अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 71
ऋषिः - आत्मा
देवता - बृहती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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अमो॒ऽहम॑स्मि॒सा त्वं॒ सामा॒हम॒स्म्यृक्त्वं द्यौर॒हं पृ॑थि॒वी त्व॑म्। तावि॒ह सं भ॑वावप्र॒जामा ज॑नयावहै ॥
स्वर सहित पद पाठअम॑: । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । सा । त्वम् । साम॑ । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । ऋक् । त्वम् । द्यौ: । अ॒हम् । पृ॒थि॒वी । त्वम् । तौ । इ॒ह । सम् । भ॒वा॒व॒ । प्र॒ऽजाम् । आ । ज॒न॒या॒व॒है॒ ॥२.७१॥
स्वर रहित मन्त्र
अमोऽहमस्मिसा त्वं सामाहमस्म्यृक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्। ताविह सं भवावप्रजामा जनयावहै ॥
स्वर रहित पद पाठअम: । अहम् । अस्मि । सा । त्वम् । साम । अहम् । अस्मि । ऋक् । त्वम् । द्यौ: । अहम् । पृथिवी । त्वम् । तौ । इह । सम् । भवाव । प्रऽजाम् । आ । जनयावहै ॥२.७१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (अहम्) मैं [वर] (अमः) ज्ञानवान् (अस्मि) हूँ, (सा) सो (त्वम्) तू [ज्ञानवती है], (अहम्)मैं (साम) सामवेद [मोक्षज्ञान के समान सुखदायक] (अस्मि) हूँ, (त्वम्) तू (ऋक्)ऋग्वेद की ऋचा [पदार्थों के गुणों की बड़ाई बतानेवाली विद्या के तुल्य आनन्ददेनेवाली] है, (अहम्) मैं (द्यौः) सूर्य [वृष्टि आदि करनेवाले रवि के समानउपकारी] हूँ, और (त्वम्) तू (पृथिवी) पृथिवी [अन्न आदि उत्पन्न करनेवाली भूमि केसमान उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली] है। (तौ) वे हम दोनों (इह) यहाँ [गृहाश्रममें] (सं भवाव) पराक्रमी होवें, और (प्रजाम्) प्रजा [उत्तम सन्तान] को (आजनयावहै) उत्पन्न करें ॥७१॥
भावार्थ
वधू-वर राज्यप्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर और अनेक प्रकार की विद्या और सम्पत्ति की प्राप्ति और सुसन्तानकी उत्पत्ति से सुखी होवें ॥७१॥यह मन्त्र कुछ भेद से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर के परस्पर प्रतिज्ञा करने में व्याख्यात है॥
टिप्पणी
७१−(अमः) अम गतौ भोजने च-असुन्, मतुपो लोपः। ज्ञानवान् (अहम्) (अस्मि) (सा)तादृशी ज्ञानवती (त्वम्) (साम) सामवेदेन मोक्षज्ञानेन तुल्यः सुखदायकः (अहम्) (अस्मि) (ऋक्) ऋग्वेदस्य वाणी। पदार्थगुणप्रकाशिकाविद्यावत् सुखप्रदा (त्वम्) (द्यौः) सूर्यतुल्यवृष्ट्यादिनोपकारकः (अहम्) (पृथिवी) अन्नोत्पादयित्री भूमिरिवसुसन्तानोत्पादयित्री (त्वम्) (तौ) आवां वधूवरौ (इह) गृहाश्रमे (सं भवाव)पराक्रमिणौ भवाव (प्रजाम्) सन्तानम् (आ जनयावहै) उत्पादयावहै ॥
विषय
अम+सा, साम+ऋक्, द्यौ+पृथिवी
पदार्थ
१. पति कहता है कि (अहम्) = मैं (अमः) = प्राणशक्ति [vital air] (अस्मि) = हूँ तो (त्वम्) = तू (सा) [असि] = लक्ष्मी है [सा name of लक्ष्मी]। पति को प्राणशक्तिसम्पन्न होना चाहिए तथा पत्नी तो गृहलक्ष्मी होकर ही घर को शोभान्वित कर सकेगी। २. (साम अहं अस्मि) = मैं साम है, (त्वं ऋक्) = तू ऋचा है। पति ने साम के गायन के समान मधुर होना है न कि कर्कश स्वभाव का। पत्नी ने विज्ञानवाली बनना है-समझदार । ऋचाओं से साम पृथक् नहीं, इसीप्रकार पति ने पत्नी से पृथक्त्व को सोचना ही नहीं। ३. (द्यौः अहम्) = मैं द्युलोक के समान हैं, (त्वं पृथिवी) = तू पृथिवी है। झुलोक बरसता है, पति ने भी घर