अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
3
तुभ्य॒मग्रे॒पर्य॑वहन्त्सू॒र्यां व॑ह॒तुना॑ स॒ह। स नः॒ पति॑भ्यो जा॒यां दा अ॑ग्ने प्र॒जया॑स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । अग्रे॑ । परि॑ । अ॒व॒ह॒न् । सू॒र्याम् । व॒ह॒तुना॑ । स॒ह । स: । न॒: । पति॑ऽभ्य: । जा॒याम् । दा: । अग्ने॑ । प्र॒ऽजया॑ । स॒ह ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यमग्रेपर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह। स नः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजयासह ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम् । अग्रे । परि । अवहन् । सूर्याम् । वहतुना । सह । स: । न: । पतिऽभ्य: । जायाम् । दा: । अग्ने । प्रऽजया । सह ॥२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वज्ञपरमात्मन् ! (अग्रे) पहिले से वर्तमान (तुभ्यम्) तेरे लिये [तेरी आज्ञा पालन केलिये] (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या को (वहतुना सह) दाय [यौतुक, अर्थात् विवाह में दिये हुए पदार्थ] के साथ (परि) सबप्रकार से (अवहन्) वे [विद्वान् लोग] लाये हैं, (सः) सो तू [हे परमेश्वर !] (नःपतिभ्यः) हम पतिकुलवालों के हित के लिये (जायाम्) इस पत्नी को (प्रजया सह) प्रजा [सन्तान सेवक आदि] के साथ (दाः) दे ॥१॥
भावार्थ
अनादि परमात्मा कीउपासना करके विद्वान् लोग गुणवती कन्या को यौतुक आदि के साथ पतिकुल में आनन्दसे रहने के लिये आशीर्वाद देवें ॥१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३८, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर केयज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करने में उद्धृत है ॥
टिप्पणी
१−(तुभ्यम्) तवाज्ञापालनाय (अग्रे)आदौ वर्तमानाय (परि) सर्वतः (अवहन्) प्रापितवन्त विद्वांसः (सूर्याम्)प्रेरयित्रीम्। सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनीं कन्याम् (वहतुना) विवाहकालेदेयपदार्थेन (सह) (सः) स त्वं परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (पतिभ्यः) पतिकुलस्थानांहिताय (जायाम्) पत्नीम् (दाः) देहि (अग्ने) अगि गतौ-नि, नलोपः। हे सर्वज्ञपरमात्मन् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (सह) ॥
विषय
अग्ने के प्रति कन्या का अर्पण
पदार्थ
१.हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सूर्याम्) = इस सूर्या को-सूर्यसम दीप्त कन्या को इसके माता-पिता (वहतुना सह) = सम्पूर्ण दहेज के साथ (अग्रे) = पहले (तुभ्यम्) = तेरे लिए (पर्यवहन्) = प्राप्त कराते हैं। माता-पिता को अपनी कन्या को दूसरे घर में भेजते हुए आशंका का होना स्वाभाविक ही है। वे प्रभु से कहते हैं कि हम तो इसे आपको ही सौंप रहे हैं। आपने ऐसी कृपा करनी कि वह ठीक स्थान पर ही जाए। २. हे अने। हमने तो इस कन्या को आपके लिए सौंप दिया है। (स:) = वे आप (न:) = हमारी इस कन्या को (पतिभ्यः) = पतियों के लिए (जायां दा:) = पत्नी के रूप में प्राप्त कराइए। आप इस कन्या को (प्रजया सह) = उत्तम प्रजा के साथ कीजिए। 'अग्नि' शब्द [आचार्य] के लिए भी आता है। कन्या को आचार्य के प्रति सौंपकर माता-पिता आचार्य द्वारा ही उसका सम्बन्ध कराएँ।
भावार्थ
कन्याओं के विवाह-सम्बन्ध आचार्यों के माध्यम से होने पर सम्बन्ध के अनौचित्य की शंका नितान्त कम हो जाती है। यह सम्बन्ध प्रभु-पूजनपूर्वक होना ही ठीक है।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्नि ! (सूर्याम्) इस सूर्या ब्रह्मचारिणी को [दिव्यशक्तियों मे] (अग्रे) मनुष्यज पति के साथ विवाह से पहिले (तुभ्यम्) तुझे अर्थात् तेरे प्रति (पर्यवहन्) प्राप्त कराया था, (सः) वह तू अब हे अग्नि ! (नः) हम (पतिभ्यः) मनुष्यज पतियों अर्थात् रक्षकों के लिए, (प्रजया सह) प्रजननशक्ति के साथ वर्तमान हुई (जायाम्) प्रजोत्पादन में समर्थ सूर्या को, (वहतुना सह) विवाह विधि के साथ या वहन करने वाले रथ के साथ (दाः) प्रदान कर ।
टिप्पणी
