अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 47
ऋषिः - आत्मा
देवता - पथ्याबृहती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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य ऋ॒तेचि॑दभि॒श्रिषः॑ पु॒रा ज॒त्रुभ्य॑ आ॒तृदः॑। सन्धा॑ता स॒न्धिं म॒घवा॑पुरू॒वसु॒र्निष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ऋ॒ते । चि॒त् । अ॒भि॒ऽश्रिष॑: । पु॒रा । ज॒त्रुऽभ्य॑: । आ॒ऽतृद॑: । सम्ऽधा॑ता । स॒म्ऽधिम् । म॒ऽघवा॑ । पु॒रु॒ऽवसु॑: । नि:ऽक॑र्ता । विऽह्रु॑तम् । पुन॑: ॥२.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋतेचिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः। सन्धाता सन्धिं मघवापुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ऋते । चित् । अभिऽश्रिष: । पुरा । जत्रुऽभ्य: । आऽतृद: । सम्ऽधाता । सम्ऽधिम् । मऽघवा । पुरुऽवसु: । नि:ऽकर्ता । विऽह्रुतम् । पुन: ॥२.४७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमेश्वर] (पुरा) पहिले से [वर्तमान] (ऋते) सत्य नियम में (चित्) ही (अभिश्रिषः) चिपकानेके साधन [वीर्य के बिन्दु] से (जत्रुभ्यः) ग्रीवा आदि जोड़ों के [बनाने के] लिये (आतृदः) [रुधिर के] सब ओर टकराने [घूमने] से (सन्धिम्) हड्डी के जोड़ को (संधाता) जोड़ देनेवाला है, (मघवा) वह पूज्य (पुरूवसुः) बहुत श्रेष्ठ गुणोंवाला [परमात्मा] (विह्रुतम्) टेढ़े हुएअङ्ग को (पुनः) फिर (निष्कर्ता) ठीक करनेवालाहै ॥४७॥
भावार्थ
परमेश्वर के अनादिसत्य नियम के अनुसारबीज चाहे सीधा पड़े चाहे टेढ़ा, वह पृथिवी की भीतरी गति सेऐसा ठीक हो जाता है कि उससे ऊपर को अङ्कुर और नीचे को जड़ उपजती है, इसी प्रकारवीर्य गर्भाशय में ठीक होकर नाभि से सम्बन्ध करता है, तब रुधिर के संचार से बालकके अङ्ग सीधे होकर पूरे और पुष्ट होते हैं ॥४७॥यह मन्त्र सामवेद में है−पू०३।६।२, तथा कुछ भेद से ऋग्वेद में है ८-१।१२ ॥
टिप्पणी
४७−(यः) परमेश्वरः (ऋते) सत्यनियमे (चित्) एव (अभिश्रिषः) अभिश्लिषः। अभिश्लेषणात् सन्धानद्रव्यात्।वीर्यबिन्दुसकाशात् (पुरा) पूर्वकाले (जत्रुभ्यः) जत्र्वादयश्च। उ० ४।१०२। जनीप्रादुर्भावे-रु, नस्य तः। ग्रीवादिसन्धीनां रचनाय (आतृदः) उतृदिर्हिंसानादरयोः-क्विप्। आतर्दनात्। प्रताडनात्। रुधिरस्य संचारात् (सन्धाता)संयोजयिता भवति (सन्धिम्) अस्थिसंयोगम् (मघवा) अ० २।५।७।श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१५९। मह पूजायाम्-कनिन्, हस्य घः, अवुगागमश्च।पूजनीयः−(पुरुवसुः) सांहितिको दीर्घः। बहुश्रेष्ठगुणयुक्तः परमात्मा (निष्कर्ता) संस्कर्ता। सन्धाता भवति (विह्रुतम्) ह्वृ कौटिल्ये-क्त। कुटिलमङ्गम् (पुनः) ॥
विषय
शरीर की अद्भुत रचना
पदार्थ