में धन की वृष्टि करनी है। पृथिवी उत्पन्न करती है, पत्नी ने भी उत्तम पदार्थों का निर्माण करना है। धुलोक पृथिवी पर वृष्टि का सेचन करता है, इसीप्रकार पति पत्नी में वीर्य का सेचन करनेवाला है। पृथिवी अन्नादि को उत्पन्न करती है, पत्नी उत्तम सन्तान को। ४. पति कहता है कि (तौ) = वे हम दोनों (इह सम्भवाव) = यहाँ सह स्थानों में मिलकर हों। हमारे हृदय एक हों, मन एक हों, हम अविद्वेषवाले हों, परस्पर प्रीतिसम्पन्न हों। इसप्रकार हम (प्रजां आजनयावहै) = उत्तम सन्तान को जन्म दें।
भावार्थ
पति प्राण है तो पत्नी लक्ष्मी। प्राणशक्ति ही शरीर को लक्ष्मी-सम्पन्न बनाती है। पति शान्त हो, पत्नी विज्ञानवाली। पति युलोक के समान ज्ञानदीप्त हो, पत्नी प्रथिवी के समान दृढ़ आधारवाली। ऐसे पति-पत्नी ही मिलकर उत्तम सन्तान को जन्मदेनेवाले होते हैं।
भाषार्थ
(अहम) मैं पति (अमः) ज्ञानवान् (अस्मि) हूं, हे पत्नि! (त्वम्) तू भी (सा) वह है, अर्थात् ज्ञानवती, (अहम्) मैं पति (साम) सामगानरूप (अस्मि) हूं, हे पत्नी! (त्वम्) तू (ऋक्) ऋचारूप है, (अहम्) मैं पति (द्यौः) द्युलोकरूप हूं, हे पत्नि! (त्वम्) तू (पृथिवी) पृथिवीरूप है। (तौ) वे हम दोनों (इह) इस गृहस्थ जीवन में (सं भवाव) परस्पर की संगति में रहें, और (प्रजाम्) उत्तम-सन्तानें (आजनयावहै) उत्पन्न करें।
टिप्पणी
[अमः=अम् का अर्थ है, गति। गति के ३ अर्थ होते हैं,-ज्ञान, गति और प्राप्ति। यहां “ज्ञान” अर्थ “संगत” होता है। ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के उपासना विषय में “अमः” का अर्थ महर्षि दयानन्द ने “ज्ञानस्वरूप” किया है] [व्याख्या—सूर्यासूक्तों में सूर्या-ब्रह्मचारिणी और आदित्य-ब्रह्मचारी का विवाह आदर्श-विवाह दर्शाया है। ये दोनों ब्रह्मचर्याश्रम के दीक्षान्त-संस्कार द्वारा दीक्षित हैं, इस लिये दोनों ज्ञानसम्पन्न हैं। पति यह दर्शाता है कि हम दोनों ज्ञान सम्पन्न हैं, इसलिये ज्ञानपूर्वक हम दोनों ने परस्पर विवाह की अनुमति दी है। पति-पत्नी का सम्बन्ध साम-और-ऋक द्वारा दर्शाया है।छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है कि “ऋच्यधिरूढं साम गीयते”, अर्थात् ऋक् या ऋचा पर आरूढ़ हुआ साम गाया जाता है। अतः ऋक्१ आश्रय है और साम आश्रित। इस लिये गृहस्थ जीवन में पत्नी आश्रय है और पति आश्रित। इस समग्र मन्त्र का वक्ता पति है। वह अपने मुख से यह स्वीकार करता है कि उस के गृहस्थजीवन का आश्रय उस की पत्नी हैं। गृहस्थ जीवन में पति और पत्नी के अपने अपने कर्त्तव्यों को दर्शाने के लिए द्यौः और पृथिवी का दृष्टान्त दिया है। गृहस्थ में पति द्यौः है और पत्नी पृथिवी। द्यौः उत्पत्ति में सहायक है परन्तु उत्पत्ति का वास्तविक स्थान पृथिवी है। द्यौः उत्पत्ति में निमित्त कारण है, परन्तु पृथिवी उत्पत्ति में उपादान कारणरूप है। द्यौः और पृथिवी के रूपक में एक और बात भी सूचित की है। द्यौः positive शक्ति का आधार है, और पृथिवी negative शक्ति का आधार है। क्योंकि द्यौः से शक्ति आती है, और पृथिवी उस शक्ति का ग्रहण करती है। इसे उपनिषद् में प्राण-और-रयि शब्दों द्वारा सूचित किया है। यथा “स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणञ्चेति एतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति। आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमाः" (प्रश्न० उप० १।४।५)। इसीलिये मन्त्र (१४।