्वेष्टि) = हम सबसे द्वेष करता है, अर्थात् सारे समाज का विरोध करता है और वस्तुतः उस विरोध के कारण ही द्वेष्य हो गया है, (तम्) = उसे (एषाम्) = इन रुद्रों के ही (जम्भे दध्मः) = दंष्ट्राकराल मुख में स्थापित करते हैं, [जम्भे विडाल के मुख में मूषक के समान पीड़ा में - द०] इसे न्यायोचित दण्ड देने के लिए व इसकी मनोवृत्ति को सुधारने के लिए उन्हें सौंपते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-वे राज्याधिकारी, जो प्रजा के मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाने के लिए, ज्ञानवर्षण के लिए नियुक्त हुए हैं, उन राज्याधिकारियों का हम आदर करते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
वायूमुळे जशी सर्वत्र वृष्टी होते तसे सर्वत्र वीर पुरुषांनी आमचे रक्षण करावे व जे विरोधी असतील त्यांना वायू जसा सगळीकडून घेरतो तसे बंधित करावे.
विषय
पुनश्च तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (ये) जे (सर्वहितकारी लोक (दिवि) विद्येच्या क्षेत्रात सूर्यप्रकाशाप्रमाणे देदीप्यमान आहेत आणि विनयसंपन्न आहेत, आणि (येषाम्) दुसरे ज्या लोकांचे (इषव:) वाण (वर्षम्) वृष्टीप्रमाणे वर्षतात, अशा (तेभ्य:) त्या (विद्वान आणि वीर) (रुद्रेभ्य:) प्राणवत् व उत्साही (विद्वान आणि वीर) पुरुषांना (नम:) आम्हा (सर्व नागरिकजनाचा (नम:) सत्कार (अस्तु) प्राप्त होवो (आम्ही विद्वानांचा आणि वीरांचा सत्कार-सन्मान करतो). त्या विद्वानांना व वीरांना आमचे ते सन्मान, सद्भाव (दश) दहा प्रकारे (दहा वेळा) (प्राची:) पूर्व दिशेत प्राप्त होवोत (दश) दहा वेळा (दक्षिणा:) दक्षिण दिशेत, (दश) दहावेळा (प्रतीची:) दिशेत, (दश) दहा वेळा (उदीची:) उत्तर दिशेत आणि (दश) दहा वेळा (ऊर्ध्वा:) ऊर्ध्व दिशेत प्राप्त होवोत (आम्ही नागरिक त्यांचा सर्वदा सर्वत्र सत्कार करतो.) तसेच (तेभ्य:) त्या सर्वहितेषी राजपुरुषांना आम्ही (नम:) (अस्तु) भोजन आदी पदार्थ देतो . (त्याचा त्यांनी स्वीकार करावा) याऊलट जे असे लोक आहेत की (ते) आम्ही (यम्) ज्याला (द्विष्म:) पसंत करीत नाहीं (च) आणि (य:) जो (न:) आम्हाला (द्वेष्टि दु:ख वा पीडा देतो, (तम्) त्याला आम्ही (एषाम्) या (भीषण व विनाशक) वायूंच्या (जम्भे) मुखात, ज्याप्रमाणे उंदीर मांजराच्या या बोक्याच्या मुखात पडकला जातो, तद्वत, त्या द्वेषी व पीडा देणार्या माणसाला आम्ही भीषण वायूच्या हवाली करतो (त्याचा नाश होतो, असे इच्छितो) ॥64॥
भावार्थ
भावार्थ – ज्याप्रमाणे वायूमुळे पाऊस पडतो आणि (वन, वनस्पतीचे रक्षण होते) त्याप्रमाणे जे वीर पुरुष सर्व दिशांमध्ये आमचे रक्षण करतात, ते सर्वत्र विचरोत आणि ज्यांना आम्ही आमचा विरोधक मानतो, त्यांना चोहीकडून वेढून आम्ही बांधून टाकू, ज्याप्रमाणे वायू सर्वत्र असतो, तसे आम्ही विरोधकांना सगळीकडून पुरते बंदिस्त करू. ॥64॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Homage to the heroes, who work selflessly like vital breaths, who like suns light are shining in humility and knowledge, who are powerful like the rain. To them ten eastward, southward ten, ten to the west, ten to the north, ten to the region uppermost. To them we offer food. May they guard and delight us. Within their jaws we lay the man who dislikes us and whom we dislike.