१. (य:) = जो प्रभु (अभिनिषः ऋतेचित्) = सन्धान द्रव्य के बिना ही (जबुभ्यः आतदः पुरा) = ग्रीवास्थिवाले स्थान से कट जाने से पूर्व (सन्धिं सन्धाता) = जोड़ को फिर से मिला देनेवाले हैं। वे प्रभु सचमुच (मघवा) = परम ऐश्वर्यवाले हैं। प्रभु ने शरीर की व्यवस्था ही इसप्रकार से की है कि सब बाव फिर से भर जाते हैं। गर्दन ही कट जाए तो बात अलग है, अन्यथा सब कटाव फिर से जुड़ जाते हैं। २. (पूरू वसुः) = वे पालक और पूरक वसुओंवाले प्रभु (पुन:) = फिर से (विहृतं निष्कर्ता) = कटे हुए को ठीक कर देनेवाले हैं। सब कटाओं को फिर से भर देते हैं। शरीर में प्रभु ने यह अद्भुत ही व्यवस्था की है।
भावार्थ
शरीर में प्रभु ने क्या ही अद्भुत रचना की है कि बड़े-से-बड़ा घाव भी फिर से भर जाता है। हम भी प्रभुस्मरण करते हुए पारस्परिक मानस घावों को फिर से भरनेवाले हों।
भाषार्थ
(यः) जो परमेश्वर (जत्रुभ्यः) कन्धे आदि की अस्थियों के निर्माण से (पुरा) पहिले (आतृदः) काटे गये छिद्रों अर्थात् इन्द्रियों का (निष्कर्ता) निर्माता और शोधक है, और जो (अभिश्रिषः) जोड़ने के साधन सरेस आदि के (ऋतेचित्) विना भी (संधिम्) शरीर के जोड़ों को (संधाता) जोड़ने वाला है, (मघवा) वह ऐश्वर्यवान् (पुरूवसुः) बहुधनी परमेश्वर (विह्रुतम्) शरीर के कुटिल तथा टूटे-फूटे, अङ्ग को (पुनः) फिर (निष्कर्ता) ठीक कर देता है।
टिप्पणी
[निष्कर्ता=यथा “निष्कृण्वाना आयुधानि” (निरु० १२।१।७); निष्कृण्वानाः=संस्कुर्वाणाः। तथा “उपरस्य निष्कृतिम्” (अथर्व० ६।४९।३)=मेघस्य निर्माणम्। विह्रुतम=वि+ह्वृ कौटिल्ये। जत्रु–The collor bone, The clavicle (आप्टे)। आतृदः=गर्भशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं कि ६ सप्ताह के गर्भ में नासिका, मुख, आंखों और कानों के छिद्र बन जाते हैं। दूसरे महीने मलद्वार का चिन्ह दिखाई देने लगता है। तीसरे मास के गर्भ में जतुक-अस्थि का,-जिसे कि मन्त्र में “जत्रुभ्यः” द्वारा निर्दिष्ट किया है,—तथा अन्य कई अस्थियों का विकास होता है (“हमारे शरीर की रचना”, भाग २)। आतृदः में तृद्=तर्द्म=गढ़ा, छिद्र। ऐतरेयोपनिषद् में, गर्भाशय में इन्द्रियों के निर्माण के सम्बन्ध में “निर्भिद्” शब्द का प्रयोग किया है। यथा “मुखं निरभिद्यत यथाण्डम्, नासिके निरभिद्येताम् अक्षिणी निरभिद्येताम् कर्णौ निरभिद्येताम्” इत्यादि। मन्त्रस्थ “नृद्” और उपनिषद् का “भिद्” समानाभिप्रायक हैं। कठोपनिषद में इन्द्रियों के निर्माण में “तृण” का प्रयोग हुआ हैं। यथा “पराञ्चि खानि व्यतृणत्”। तृण, तृद्, भिद् समानाभिप्रायक हैं। श्रिषः=सरेस शब्द श्रिषः का अपभ्रंश प्रतीत होता है] [व्याख्या— परमेश्वर की स्तुति किस प्रकार करनी चाहिये,-इस का दृष्टान्तरूप में वर्णन, मन्त्र में दर्शाया है। यथा- हमारे शरीरों, इन्द्रियों, तथा हडि्डयों आदि का निर्माण करने वाला परमेश्वर है। उसने ही हमें जीवन प्रदान किया है। उस कारीगर ने ही हमारे शरीरों के अवयवों को तथा संधियों को परस्पर जोड़ा है। वह मघवा है, ऐश्वर्यवान है, महाधनी है। संसार को वसाने वाला तथा संसार में वसा हुआ है। शरीर के रोगों तथा टूट-फूट को वही पुनः ठीक करता है,—ऐसी और इस प्रकार की परमेश्वर स्तुति तथा प्रार्थना प्रातःकाल में प्रत्येक सद्ग्रहस्थी को प्रतिदिन करनी चाहिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो