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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 59
    ऋषिः - आत्मा देवता - पथ्यापङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    यदी॒मे के॒शिनो॒जना॑ गृ॒हे ते॑ स॒मन॑र्तिषू॒ रोदे॑न कृ॒ण्वन्तो॒घम्। अ॒ग्निष्ट्वा॒तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । इ॒मे । के॒शिन॑: । जना॑: । गृ॒हे । ते॒ । स॒म्ऽअन॑र्तिषु: । रोदे॑न । कृ॒ण्व॒न्त: । अ॒घम् । अ॒ग्नि:। त्वा॒ । तस्मा॑त् । एन॑स: । स॒वि॒ता । च॒ । प्र । मु॒ञ्च॒ता॒म् ॥२.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदीमे केशिनोजना गृहे ते समनर्तिषू रोदेन कृण्वन्तोघम्। अग्निष्ट्वातस्मादेनसः सविता च प्र मुञ्चताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । इमे । केशिन: । जना: । गृहे । ते । सम्ऽअनर्तिषु: । रोदेन । कृण्वन्त: । अघम् । अग्नि:। त्वा । तस्मात् । एनस: । सविता । च । प्र । मुञ्चताम् ॥२.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) यदि (इमे) यह (केशिनः) क्लेशयुक्त (जनाः) मनुष्य (ते गृहे) तेरे घर में (रोदेन) विलाप के साथ (अघम्) दुःख (कृण्वन्तः) करते हुए (समनर्तिषुः) मिलकर इधर-उधर फिरें। (अग्निः)तेजस्वी (च) और (सविता) प्रेरक मनुष्य (त्वा) तुझे (तस्मात् एनसः) उस कष्ट से (प्र) सर्वथा (मुञ्चताम्) छुड़ावे ॥५९॥

    भावार्थ

    यदि घर के लोग रोग वादरिद्रता आदि के कारण से क्लेश उठावें, प्रधान पुरुष अपने मानसिक और शारीरिकउत्साह और परमेश्वर में विश्वास से तेजस्वी होकर उन का दुःख दूर करें॥५९॥

    टिप्पणी

    ५९−(यदि) सम्भावनायाम् (इमे) समीपस्थाः (केशिनः) क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ०५।३३। क्लिश उपतापे-अन्, लस्य लोपः। केश-इनि। क्लेशिनः। क्लेशयुक्ताः (जनाः)मनुष्याः (गृहे) (ते) तव (समनर्तिषुः) मिलित्वा नर्तनम् इतस्ततो गमनं कुर्युः (रोदेन) विलापेन (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (अघम्) दुःखम् (अग्निः) तेजस्वी (त्वा)त्वाम् (तस्मात्) (एनसः) कष्टात् (सविता) प्रेरकः पुरुषः (च) (प्र) प्रकर्षेण (मुञ्चताम्) एकवचनं लोट्। मोचयतु ॥

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    विषय

    अघ-निवारक 'अग्नि व सविता'