Meaning
Homage to the Rudras that abide in heaven. Rain is their power and gift to life. To them our salutations with folded hands with ten fingers joined, with ten senses and ten pranas. For them the ten directions east, ten directions south, ten directions west, ten directions north, and ten directions above; all these for them to pervade and operate. Salutations to them! May they protect us! May they bless us! Whosoever we hate, whosoever hate us, him we deliver unto their power for judgement and redress.
Translation
Our obeisance be to the terrible punishers, who are in the sky and whose arrows are the rain-waters. For them ten to the east, ten to the south, ten to the west, ten to the north, and ten upwards. Our obeisance be to them. May they protect us. May they give us comfort. We putin their jaws the man, whom we hate and who hates us. (1)
Notes
This and following two verses praise Rudra dwelling in the sky, in the mid-space, and on earth respectively. Varsam isavah, वर्ष वृष्टिः एव बाणाः, rain is the arrows (weapons of punishment). Excessive rain causes much suffering. Dasa, ten homages. The commentators interpret it as ten homages with ten fingers, one finger pointing in each direction. Mentioning fingers seems unwarranted.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তদেবাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ– (য়ে) যে সর্বহিতকারী (দিবি) সূর্য্য প্রকাশাদির তুল্য বিদ্যা ও বিনয়ে বর্ত্তমান, (য়েষাম্) যাহার (বর্ষম্) বৃষ্টির সমান (ইষবঃ) বাণ আছে (তেভ্যঃ) সেই সব (রুদ্রেভ্যঃ) প্রাণাদির তুল্য বর্ত্তমান পুরুষদিগের জন্য আমাদিগের কৃত (নমঃ) সৎকার (অস্তু) প্রাপ্ত হউক, যাহা (দশ) দশ প্রকার (প্রাচীঃ) পূর্ব (দশ) দশ প্রকার (দক্ষিণাঃ) দক্ষিণ (দশ) দশ প্রকার (ঊধর্বাঃ) উপরের দিক্ প্রাপ্ত হয় (তেভ্যঃ) সেইসব সর্বহিতৈষী রাজপুরুষদিগের জন্য আমাদের (নমঃ) অন্নাদি পদার্থ (অস্তু) প্রাপ্ত হউক, যাহারা এমন পুরুষ (তে) তাহারা (নঃ) আমাদিগের (অবন্তু) রক্ষা করিবে, (তে) তাহারা (নঃ) আমাদেরকে (মৃডয়ন্তু) সুখী করুক (তে) সেই সব আমরা (য়ম্) যাহার সহিত (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করিব (চ) এবং (য়ঃ) যে (নঃ) আমাদেরকে (দ্বেষ্টি) দুঃখ দিবে (তম্) তাহাকে (এষাম্) এই বায়ুসকলকে (জম্ভে) বিড়ালের মুখে ইদুরের সমান পীড়ায় (দধমঃ) ফেলিবে ॥ ৬৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– যেমন বায়ুর সম্পর্কের ফলে বর্ষা হয় সেইরূপ যাহারা সর্বত্র অধিষ্ঠিত সেই সব বীরপুরুষ পূর্বাদি দিকে আমাদের রক্ষক হয় । আমরা যাহাকে বিরোধী জানিব তাহাকে সব দিক্ দিয়া ঘিরিয়া বায়ুর তুল্য বাঁধিব ॥ ৬৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
নমো॑ऽস্তু রু॒দ্রেভ্যো॒ য়ে দি॒বি য়েষাং॑ ব॒র্ষমিষ॑বঃ । তেভ্যো॒ দশ॒ প্রাচী॒র্দশ॑ দক্ষি॒ণা দশ॑ প্র॒তীচী॒র্দশোদী॑চী॒র্দশো॒র্ধ্বাঃ । তেভ্যো॒ নমো॑ऽঅস্তু॒ তে নো॑ऽবন্তু॒ তে নো॑ মৃডয়ন্তু॒ তে য়ং দ্বি॒ষ্মো য়শ্চ॑ নো॒ দ্বেষ্টি॒ তমে॑ষাং॒ জম্ভে॑ দধ্মঃ ॥ ৬৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নমোऽস্তু রুদ্রেভ্য ইত্যস্য পরমেষ্ঠী প্রজাপতির্বা দেবা ঋষয়ঃ । রুদ্রা দেবতাঃ । নিচৃদ্ধৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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