अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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अदे॑वृ॒घ्न्यप॑तिघ्नी॒हैधि॑ शि॒वा प॒शुभ्यः॑ सु॒यमा॑ सु॒वर्चाः॑। प्र॒जाव॑तीवीर॒सूर्दे॒वृका॑मा स्यो॒नेमम॒ग्निं गार्ह॑पत्यं सपर्य ॥
स्वर सहित पद पाठअदे॑वृऽघ्नी । अप॑तिऽघ्नी । इ॒ह । ए॒धि॒ । शि॒वा । प॒शुऽभ्य॑: । सु॒ऽयमा॑ । सु॒ऽवर्चा॑: । प्र॒जाऽव॑ती । वी॒र॒ऽसू: । दे॒वृऽका॑मा । स्यो॒ना । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । गार्ह॑ऽपत्यम् । स॒प॒र्य॒ ॥२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः। प्रजावतीवीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य ॥
स्वर रहित पद पाठअदेवृऽघ्नी । अपतिऽघ्नी । इह । एधि । शिवा । पशुऽभ्य: । सुऽयमा । सुऽवर्चा: । प्रजाऽवती । वीरऽसू: । देवृऽकामा । स्योना । इमम् । अग्निम् । गार्हऽपत्यम् । सपर्य ॥२.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (अपतिघ्नी) पति को न सतानेवाली, (अदेवृघ्नी) देवरों को न कष्टदनेवाली, (शिवा) मङ्गल करनेवाली, (पशुभ्यः) के लिये (सुयमा) सुन्दर नियमोंवाली (सुवर्चाः) बड़े तेजवाली (एधि) हो। (प्रजावती) श्रेष्ठ प्रजाओं [सेवक आदि]रखनेवाली, (वीरसूः) वीरों की उत्पन्न करनेवाली, (देवृकामा) देवरों से प्रीतिकरनेवाली, (स्योना) सुखयुक्त तू (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि को (सपर्य) सेवन कर ॥१८॥
भावार्थ
गृहिणी को चाहिये किअपने पति और सब कुटुम्बियों और पशुओं को प्रसन्न रखकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करेऔर गृहकार्य की सिद्धि के लिये शिल्पकर्म, हवनकर्म और पाकक्रिया आदि में अग्निका यथावत् प्रयोग करती रहे ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(अदेवृघ्नी) देवॄणामहिंसित्री (अपतिघ्नी) (इह)अस्मिन् गृहाश्रमे (एधि) भव (शिवा) हितकरी (पशुभ्यः) गवादिभ्यः (सुयमा)शोभननियमयुक्ता (सुवर्चाः) बहुतेजाः (प्रजावती) श्रेष्ठसेवकादिभिः युक्ता (देवृकामा) म० १७ (स्योना) (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) भौतिकमग्निम् (गार्हपत्यम्) गृहपतिसम्बन्धिनम् (सपर्य) सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।५। सेवस्व॥
विषय
गार्हस्थ अग्नि की सपर्य
पदार्थ
१. हे वधु ! तू (इह) = इस घर में (अदेवृघ्नी अपतिघ्नी ऐधि) = देवरों व पति को नष्ट करनेवाली न होती हुई फूल-फल, अर्थात् तेरा व्यवहार भाइयों में कटुता पैदा न कर दे। परस्पर झगड़ते हुए वे अपने आयुष्य को कम न कर बैठे। (पशुभ्यः शिवा) = घर के गवादि पशुओं के लिए भी कल्याण करनेवाली होना-उन सबका भी पूरा ध्यान करना। (सुयमा सुवर्चा:) = तू उत्तम संयमवाली और परिणामत: उत्तम वर्चस्वाली बनना। २. संयम व सुवर्चस् जीवनबाली तू (प्रजावती) = उत्तम सन्तानवाली, (वीरसूः) = वीरों को ही जन्म देनेवाली बनना। 'कोई भी सन्तान निर्बल न हो, इस बात का पूरा ध्यान रखना। (देवृकामा) = पति के भाइयों के साथ भी मधुर व्यवहारवाली और इसप्रकार (स्योना) = घर में सुख को बढ़ानेवाली बनना। घर में सुख की वृद्धि के हेतु से ही तुने (इमं गार्हपत्यं आग्निं सपर्य) = इस गार्हपत्य अग्नि का पूजन करना-भोजन के परिपाक आदि की व्यवस्था का पूरा ध्यान करना।
भावार्थ
गृहपत्नी घर में कलह का कारण न बने, गवादि पशुओं का भी ध्यान करे। संयत जीवनवाली व वर्चस्विनी हो। उत्तम सन्तान को जन्म देती हुई घर में सुख-वृद्धि का कारण बने। भोजन के परिपाक को 'गाईपत्य अग्नि में यज्ञ' रूप समझे। इस यज्ञ को सम्यक् करती हुई सबके स्वास्थ्य को सिद्ध करे।
भाषार्थ
हे वधु ! (इह) इस पतिगृह में तू (अदेवृघ्नी) देवरों को कष्ट न पहुंचाने वाली, (अपतिघ्नी) पति को कष्ट न पहुँचाने वाली, (पशुभ्यः) पशुओं के लिये (शिवा) उन की सेवा करनेवाली या कल्याण करनेवाली (सुयमा) यम-नियमों का उत्तमविधि से पालन करनेवाली या गृह का उत्तम नियमन-प्रबन्ध करनेवाली, (सुवर्चाः) उत्तमतेज तथा शारीरिक कान्ति से युक्त, (प्रजावती) उत्तम-सन्तानों वाली, (वीरसूः) वीरसन्तानें पैदा करने वाली, (देवृकामा) देवरों की शुभकामना करनेवाली, या नियोगार्थ देवर की कामना करनेवाली, (स्योना) तथा सब को सुख देनेवाली (एधि) बन। और (इमम्) इस (गार्हपत्यम्) गृहरक्षक (अग्निम्) गार्हपत्यनामक अग्नि की (सपर्य) सेवा किया कर।
टिप्पणी