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (इमे) = ये (केशिनाः जनाः) = बिखरे हुए बालोंवाले लोग (ते गृहे) = तेरे घर में (अघं कृण्वन्ति) = [अध: pain, grief, distress] शोक करते हुए (रोदेन समनर्तिषुः) = नाच-कूद करने लगें-बिलखें तो (तस्मात् एनसः) = उस [एनस् unhappiness], निरानन्दता से-दुःखमय वातावरण से (अग्निः सविता च) = अग्नि और सविता-वह अग्रणी, सवोत्पादक प्रभु (त्वा प्रमुञ्चताम्) = तुझे मुक्त करें। तुम्हारे अन्दर आगे बढ़ने की भावना हो तथा निर्माण के कार्यों में लगे रहने की प्रवृत्ति हो। ऐसा होने पर घर में इसप्रकार बिलख-बिलखकर रोने के दृश्य उपस्थित न होंगे। २. (यदि इयम्) = यदि यह (तव दुहिता) = तेरी दूरेहिता-बिवाहिता कन्या विकेशी = बालों को खोले हुए (गृहे अरुदन्) = घर में रोती है और (रोदेन) = अपने रोने से (अपं कृण्वती) = दुःख के वातावरण को उपस्थित कर देती है और इसीप्रकार (यत्) = जो (जामय:) = तेरी विवाहिता बहिनें, (यत् युवतयः) = और युवति कन्याएँ (ते गृहे समनर्तिषु:) = तेरे घर में नाच-कूद मचा देती है और रोदेन (अघं कृण्वति) = रोने के द्वारा दुःखमय वातावरण बना देती हैं, इसीप्रकार (यत्) = जो (ते प्रजायाम्) = तेरी सन्तानों में, (पशुषु) = गवादि पशुओं में (यत् वा) = अथवा (गृहेषु) = पत्नी में (अघकृद्भिः) = किन्हीं पापवृत्तिवालों ने (निष्ठितम् अरघं कृतम्) = [निष्ठितम्-firm, certain] निश्चितरूप से स्थाई कष्ट उत्पन्न कर दिया है तो अग्नि और सविता तुझे उस कष्ट से मुक्त करें। वस्तुत: आगे बढ़ने की भावना से और घर में सबके निर्माण कार्यों में लगे रहने से इसप्रकार के कष्टों में रोने के अवसर उपस्थित ही नहीं होते। सामान्यत: घरों में शान्ति बनी रहती है। अग्नि व सविता की उपासना के अभाव में अज्ञान की वृद्धि होती है, दु:खद घटनाएँ उपस्थित हो जाती हैं और रोने-धोने के दृश्य उपस्थित हुआ करते हैं।

    भावार्थ

    यदि घरों में सब आगे बढ़ने की भावना से युक्त हों और निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त रहें तो व्यर्थ के कलहों के कारण रोने-धाने के दृश्य उपस्थित ही न हों।

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    भाषार्थ

    (यदि) यदि (इमे) ये (केशिनः जनाः) केशोंवाले जन अर्थात् स्त्रियां (रोदेन) रुदन द्वारा (अधम्) मृत्यु को (कृण्वन्तः) प्रकट करती हुई (ते) हे वधू! तेरे (गृहे) घर में (समनर्तिषुः) इकट्ठी हो कर रोई-पीटी हैं, तो (तस्मात्) उस (एनसः) मृत्यु के कारणीभूत पाप से, (अग्निः) अग्नि (च) और (सविता) सूर्य (त्वा) तुझे (प्र मुञ्चताम्) छुड़ावें।

