अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - यक्ष्मनाशनी
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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येव॒ध्वश्च॒न्द्रं व॑ह॒तुं यक्ष्मा॑ यन्ति॒ जनाँ॒ अनु॑। पुन॒स्तान्य॒ज्ञिया॑दे॒वा न॑यन्तु॒ यत॒ आग॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठये । व॒ध्व᳡: । च॒न्द्रम् । व॒ह॒तुम् । यक्ष्मा॑: । यन्ति॑ । जना॑न् । अनु॑ । पुन॑: । तान् । य॒ज्ञिया॑: । दे॒वा: । नय॑न्तु । यत॑: । आऽग॑ता: ॥१.१०।
स्वर रहित मन्त्र
येवध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनाँ अनु। पुनस्तान्यज्ञियादेवा नयन्तु यत आगताः ॥
स्वर रहित पद पाठये । वध्व: । चन्द्रम् । वहतुम् । यक्ष्मा: । यन्ति । जनान् । अनु । पुन: । तान् । यज्ञिया: । देवा: । नयन्तु । यत: । आऽगता: ॥१.१०।
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (यक्ष्माः)क्षय रोग (जनान् अनु) मनुष्यों में वर्तमान (वध्वः) वधू के (चन्द्रम्) आनन्ददेनेवाले [वा सुनहले] (वहतुम्) रथ को (यन्ति) प्राप्त होवें। (तान्) उन [रोगों]को (यज्ञियाः) पूजा योग्य (देवाः) विद्वान् लोग (पुनः) अवश्य [वहाँ] (नयन्तु)पहुँचावे, (यतः) यहाँ से [जिस कारण से] (आगताः) वे [रोग] आये हैं ॥१०॥
भावार्थ
जब कभी मार्ग आदिस्थान में स्त्री वा पुरुष को रोग का उपद्रव आ पड़े, विद्वान् वैद्य लोग कारणजानकर उसका प्रतिकार करें ॥१०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३१॥
टिप्पणी
१०−(ये) (वध्वः) वध्वाः। पत्न्याः (चन्द्रम्) आह्लादकम्। सुवर्णयुक्तम् (वहतुम्) वाहनं रथम् (यक्ष्माः) राजरोगाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (जनान्)मनुष्यान् (अनु) प्रति (पुनः) अवधारणे (तान्) रोगान् (यज्ञियाः) पूजार्हाः (देवाः) सुखदातारो वैद्याः (नयन्तु) प्रेरयन्तु (यतः) यस्मात् कारणात् (आगताः)प्राप्ताः ॥
विषय
रोगनिवारण
पदार्थ
१.(ये यक्ष्मा) = जो रोग (जनान् अनु) = मनुष्यों को प्राप्त होने के (पश्चात् वध्वः चन्द्रं वहतुम्) = वधू के आहादमय, सुन्दर शरीर-रथ को भी (यन्ति) = प्राप्त होते हैं, (तान्) = उन रोगों को (यज्ञियाः देवा:) = आदरणीय विद्वान् पुरुष (पुन:) = फिर वहाँ (नयन्तु) = प्राप्त कराएँ, (यतः आगताः) = जहाँ से कि ये आये थे। २. पुरुष का जीवन कुछ भी भोगप्रधान हुआ तो शरीर में 'यक्ष्मा' का प्रवेश हो जाता है। पुरुष से यह रोग वधू को भी प्राप्त हो जाता है। आदरणीय विद्वान् अतिथियों का 1यह कर्तव्य होता है कि जिस कारण से ये रोग उत्पन्न होते हैं उनका ठीक से ज्ञान देकर उन कारणों को दूर करने के लिए प्रेरित करें। मुख्य बात यही है कि पति-पत्नी का जीवन भोगप्रधान न हो जाए।
भावार्थ
मनुष्य भोगप्रवण होते ही रोगों को आमन्त्रित करता है। ये रोग पत्नी को भी प्राप्त हो जाते हैं। घर में अतिथिरूपेण आने-जानेवाले विद्वानों का कर्तव्य होता है कि वे रोग कारणों का ज्ञान देकर रोगों को दूर करने में सहायक हों।
भाषार्थ
(य) जो (यक्ष्माः) पूजनीय लोग अर्थात् कन्यापक्ष के लोग (वध्वः) वधू के (चन्द्रम्) आह्लादकारी तथा चन्द्रसमान चमकते हुए (वहतुम, अनु) रथ के साथ साथ या पीछे पीछे (यन्ति) चलते हैं, तथा (जऩानू अनु) वरपक्ष के जनों के साथ-साथ या पीछे-पीछे (यन्ति) चलते हैं (तान्) उन्हें, (यज्ञियाः) विवाह-यज्ञ में उपस्थित पूजनीय (देवाः) दिव्यगुणी कन्यापक्ष के लोग, (पुनः) फिर (नयन्तु) पहुँचा दें, (यतः) जहां जहां से कि वे (आगताः) आए थे।