[वहतुना=वहतुः=विवाह (अथर्व० १४।१।१३-१४); वहतुः Marriage (आप्टे)। तथा रथ (अथर्व० १४।१।६१) प्रजया=प्रजा=Grocration, birth, Production (आप्टे)।जाया=यस्यां जायते सा (उणा० ४।११२)]। [व्याख्या - मन्त्र में अग्नि का सम्बोधन कविता शैली से है। अग्नि का यहां अभिप्राय है रजस्वला का मासिकरजस्। "सौम्यं शुक्रम्, आर्तवमाग्नेयम्" तथा "अग्निसोम संयोगाद् संसृज्यमानो गर्भाशयमनु प्रतिपद्यते क्षेत्रमः" (सुश्रुत, शारीर स्थान) में वीर्य को सोम तथा रजस् को अग्नि कहा है। रजस् की पूर्णपरिपक्वावस्था लगभग २५वें वर्ष में होती है। यही सूर्या के विवाह का सर्वोत्तम काल होता है। मन्त्र १४।२।२।३ में "तुरीयः मनुष्यजाः" द्वारा मनुष्यज पति में एकवचन द्वारा सूचित किया है कि सूर्या का मनुष्यज पति एक ही है। इस लिये "पतिभ्यः" में बहुवचन यौगिक विधया नाना-रक्षकों का द्योतक है। जैसे राष्ट्रपति, सभापति, सेनापति आदि शब्दों में पति का अर्थ है रक्षक। सूर्या विवाह के पश्चात् जब पतिगृह में जायगी तब उस के रक्षक नाना होंगे,—यह भाव पतिभ्यः द्वारा प्रकट किया है। सास, श्वसुर, देवर आदि ये सब रक्षक हैं। मन्त्र में सूर्या का अमनुष्य-पति अर्थात् रक्षक अग्नि अर्थात् रजस् कहा है। तत्पश्चात् सूर्या का पति मनुष्यज होता है। विशेष व्याख्या १४।२।२।२-४ मन्त्रों में की गई है।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवान् परमेश्वर ! और आचार्य (तुभ्यम् अग्रे) तेरे समक्ष हम युवक लोग (वहतुना सह) दहेज और रथ के सहित (सूर्याम्) वरणीय सवित्री कन्या को (परि अवहन्) परिणय करते हैं (सः) वह तू (नः पतिभ्यः) हम पतियों को (प्रजया सह) प्रजा सहित (जायाम्) स्त्री, पत्नी को (दाः) प्रदान कर। ‘सूर्याम्’ ‘जायाम्’, ‘पतिभ्यः’ इत्याद्येकवचन बहुवचनं जात्याख्यायाम्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O Agni, spirit of light and life, the divinities first conducted Surya, the bride, with her bridal wealth to you. May you now give her with her maturity and motherly potential as wife to the bridegroom and his family who will honour, protect and maintain her. (Refer also to Rgveda 10, 85, 40) (When a girl child is born, the parents think of her upbringing, education and preparation for her settlement under the divine care of Agni, divine spirit of life and light. When she is mature with full health, education and bridal accomplishments, she is married and given over to the bridegroom and his family. The word ‘pad’ means husband but it also means one who cares for her and maintains and protects her. And when she comes to the family of the bridegroom she becomes the responsibility of the entire family. Hence ‘patibhyah’ here means the bridegroom and other members of the family who will care, maintain and protect her and help her grow further as mother head of the family.)
Subject
Marriage ceremonies
Translation
First of all they carry the maiden of marriageable age along with the bridal gifts to you. May you as such, O fire divine, give us, the husbands, a wife capable of bearing children. (Rg. X.85.38; Variation).
Translation
The natural elements organic and inorganic playing their parts in the body hand over the girl to Agni, the heat which brings maturity in her. This Agni in its turn gives her to Soma, the most vital activity of mental maturity just as the light of sun with its operational power goes to the moon. This Agni in the form of bride gives her to me the husband for being his wife blessed with children.
Translation
O Primordial God, in obedience to your command, we have brought the girl after marriage with her dowry; give us the relatives of the husband the wife with future children!
Footnote
See Rig, 10-85-38. Maharshi Dayananda has explained this verse in the Sanskar Vidhi in the chapter on marriage.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(तुभ्यम्) तवाज्ञापालनाय (अग्रे)आदौ वर्तमानाय (परि) सर्वतः (अवहन्) प्रापितवन्त विद्वांसः (सूर्याम्)प्रेरयित्रीम्। सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनीं कन्याम् (वहतुना) विवाहकालेदेयपदार्थेन (सह) (सः) स त्वं परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (पतिभ्यः) पतिकुलस्थानांहिताय (जायाम्) पत्नीम् (दाः) देहि (अग्ने) अगि गतौ-नि, नलोपः। हे सर्वज्ञपरमात्मन् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (सह) ॥
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