१।२३,२४) में पति और पत्नी को सूर्य और चन्द्रमा के रूप से भी वर्णित किया।] [१. ऋक् और साम (अर्थात् राग) का परस्पर वही सम्बन्ध है जोकि गीत और राग-रागिनी का परस्पर सम्बन्ध होता है। एक गीत कई रागों में गाया जा सकता है। पर गीत का स्वरूप एक स्थिर रूप होता है। ऋक् का अर्थ है “छन्दोमयी रचना”। छन्दोबद्ध मन्त्रों पर साम अर्थात् राग गाया जाता है। अतः ऋक् आश्रय है, और साम आश्रित।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
पति पत्नी का जोड़ा कैसा है ? हे वधु ! (अहम्) मैं पति (अमः अस्मि) ‘श्रम’ यह मुख्य प्राण हूं और (सा त्वम्) तू वह ‘वाक्’ है। (अहं साम) मैं सामवेद या गायन हूं और (त्वम् ऋक्) तू ऋग्वेद की ऋचा या गानपद है। (अहं द्यौः) मैं द्यौः, महान् आकाश हूं (त्वम् पृथिवी) तू पृथिवी है। (तौ) वे दोनों हम (सम् भवाव) एकत्र हों, मिलें और (प्रजाम्) प्रजा को (आ जनयावहै) उत्पन्न करें।
टिप्पणी
(प्र०) ‘अमूहमस्मि’ इति तै० ब्रा०। ‘सा त्वमस्यमोहमस्मि’ इति पा० गृ० सू०। (च०) ‘तवेह सं वहावहै’ ऐ० ब्रा०। ‘त्वेहि संभवाव सहरेतो दधावहै पुंसे पुत्राय वेत्तवै’ इति ते० ब्रा०। ‘संरभावहै’, ‘दधातवें’, ‘वित्तवै’ इति शत०। ‘त्वेहि विवहावहै प्रजां प्रजनयावहै’ इति आ० गृ० सू०। ‘त्वेहि विवहावहै सह रेतोदधावहै प्रजां प्रजनयावहै, पुत्रान् विन्दावहै वहून् ते सन्तु जरदष्टयः’ इति पा० गृ० सू०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
I am He, a human version of Purusha, you are She, a human version of Prakrti. I am Sama, you are Rk. I am the heaven, you are the earth. Let us two join and be one. Let us create progeny.
Translation
Here I am, and you are she. I am the Siman (song), you are the Rk (verse). I am the heaven and you the earth. As such, let both of us unite. Let us procreate children.
Translation
O bride, I am Amah (अमः) and you are Saa (सा) I am Saman and you are Rik and I am sun and you earth. Let both of us unite together and procreate progeny.
Translation
O bride, I am full of knowledge, so art thou. I am charming like the knowledge of salvation preached by the Samaveda, thou art pleasure-giving like the Rigveda that expounds the importance and utility of all objects. I am philanthropic like the Sun, thou art productive of progeny like the Earth of corn. Let us both dwell together here, parents of future children.
Footnote
Maharshi Dayananda has explained this verse in the Sanskar Vidhi in the chapter' on marriage. Here: In this world, or in this domestic life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७१−(अमः) अम गतौ भोजने च-असुन्, मतुपो लोपः। ज्ञानवान् (अहम्) (अस्मि) (सा)तादृशी ज्ञानवती (त्वम्) (साम) सामवेदेन मोक्षज्ञानेन तुल्यः सुखदायकः (अहम्) (अस्मि) (ऋक्) ऋग्वेदस्य वाणी। पदार्थगुणप्रकाशिकाविद्यावत् सुखप्रदा (त्वम्) (द्यौः) सूर्यतुल्यवृष्ट्यादिनोपकारकः (अहम्) (पृथिवी) अन्नोत्पादयित्री भूमिरिवसुसन्तानोत्पादयित्री (त्वम्) (तौ) आवां वधूवरौ (इह) गृहाश्रमे (सं भवाव)पराक्रमिणौ भवाव (प्रजाम्) सन्तानम् (आ जनयावहै) उत्पादयावहै ॥
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