[गार्हपत्यम् ="गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः" (अष्टा० ४।४।९०) द्वारा गार्हपस्थ शब्द संज्ञावाची है। गृहपति, विवाहानन्तर, गार्हपत्य-अग्नि की स्थापना घर में करता है। यह अग्नि गृह में सदा वर्तमान रहना चाहिये। इस अग्नि से अग्नि का उद्धरण कर, दैनिक अग्निहोत्र करना होता है। उद्धृत अग्नि को आहवनीय अग्नि कहते हैं। अग्नि-सपर्या के लिये देखो (मन्त्र १४।२।२०, २१, २३, २४,२५)। यह अग्नि "रक्षांसि सर्वा" (१४।२।२४) अर्थात्, सब प्रकार के रोगकीटाणुओं का हनन करती है। देवृकामा के स्थान में देवकामा (ऋ० १०।८५।४४)।] [व्याख्या-वधू को उपदेश—तूने देवरों और पति को मानसिक तथा शारीरिक कष्ट न पहुंचाना, पशुओं की सेवा और देखभाल में आलस्य न करना, गृहवासियों पर प्रेमपूर्वक शासन तथा यम-नियमों का पालन करना, गृहस्थधर्म का पालन करते हुए अपने शरीर की कान्ति और तेज को बनाए रखना, उत्तम और वीर सन्तानों वाली होना, सब को सुख देने वाली तथा अग्निहोत्र आदि यज्ञों के लिये गार्हपत्याग्नि को बनाए रखना।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे नववधु ! तू (अदेवृघ्नी अपतिघ्नी) देवर और पति को विनाश न करनेहारी होकर (इह एधि) इस घर में आ। और (पशुभ्यः) पशुओं के (सुयमा) उत्तम रीति से दमन करने वाली (सुवर्चाः) उत्तम तेजस्विनी और (शिवा) सुखकारिणी (प्रजावती) प्रजा से युक्त, (वीरसूः) वीर बालकों को प्रसव करनेवाली (देवृकामा) पति से सन्तान के अभाव में देवर की कामना करने वाली होकर (गार्हपत्यम्) गृहपति स्वरूप (अग्निम्) अपने गृहस्थ के नेता पति को (सपर्य) गार्हपत्यानि देव के समान ही पूजा कर। ‘देवृकामा’—देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया। प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये। मनु० ९। ५॥ यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः। तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥ मनु० ९। ६९॥ पाणिग्राह पति की सन्तान के नाश हो जाने पर नियोग विधि से देवर, तदभाव में सपिण्ड पुरुष से स्त्री सन्तान प्राप्त करे। वाणी से प्रतिज्ञा मन्त्रों द्वारा पति को वर लेने पर भी नियोग विधि से ही देवर उस कन्या को स्वीकार करे।
टिप्पणी
(च०) ‘स्योनान्त्वेधिषीमहि सुमनस्यमानाः’ इति पैप्प० सं०। ‘अघोरचक्षुरपतिघ्नि एधि शिवापशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः’। ‘वीरसूर्देवृकामा स्योना शंनो भवद्विपदे शं चतुष्पदे’। इति ऋ०। (तृ०) ‘देवृकामा, देवकामा’ इत्युभमथा पाठौ। गृह्यसूत्रेषु ऋग्वेदगतः पाठः प्रापिकः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Unhurtful and loving to brothers-in-law, loving to the husband, kind to animals, self-controlled, noble and brilliant, blest with progeny, mother of the brave, and gracious, serve and maintain the holy fire of the home.
Translation
Not bringing death to your brothers-in-law, not bring death to your husband, well-disciplined and brilliant, may you prosper here auspicious to the cattle. Having plenty of progeny, bearer of brave sons, pleasing to the brothers-in-law, delightful, may you look after this household fire.
Translation
O bride, you being non-slayer of husband, non-slayery husbands brothers, kind for animals, adherent to discipline, possessing charm and splendor, prolific, progenitiv of heroes desirous of Devarah (as an alternative of husband in emergency) and providing all with pleasure enkindle the fire of house-hold to perform Yajna.
Translation
No slayer of thy husband or his brother, be benevolent to the cattle, law-abiding and prosperous. Longing for the welfare of thy husband's brother, employing servants, give birth to heroes. Tend well the household fire: be soft and pleasant.
Footnote
Tend-fire: Perform Agni Hotra (Havan) daily.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(अदेवृघ्नी) देवॄणामहिंसित्री (अपतिघ्नी) (इह)अस्मिन् गृहाश्रमे (एधि) भव (शिवा) हितकरी (पशुभ्यः) गवादिभ्यः (सुयमा)शोभननियमयुक्ता (सुवर्चाः) बहुतेजाः (प्रजावती) श्रेष्ठसेवकादिभिः युक्ता (देवृकामा) म० १७ (स्योना) (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) भौतिकमग्निम् (गार्हपत्यम्) गृहपतिसम्बन्धिनम् (सपर्य) सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।५। सेवस्व॥
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