टिप्पणी
[चन्द्रम् = चदि आह्लादने। यक्ष्माः = यक्ष पूजायाम् (चुरादि), तथा "यक्षपति पूजयतीति यक्ष्मा" (उणा० ४।१५२, महर्षि दयानन्द)। तथा "महद यक्ष भुवनस्य मध्ये" (अथर्व० १०।७।३८) में ब्रह्म को यक्ष अर्थात् पूजनीय कहा है। यज्ञियाः = यज् देवपूजा, सङ्गतिकरण, दानेषु, अर्थाद विवाह-यज्ञ में संगत हुए पूजनीय लोग] [व्याख्या-वधू जिस रथ पर बढ़ कर पतिगृह की ओर जाने लगे वह खूब सजा हुआ तथा सुन्दर और चन्द्र के समान आाह्लादकारी होना चाहिये [मन्त्र १४।१।६१]। पतिगृह की ओर कन्या के जाते हुए, रथ के साथ साथ कन्यापक्ष के पूजनीय तथा अन्य पुरुष भी कुछ दूरी तक चलें। यह पद्धति वरपक्ष के सत्कारार्थ है। तथा जो पूजनीय लोग विवाह में शामिल हुए थे उन्हें अपने अपने स्थानों में वापिस पहुंचाने का प्रबन्ध भी कन्यापक्ष के लोगों को करना चाहिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(ये) जो (यक्ष्माः) पूजा करने योग्य, आदर सत्कार के योग्य अतिथि लोग (जनान् अनु) सर्वसाधारण मनुष्यों के साथ साथ (वध्वः) नववधू के (चन्द्रम्) आह्लादकारी (वहतुम्) रथ या दहेज को देखने के लिये (यन्ति) आवें (तान्) उनको (यज्ञियाः देवाः) यज्ञ, विवाह कृत्य के करने वाले विद्वान् ब्राह्मण या रक्षक लोग (पुनः) फिर (नयन्तु) आदर सत्कार से उसी स्थान पर पहुंचा दें (यतः आगताः) जहां से वे पधारे हों। यज्ञ = ‘जञ्ज’ = विवाह की बारात। ‘यज्ञियाः देवाः’ = बारात के रक्षक लोग।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘जनादनु’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
All those worthies of society who come in response to the members of the bride’s family and join and grace the beautiful bridal procession, after the wedding yajna, on way to her new home are respectable. Let the noblest respectable people of the bride’s family escort them to their places from where they had come.
Translation
Following the people, what wasting discases go to the delightful chariot of the bride, may the enlightened ones, skilled in sacrifices, conduct those back, wherefrom they came. (Rg. X.85.31; Variation).
Translation
Let the enlightened persons or the observers who participate in the Yajna, convey to their respective returnable place the men who are respectable and have come to see the pleasant dowry of the bride.
Translation
Venerable guests who come along with other ordinary persons to see the bride’s beautiful dowry, should be taken back to the place whence they came, by the learned relatives of the bridegroom.
Footnote
See Rig, 10-85-31.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(ये) (वध्वः) वध्वाः। पत्न्याः (चन्द्रम्) आह्लादकम्। सुवर्णयुक्तम् (वहतुम्) वाहनं रथम् (यक्ष्माः) राजरोगाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (जनान्)मनुष्यान् (अनु) प्रति (पुनः) अवधारणे (तान्) रोगान् (यज्ञियाः) पूजार्हाः (देवाः) सुखदातारो वैद्याः (नयन्तु) प्रेरयन्तु (यतः) यस्मात् कारणात् (आगताः)प्राप्ताः ॥
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