मघवा परमेश्वर (ऋते) विना (अभिश्रिषः) चिपकने के पदार्थों, गोंद, सरेस आदि के और बिना जोड़ने के पदार्थ कील आदि के (चित्) भी और (जत्रुभ्यः) गर्दन की हंसुली की हड्डियों में (आतृदः) छेद किये बिना ही (संधिम्) संधियों को (संधाता) जोड़ता है और (विहुतं) कुल अंगों को भी (पुनः) फिर (निष्कर्त्ता) ठीक कर देता है वह (पुरुवसुः) इन्द्रियों में बसने हारे आत्मा के समान समस्त लोकों में बसनेहारा परमात्मा ही (मघवा) परमेश्वर है।
टिप्पणी
ऋग्वेदे मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वावृषी। इन्द्रो देवता। (च०) ‘पुरुवसुरिष्कर्त्ता वित्रुतं पुनः’ इति ऋ०। (प्र०) ‘यदृते’ (द्वि०) ‘जर्तृभ्यः’ (तृ०) ‘पुरोवसुः’ इति तै० आ०। (द्वि०) ‘आरिदः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
I do homage to that immanent Lord of unbounded natural health and assertive life energy who, without piercing and ligatures, provides for the serial structure of separate vertebrae and collar bones and then, later, heals and sets the same back into healthy order if they get dislocated or fractured.
Translation
The bounteous Lord is a great healer. He, even before injury to neck or any part, is afflicted, confers capacity in the body to heal up the wound and closes the injured part, and hastens the recovery. He, the bounteous Lord, without ligature or healing material, closes up thë wound again before making incision in the neck or any injured part and makes whole the dis-severed part. (Rg. VIII.1.12)
Translation
Almighty God is the who without any glutinous material and without making holes in the neck-bones joins the joints and heals up the dissevered parts and is pervading all.
Translation
He, Who without ligature, without incision in the neck, unites the joints in the beginning, Who healeth the dissevered parts, is the Most Wealthy Bounteous God.
Footnote
See Rig, 8-1-12
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४७−(यः) परमेश्वरः (ऋते) सत्यनियमे (चित्) एव (अभिश्रिषः) अभिश्लिषः। अभिश्लेषणात् सन्धानद्रव्यात्।वीर्यबिन्दुसकाशात् (पुरा) पूर्वकाले (जत्रुभ्यः) जत्र्वादयश्च। उ० ४।१०२। जनीप्रादुर्भावे-रु, नस्य तः। ग्रीवादिसन्धीनां रचनाय (आतृदः) उतृदिर्हिंसानादरयोः-क्विप्। आतर्दनात्। प्रताडनात्। रुधिरस्य संचारात् (सन्धाता)संयोजयिता भवति (सन्धिम्) अस्थिसंयोगम् (मघवा) अ० २।५।७।श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१५९। मह पूजायाम्-कनिन्, हस्य घः, अवुगागमश्च।पूजनीयः−(पुरुवसुः) सांहितिको दीर्घः। बहुश्रेष्ठगुणयुक्तः परमात्मा (निष्कर्ता) संस्कर्ता। सन्धाता भवति (विह्रुतम्) ह्वृ कौटिल्ये-क्त। कुटिलमङ्गम् (पुनः) ॥
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