    टिप्पणी

    [अधम्=आ हन्। अद्यं हन्तेः निर्हसितोपसर्गः। आहन्तीति (निरु० ६।३।११)। समनर्तिषुः=नृती गात्रविक्षेपे। दुःख के कारण अङ्गों का इधर-उधर पटकना। एनसः=एनः एतेः (निरु० ११।३।२४)।] [व्याख्या–पूर्ण आयु भोग कर मृत्यु का होना तो अवश्यम्भावी है। परन्तु बालकों, बालिकाओं, तथा युवकों की मृत्युएं- किन्हीं पापों के नियमों के भंग के, दुःखदायी परिणाम हैं-यह वैदिक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को दर्शाने के लिए मन्त्र में “अघ” शब्द पठित है, जिस का अर्थ है “पाप जन्य मृत्यु”। “अघ” का मूल अर्थ है,-पाप, परन्तु इस का धात्वर्थ है-हनन, मृत्यु। एनस् का अर्थ है, पाप। एनस् के साथ हनन या मृत्यु की भावना नहीं। असामयिक मृत्युएं वर्तमान तथा पूर्वजन्मों के संचित पापों के भी परिणाम हो सकती हैं, तथा माता-पिता और समाज के पापों के परिणामरूप भी हो सकती हैं। अतः ऐसी मृत्युओं और कष्टों से बचने के लिये मनुष्यों को चाहिये कि वे पापकर्मों के करने से बचे रहें। मृत्युओं तथा कष्टों के प्राकृतिक कारण भी होते हैं। यथा वायु, जल तथा स्थल का शुद्ध न होना, तथा अन्य स्वास्थ्यकारी अवस्थाओं की अवहेलना करना। ऐसी हत्याओं और कष्टों के निवारणार्थ मन्त्र में दो उपाय दर्शाएं हैं। एक अग्नि और दूसरा सूर्य। गृहों में गार्हपत्य अग्नि की स्थापना, उस में दैनिक तथा अन्य ऋतु के अनुकूल यज्ञों का करना, तथा गृहों में सूर्य के प्रकाश का होना- दीर्घ जीवन के लिये आवश्यक है। मन्त्र में स्त्रियों को “केशिनः जनाः” कहा है। इस से प्रतीत होता है कि केशों का शिरों पर रखना स्त्रियों के लिए आवश्यक है। निकट-सम्बन्धी की मृत्यु की अवस्था में सम्बन्धियों का मृत्यु वाले गृह में आकर इकट्ठा होना, और स्वाभाविक शोक से प्रेरित होकर उन का रोना,-यह भी परस्पर अनुराग का स्वाभाविक परिणाम है, जिस का कि मन्त्र में वर्णन हुआ है।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे गृहस्थ पुरुष ! (यद्) जब (इमे) ये (केशिनः) लम्बे केशों वाले, केश खोलकर (जनाः) पुरुष (ते) तेरे (गृहे) घर से (रोदेन) अपने रोने चिल्लाने से (अधम्) पाप या बुरे दृश्य या विघ्न (कुणवन्तः) करते हुए (सम अनर्तिषुः) बहुत नाच कूद करें अपने गात्रा फेंके, विलखें तो (तस्माद्) उस (एनसः) बुरे कार्य या पाप से (त्वा) तुझे (अग्निः) ज्ञानी पुरुष (सविता च) उत्पादक परमेश्वर (प्रमुञ्चताम्) सदा भली प्रकार बचावें।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यदमी’ (द्वि०) ‘कृण्वतीर’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    If these people with dishevelled hair assemble in your house, enacting a dance of death and wail with sin and sorrow, then may Agni and Savita, brilliant and creative powers and people, save and release you from that deathly sin.

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    Translation

    If these people with long hair have danced together in your house, Creating unpleasantness with wails and cries, may the Lord adorable and inspirer, free you from that nuisance.

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    Translation

    If these long-loose haired men dance together in your house committing sin with weeping and cry let Agni, the Acharya and Savitar, the man of creative geneus keep you away from such an evil.

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    Translation

    If these distressed persons move about hither and thither in thy house, feeling misery, bewailing and crying, causing distress, may the learned Acharya free thee from that suffering, may God deliver thee from that.

    Footnote

    Thy: The father of the bride. After the departure of the bride, none should indulge in riotous, foolish or inauspicious doings.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(यदि) सम्भावनायाम् (इमे) समीपस्थाः (केशिनः) क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ०५।३३। क्लिश उपतापे-अन्, लस्य लोपः। केश-इनि। क्लेशिनः। क्लेशयुक्ताः (जनाः)मनुष्याः (गृहे) (ते) तव (समनर्तिषुः) मिलित्वा नर्तनम् इतस्ततो गमनं कुर्युः (रोदेन) विलापेन (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (अघम्) दुःखम् (अग्निः) तेजस्वी (त्वा)त्वाम् (तस्मात्) (एनसः) कष्टात् (सविता) प्रेरकः पुरुषः (च) (प्र) प्रकर्षेण (मुञ्चताम्) एकवचनं लोट्। मोचयतु ॥

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